हीरा (Diamond) बहुमूल्य पत्थरों में हीरा या स्थान सर्वोच्च है। युगों से यह राजपरिवारों और समृद्ध व्यक्तियों के आभूषण का मुख्य अंग रहा है। भारत प्राचीन समय से ही हीरों का उत्पादक रहता है और विश्व के सुंदरतम तथा विशालतम हीरों में भारत की देन अनुपम है। किंतु दो तीन शताब्दियों से, जब से दक्षिणी अफ्रीका के किंबरली प्रदेश में हीरों की अत्यंत उत्पादक खानें मिली हैं, भारतीय हीरे के उद्योग को पर्याप्त आघात पहुँचा है। गत कुछ वर्षों से इस उद्योग को पुन: बढ़ावा मिल रहा है और आशा की जाती है कि हीरों के खनन का राष्ट्रीयकरण हो जाने पर यह उद्योग प्रगतिपथ पर द्रुत गति से अग्रसर होगा।
रासायनिक संरचना तथा भौतिक गुण - हीरा कार्बन का ही शुद्ध रूप है। अधिकतर यह वर्णहीन होता है, यद्यपि कभी कभी इसमें पीले अथवा नीले वर्ण की एक साधारण सी झलक रहती है। मोह के कठोरता मापदंड में इसकी कठोरता १० है अर्थात् यह विश्व का सर्वाधिक कठोर पदार्थ है। ये भंगुर होते हैं। हीरे के क्रिस्टल अधिकतर अष्टफलकीय (Octahedral) होते हैं तथा ऐसा समझा जाता है कि ये दो चतुष्फलकीय के संयोग से बने हैं। हीरों में विदलन तल अष्ठफलकीय तलों के अनुभव होता है। इसकी विशेष द्युति को हीरक द्युति (Admantine) कहते हैं। कुछ गहरे वर्ण के सघन क्रिस्टलीय हीरे 'रुक्ष हीरे' या बोर्ट (Bort) कहलाते हैं।
प्राप्तिस्थान - भारत में हीरा कैब्रियनपूर्वयुग की जीवाश्महीन शिलाओं में प्राप्त होता है जो क्रमश: उत्तर और दक्षिण भारत में विंध्वसन क्रम तथा कडप्पा (Cuddapah) एवं कर्नूल क्रम के नाम से विख्यात है।
भौगोलिक दृष्टि से देश के हीरकमय प्रदेश तीन भागों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं : (१) मध्यभारतीय क्षेत्र, (२) दक्षिणी तथा (३) पूर्वी क्षेत्र।
(१) मध्यभारतीय क्षेत्र
भारत के हीरों का उत्पादन पूर्ण रूप से प्राय: इसी क्षेत्र में होता है तथा अन्य क्षेत्रों का उत्पादन अत्यंत नगण्य अथवा शून्य ही समझा जा सकता है। यह क्षेत्र लगभग ९६ किमी लंबा और १६ किमी चौड़ा है तथा इसके अंतर्गत पन्ना, अजयगढ़, चरखारी, कछार, कोठी, पठार, चौबेपुर तथा बरौंधा आदि स्थान आते हैं। स्थानीय हीरकमय शैल की जातियों के आधार पर यह क्षेत्र पुन: तीन भागों में विभक्त किया गया है।
(क) हीरकमय संपिंडित शैल - संपीडित शैलस्तर ही इस क्षेत्र में हीरों का प्रधान स्त्रोत है। कुछ क्षेत्रीय लोग इन्हें मूड्ढा के नाम से जानते हैं। इसकी दो मुख्य स्तर हैं जिनमें एक विंध्यन क्रम के अंतर्गत कैमूर तथा रीवा श्रेणियों के मध्य तथा दूसरी रीवा और भांडेर श्रेणी के मध्य स्थित हैं। कैमूर ओर रीवा के बीच स्थित हीरों का मुख्य उत्पादक है। इस मुड्ढे की मोटाई लगभग २ मी है जिसमें विभिन्न प्रकार के जेस्परामय (Jasper bearing) पिंड एवं प्रस्तर वटियाँ हैं। हीरों के मूल स्त्रोत के संबंध में अभी भी मतभेद है। पन्ना से १९ किमी की दूरी पर मझगवाँ में एक विशिष्ट हीरकमय संपिडित पहाड़ी पाई गई है जो ज्वालामुखी उद्भव की है तथा बहुत कुछ अंशों में किंबरली प्रदेश (अफ्रीका) के शैलों के समान है जिससे इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि कुछ हीरे अवश्य ही मझगवाँ के सपिंडित शैलों से प्राप्त हुए होंगे।
(ख) हीरकमय एलूवियम तथा बजरी - भौतिक दृष्टि से अत्यंत कठोर एवं रासायनिक सुदृढ़ता के कारण, सामान्यत: हीरे पर ऋतुक्षारण (Weathering) का प्रभाव नहीं होता। पूर्वअर्वाचीन (Pre-Recent) तथा अर्वाचीन युगों में विंध्यन क्रम की कुछ शिलाएँ अपरदन (erosion) तथा विखडन द्वारा एलूवियम तथा बजरी में परिवर्तित हो गईं किंतु हीरे प्रभावहीन ही रहे। इस प्रकार हीरकमय स्तरों ने अपरदन और विखंडन द्वारा प्रभावित हो बालू और बजरी को जन्म दिया।
(ग) हीरकमय ज्वालाश्मचय (Diamondiferous Agglomerate) - पन्ना के समीप मझगवाँ में हीरों का एक प्राथमिक निक्षेप पाया जाता है। इसमें सरपेंटीन की अधिकता है जिसमें श्वेत कैल्साइट का इस प्रकार प्रवेश हुआ है कि एक जाल सा बन गया है। लौह अयस्क के कण भी इसमें अधिकता से पाए जते हैं। इस शैल के दृश्याश का आकार नासपाती जैसा ही है जिसकी अधिकाधिक लंबाई तथा चौड़ाई क्रमश: ४८० मी तथा ३०० मी है। इसके चारों ओर बालू पत्थर (Sandstone) की शिलाएँ हैं। भूविज्ञानी श्री के. पी. सिनोर के निरीक्षण से ऐसा ज्ञात होता है कि यह पातालीय तथा संभवत: ज्वालामुखीय ग्रीवा प्रदर्शित करती है।
सन् १९५० ई. में दक्षिण अफ्रीका की ऐंग्लो अमरीकन कार्पोरैशन के खनन इंजीनियर श्री ए. शैमडन हेरीसन तथा प्रधान भूविज्ञानी डा. ए. ई. वाटर्स ने इस क्षेत्र के हीरों के उत्पादन के संबंध में कुछ विशिष्ट आँकड़े प्रस्तुत किए। उनके अनुसार सामान्यत: हीरों की मात्रा की दर एक कैरट प्रति १००० घन फुट हुई। सन् १९५४-५५ में भारतीय भूविज्ञान सर्वेक्षण तथा भारतीय खान व्यूरो द्वारा भी इस क्षेत्र का विस्तृत सर्वेक्षण किया गया जिससे यह ज्ञात हुआ कि प्रति १०० टन शैल से प्राय: १२.५ कैरट हीरे प्राप्त होते हैं जिनका औसत मूल्य १७५० रुपए के लगभग होता है।
(२) दक्षिणी क्षेत्र
कर्नूल क्रम के अंतर्गत वानगलापल्ली स्तरसमूह हीरकमय है। वह क्षेत्र कडप्पा, अनंतपुर, कर्नूल, कृष्णा, गुंटूर एवं गोदावरी जिलों में फैला हुआ है। इन स्थानों में शिलाओं के अपरदन और विखंडन से प्राप्त बजरी एवं जलोढक हीरकमय होती है और इसीलिए वर्षा के पश्चात् कभी कभी अनायास ही हीरे पृथ्वी के ऊपर ही मिल जाते हैं।
कृष्णा जिले में हीरे, गोलापिल्ली बालू पत्थर के साहचर्य में मिलते हैं। इस क्षेत्र के मुख्य उत्पादन केंद्र परतियाल तथा गोलपिल्ली हैं जहाँ हीरकमय जलोढक तथा बजरी में हीरों की खानें निहित हैं।
(३) पूर्वी क्षेत्र
इस क्षेत्र के मुख्य उत्पादन केंद्र महानदी की घाटी स्थित संबलपुर व चाँदा जिलों में हैं। अन्य क्षेत्रों की भाँति इस क्षेत्र में भी नदी की जलोढक तथा बजरी हीरकमय हैं। विंध्यन एवं कर्नूल क्रमों के स्तरों में तो अभी तक हीरे देखने को नहीं मिले हैं। जहाँ तक खनन का प्रश्न है, नदी की बालू ही सीमा है।
हीरों का खनन - आज भी हीरों का खनन प्राचीन विधियों से ही होता है क्योंकि परिस्थितिवश यह आर्थिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से सर्वोत्तम है। खनन में मानवी शक्ति की ही प्रधानता है तथा फाबड़े, कुदाली, सावल, घन और छेनी आदि का ही प्रयोग किया जाता है। खानें अधिकतर खुली हुई गड्ढे की तरह हैं, यद्यपि कहीं कहीं सुरंगों के अंदर भी खुदाई की जाती है। यह सब उस क्षेत्र की परिस्थितियों तथा कुछ आर्थिक एव व्यावहारिक पहलुओं पर निर्भर करता है कि खनन का क्या रूप हो। कुछ समय से मझगवाँ की खानों को आधुनिक यंत्रों से सुसज्जित करने की योजनाएँ चल रही हैं जो उत्पादनवृद्धि में सहायक होंगी।
हीरे निकालने की विधियाँ - मध्यभारतीय क्षेत्र में जहाँ शैलस्तरों में हीरे मिलते हैं, खुदाई द्वारा हीरे निकाले जाते हैं। यहाँ पर शिलाएँ इतनी कठोर होती हैं कि कुछ गहरे गड्ढे करने के पश्चात् आगे और शिलाओं को तोड़ना अत्यंत कठिन हो जात है अत: इन्हें पहिले ईधंन द्वारा तपाते हैं। पर्याप्त तप्त हो जाने पर तीव्रता से पानी डाल दिया जाता है जिससे अति शीघ्रता से तापपरिवर्तन होता है फलत: शिलाएँ टूट जाती हैं। तत्पश्चात् शिलाओं के इन खंडों को घन द्वारा तोड़कर चूरा कर देते हैं। इस चूरे को सुखाकर इमें से हीरे बीन बीनकर निकाल लिए जाते हैं।
हीरकमय जलोढक तथा बजरी के खनन की विधि अत्यंत साधारण है। साधरण यंत्रों से खोदकर तथा पानी से धोकर हीरे निकाले जाते हैं। यही विधि हीरों के दक्षिणी एवं पूर्वी क्षेत्रों में प्रयोग की जाती है। कहीं कहीं पर ये स्तर साधारण मिट्टी से आच्छादित रहते हैं। ऐसे स्थानों पर पहले ऊपर की परतें हटाई जाती हैं। इसके लिए अधिकतर सीढ़ी जैसी वेदी (Terrace) बना ली जाती है फिर नीचे खुदाई की जाती है। रामखिरिया की खानें इसी प्रकार की हैं।
मझगवाँ क्षेत्र में सारे कार्य अब धीरे धीरे आधुनिक यंत्रों से होने लगे हैं। पत्थर की मिट्टी की खुदाई, ढुलाई, चूरा करने तथा धोने आदि सभी में ये यंत्र प्रयोग किए जाते हैं। हीरे चुनने का कार्य भी यंत्रों द्वारा संचालित होता है।
भारत में हीरों का उद्योग और उसका भविष्य - यद्यपि प्राचीनतम काल से भारत हीरों का उत्पादक रहा, तथापि १९२७ ई. तक उत्पादन नितांत अल्प था। इसके पश्चात् उत्पादन में वृद्धि के लक्षण दृष्टिगोचर हुए। सन् १९४१ के उपरांत कुछ विशेष वृद्धि होती दिखाई दी। मात्रा की दृष्टि से सर्वाधिक उत्पादन सन् १९५० में हुआ जबकि प्राप्त हीरों का भार २७६९ कैरट था जिनका मूल्य ४,१७,८५७ रु. हुआ था। मूल्य को ध्यान में रखते हुए उत्पादन सन् १९५३ में सर्वाधिक हुआ जब २२०७ कैरट का मूल्य ५,६१,६१० रु. प्राप्त हुआ। देश की आंतरिक खपत पर दृष्टि रखते हुए यह अत्यंत आवश्यक है कि हीरों का उत्पादन बढ़ाया जाए। अत: गत कुछ वर्षों से भारत सरकार ने भी इसमें विशेष रुचि ली है। पन्ना के सभी हीरकमय क्षेत्रों में भूभौतिकीय विधियों से सर्वेक्षण तथा अन्वेषण कार्य द्रुत गति पर हैं। कुछ रूसीविशेषज्ञों ने हाल ही में हीरों के खननक्षेत्रों का निरीक्षण किया था। इन विशेषज्ञों के अनुसार यदि सारी खानें पूर्णरूपेण यंत्रों द्वारा संचालित की जाएँ तो प्रतिदिन का उत्पादन १८९५ कैरेट तक पहुँच सकता है। सन् १९५७ में हीरों का उत्पादन ७९० कैरट था जिसका मूल्य १,६८,००० रु. प्राप्त हुआ।
विश्व के प्रसिद्ध हीरे - 'कोहनूर' जब इंग्लैंड ले जाया गया तब उसका भार १८६ कैरट, आबदार रत्न के रूप में कटाई के पश्चात् १०६ कै.। 'मौरलोफ'-१९४ कै.; 'रीजेंट' अथवा 'पिट'-१, ७ कै.; फ्लोरेंटाइन अथवा ग्रैंड ड्यूक ऑव टस्कैनी' - १३३ कैरट, 'दक्षिण का सितारा' (जो ब्राजील में मिला) - २४५ कै. काटने से पूर्व तथा १२५ कै. काटने के पश्चात्, नारंग-पीला तिफैनी १२५ कैरट।
अपने रंग तथा दुर्लभता के लिए प्रसिद्ध हीरे - हरा ड्रेसडन - ४० कैरट तथा गहरा नीला 'होप' (यह भारत में मिला है) - ४४ कैरट।
दक्षिण अफ्रीका में कुछ बहुत बड़े हीरे प्राप्त हुए हैं जिनमें उल्लेखनीय जागर्स फौटेन खदान से प्राप्त एक्सेलसियर ९६९ कैरट; जुबिली ६३४ कैरट, तथा इंपीरियल - ४५७ कैरट आदि हैं।
विश्व
का विशालतम हीरा 'कुल्लिनन' अथवा 'स्टार ऑव अफ्रीका'
जिसका भार जब व मिला ३०२५ कैरट (१ पाउंड से
भी ऊपर) था, सन् १९०५ में 'प्रोमियर' खदान से प्राप्त हुआ।
इसे ट्रांसवाल विधानसभा ने इंगलैंड के सप्तम एडवर्ड को
भेंट किया था। बाद में इसे १०५ टुकड़ों में काट दिया जिनमें
से भी दो क्रमश: ५१६ और ३०९ कैरट के वर्तमान कटे हीरों में
विशालतम हैं। (विद्या
सागर दुबे)