हीर राँझा पंजाब की प्रेमकथाओं में सबसे प्रसिद्ध और पुरातन किस्सा। हीर (नायिका) झंग (लाहौर से पश्चिम) के सरदार, चूचक स्याल की लड़की थी। राँझा (नायक) तखत हजारे का रहनेवाला था। अपनी भाभियों के दुर्व्यवहार से तंग आकर वह झंग में आ गया। यहाँ चिनाब के किनारे उसकी मुलाकात हीर से हुई। शीघ्र ही दोनों में प्रेम हो गया। राँझा चूवक की भैंसें चराने पर नौकर हो गया। हीर और राँझा का प्रेम बढ़ने लगा। बात खुल गई तो माँ बाप ने हीर को कहीं अन्यत्र ब्याह दिया। राँझा जोगी का वेश बनाकर वहाँ पहुँचा और हीर को निकाल लाया, किंतु विरोधियों ने उन्हें रास्ते में आ घेरा। इस किस्से के प्रथम कवि, दामोदर, के अनुसार एक मध्यस्थ के निर्णय से हीर राँझा को सौंप दी गई और वे दोनों मक्के की यात्रा पर चले गए। वारिसशाह और उसके बाद के कवियों के किस्से दु:खांत हैं। हीर ने माँ बाप के दिए विष से और राँझा ने हीर के वियोग में प्राण दे दिया।
लोकविश्वास के अनुसार यह घटना सच्ची बताई जाती है। हीर की समाधि झंग में स्थित है। दामोदर कवि अकबर के राज्यकाल में हुआ है। यह अपने को हीर के पिता चूचक का मित्र बताता है और कहता है कि यह सब मेरी आँखों देखी घटना है। दामोदर (१५७२ ई.) के बाद पंजाबी साहित्य में लगभग ३० किस्से 'हीर' या 'हीर राँझा' नाम से उपलब्ध हैं जिनमें गुरुदास (१६०७), अहमद गूजर (१७९२), गुरु गोविंदसिंह (१७००), मियाँ चिराग अवान (१७१०), मुकबल (१७५५), वारिसशाह (१७७५), हामिदशाह (१८०५), हाशिम, अहमदयार, पीर मुहम्मद बख्श, फजलशाह, मौलाशाह, मौलाबख्श, भगवानसिंह, किशनसिंह आरिफ (१८८९), संत हजारासिंह (१८९४), और गोकुलचंद शर्मा के किस्से सर्वविदित हैं, किंतु जो प्रसिद्धि वारिसशाह की कृति को प्राप्त हुई वह किसी अन्य कवि को नहीं मिल पाई। नाटकीय भाषा, अलंकारों और अन्योक्तियों की नवीनता, अनुभूति की विस्तृति, आचार व्यवहार की आदर्शवादिता, इश्क मजाज से इश्क हकीकी की व्याख्या, वर्णन और भाव का ओज इत्यादि इनके किस्से की अनेक विशेषताएँ हैं। इसमें बैत छंद का प्रयोग अत्यंत सफलतापूर्वक हुआ है। ग्रामीण जीवन के चित्रण, दृश्यवर्णन, कल्पना और साहित्यिकता की दृष्टि से मुकबल का 'हीर राँझा' वारिस की 'हीर' के समकक्ष माना जा सकता है। (हरदेव बाहरी)