हितहरिवंश (१५०२-५२ ई.) राधावल्ल्भ संप्रदाय के प्रर्वतक गोस्वामी हितहरिवंश का पैतृक घर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देववन (वर्तमान देवबंद) नामक नगर में था। देवबंद में ही इनका प्रारंभिक जीवन व्यतीत हुआ। सोलह वर्ष की उम्र में रुक्मिणी देवी के साथ इनका विवाह हुआ, जिससे इनके एक पुत्री और तीन पुत्र उत्पन्न हुए। तीस वर्ष की उम्र होने पर हरिवंश जी के मन में किसी आभ्यंतर प्रेरणा से ब्रजयात्रा करने की बलवती इच्छा पैदा हुई। बच्चों के छोटे होने के कारण इनकी पत्नी इस यात्रा में साथ न जा सकीं।

गृहस्थाश्रम में रहते हुए हरिवंश जी ने अनुभव कर लिया था कि संसार का तिरस्कार कर वैराग्य धारण करना ही ईश्वरप्राप्ति का एकमात्र साधन नहीं है, गृहस्थाश्रम में रहते हुए ईश्वराराधन हो सकता है और दांपत्य प्रेम को उन्मयन की स्थिति तक पहुँचाकर भवबंधन कट सकते हैं। ब्रजयात्रा करने के लिए जब वे जा रहे थे तब मार्ग में चिरथावल गाँव में एक धर्मपरायण ब्राह्मण आत्मदेव ने अपनी दो युवती कन्याओं का विवाह हरिवंश जी से करने का आग्रह किया। इस आग्रह का प्रेरक एक दिव्य स्वप्न था जो हरिवंश जी तथा आत्मदेव को उसी रात में हुआ था। फलत: दिव्य प्रेरणा मानकर हरिवंश जी ने यह विवाह स्वीकार कर लिया और वृंदावन की ओर चल पड़े। वृंदावन पहुँचने पर मदनैंटेर नामक स्थान पर उन्होंने डेरा डाला। उनकी मधुर वाणी और दिव्य वपु पर मुग्ध हो दर्शकमंडली एकत्र होने लगी और तुरंत वृंदावन में उनके शुभामन का समाचार सर्वत्र फैल गया। वृंदावन में स्थायी रूप से बस जाने पर उन्होंने मानसरोवर, वंशीवट, सेवाकुंज और रासमंडल नामक चार सिद्ध केलिस्थलों का प्राकट्य किया।

राधावल्लभीय उपासनापद्धति को प्रचलित करने के लिए हरिवंश जी ने सेवाकुंज में अपने उपास्यदेव का विग्रह संवत् १५९१ वि. (सन् १५३४ ई.) में स्थापित किया। इस संप्रदाय की उपासनापद्धति अन्य वैष्णव भक्ति संप्रदायों से भिन्न तथा अनेक रूपों में नूतन है। माधुर्योपासना को नया देने में सबसे अधिक योग इन्हीं का माना जाता है। हरिवंश के मतानुसार प्रेम या 'हिततत्व' ही समस्त चराचर में व्याप्त है। यह प्रेम या हित ही जीवात्मा को आराध्य के प्रति उन्मुख करता है। राधाकृष्ण की भक्ति से तत्सुखीभाव की स्थापना कर उसे सांसारिक स्वार्थ या आत्मसुख कामना से हरिवंश जी ने सर्वथा पृथक् कर दिया है। इस संप्रदाय की उपासना रसोपासना कही जाती है जिसमें इष्ट देवी राधा की ही प्रधानता है।

हितहरिवंश जी लिखित चार ग्रंथ प्राप्त हैं - राधासुधानिधि और यमुनाष्टक संस्कृत के ग्रंथ हैं। 'हित चौरासी' तथा 'स्फुट वाणी' इनकी सुप्रसिद्ध हिंदी रचनाएँ हैं। ब्रजभाषा में लालित्य और पेशलता की छटा इनकी हिंदी रचना में सर्वत्र ओतप्रोत है।

हितहरिवंश का निधन विक्रम सं. १६०९ (सन् १५५२ ई.) में वृंदावन में हुआ। अपने निधन से पूर्व इन्होंने ब्रज में माधुर्यभक्ति का पुनरुत्थान कर एक नूतन पद्धति को प्रतिष्ठित कर दिया था। इनकी शिष्यपरंपरा में भक्त कवि हरिराम व्यास, सेवक जी, ध्रुवदास जी आदि बहुत प्रसिद्ध हिंदी कवि हैं। (विश्वनाथ )