हिंदू ऋग्वेद ८,२४,२७ में 'सप्तसिंधव:' (अवेस्ता-हप्त हिंदु) शब्द देश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अन्यत्र उक्त शब्द से सात नदियों का ही आशय व्यक्त होता है। मैक्समुलर के मतानुसार इस शब्द से पंजाब की पाँच नदियों के साथ साथ सिंधु तथा सरस्वती का तात्पर्य निकलता है। सिंधु शब्द का अर्थ है -'स्यंद (न) शील' = क्षरणशील। संस्कृत वाङ्मय में सिंधु शब्द पाँच अर्थों में प्रयुक्त हुआ है - १. समुद्र २. नद, ३. नदी, ४. देश तथा ५. गजमद।

वैदिक वाङ्मय में 'स' के स्थान पर 'ह' का अनेकत्र विकास पाया जाता है। 'हरितो न रंह्या:' -अथर्ववेद २०,३०,४। इसकी व्याख्या में निघंटु कहता है -'सरितो हरितो भवंति, सरस्वत्यो हरस्वत्य:' (१,१३)। अर्थात् प्रस्तुत हरित् शब्द को उच्चारणभेद के कारण नदीवाचक सरित् शब्द समझना चाहिए और इसी प्रकार 'सरस्वती' का विकास 'हरस्वती' ज्ञेय है। यह वैदिक परिपाटी लोक में आज भी देशभेद से सर्वत्र प्रचलित है।

ईरान देश की सुपुरातन भाषा अवेस्ता में 'सिंधु' देश 'हिंदु' के रूप में उपलब्ध है। वहाँ इस शब्द का अर्थ होता है -'भारत'। 'भारतीय' अर्थ इससे अभिप्रेत नहीं है। पुरानी पर्शियन में यह शब्द 'हि (न्) दृ' के रूप में उल्लिखित है तथा वहाँ भी इसका अर्थ 'भारत देश' होता है (दे. कार्ल ब्रगमन् : कंपरेटिव ग्रामर ऑव दि इंडो-जर्मनिक लैंग्वेजेस्, द्वितीय खंड, पृ. ३१४)। ईरानी भाषाओं में संस्कृत भाषा का सकार हकार के रूप में विकसित होता है। संस्कृत के केसरी, मास और सप्ताह वहाँ क्रमश: 'केहरी' 'माह' और 'हफ्ता' हो जाते हैं। मेरुतंत्र आदि कुछ आधुनिक ग्रंथों में काल्पनिक व्याख्याओं द्वारा इसके संस्कृतीकरण का अनैतिहासिक प्रयास किया गया है। सिंधु से प्राप्तविकास 'हिंदू' शब्द भी अविकसित होने से बच नहीं सका। ग्रीक और लैटिन में वह 'इंडो (स्)' बोला जाने लगा। इस 'इंडो' का अर्थ होता है -'एशिया'।

बाद में जिस प्रकार भारत की प्रांतीय भाषाओं में 'सिंधु' को 'सिंधु' को 'सिंध' बोला जाने लगा उसी प्रकार फारसी मेंश् 'हिंदू' के स्थान परश् 'हिंद' का व्यवहार होने लगा। ईरानदेशीय पारसी संप्रदाय के मान्य ग्रंथ शातीर की १६२वीं आयत में भारतदेश का नाम हिंदू (< हिंद) रूप से प्रतिपादित है। इसी पुस्तक की १६३वीं आयत से प्रामाणित होता है कि उस समयश् 'हिंद' (< हिंदू) देश के निवासी को 'हिंदी' कहा जाता था - 'चूँ व्यास हिंदी बल्ख आमद'। सिंध (< सिंधु) प्रांत के निवासियों को भी आज लोग सिंधी कहते हैं 'सिंधू' नहीं। मुसलिम धर्म स्वीकार कर लेने के बाद पारस निवासियों ने 'हिंदू' शब्द के साथ 'काफिर', 'काला', 'लुटेरा', 'गुलाम' इत्यादि अर्थों की योजना की।

तात्स्थ्यलक्षणया 'हिंदू' शब्द 'हिंदू देश' = 'भारत' के निवासी अर्थ में भी प्रयुक्त होता रहा है, वह निवासी चाहे किसी भी जाति का क्यों न हो। मौलाना जलालुद्दीन रूमी 'बहरुल उलूम' मसनवी मौलाना रूम पुस्तक के 'दफ्तर दोयम' में हिंदूदेश = भारत के निवासी मुसलमानों को हिंदू नाम से पुकारते हैं-

'चार हिंदू दर यके मस्जिद शुदंद, बहरे ताअत रा के ओ साजिद शुदंद।' (मसनवी मौलवी मानवी, पृ. १६७, मुंशी नवलकिशोर प्रेस, १८६६ ई.) इसका आशय है कि चार हिंदू यानी हिंदुस्तानी मुसलमान एक मस्जिद में गए और इबादत के निमित्त सिजदा करने लगे।

इस्लाम धर्म की तुलना में भारतीय धर्म हिंदू धर्म के नाम से संबोधित होने लगा और पहले की अपेक्षा 'हिंदू' की व्यापकता कम हो गई। दाह किए जानेवाले ही 'हिंदू' माने जाने लगे - 'हिंदू दाह, यवन ईसाई दफन इसी में पाते हैं'। हिंदू के साथ धर्म शब्द के जोड़े जाने के कारण 'हिंदू की परिधि दिनानुदिन' संकुचित होती चली गई। हर फिर्का अपने को स्वयं में सीमित समझने लगा। आर्यसमाज में 'हिंदू' शब्द का बहिष्कार किया और उसके स्थान पर 'आर्य' शब्द की प्रतिष्ठापना की। हिंदी भाषा का नामकरण आर्यभाषा किया। हिंदू (धर्म) को ब्राह्मण (धर्म) समझ लिए जाने के कारण बौद्ध और जैन भी अपने को हिंदू कहने से मुकरने लगे। शेष भारतीय भी अपने को प्रथमत: हिंदू न कहकर वैष्णव, शैव, शाक्त, सिख आदि बताने लगे।

मुस्लिम जाति की तुलना में उनसे पूर्ववर्ती भारतीयों को हिंदू जाति का बताया जाने लगा। वस्तुत: यह भी एक प्रकार का अध्यारोप था। 'हिंदू' नामक कोई भी जाति नहीं थी अपितु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि आदि जातियाँ गणनीय थीं। हिंदू नामक न तो कोई पंथ था और न कोई मत ही।

निष्कर्षत: 'हिंदु' या 'हिंदू' बृहत्तर भारत देश की संज्ञा थी। फलत: इस देश के निवासी भी 'हिंदू' कहलाने लगे। (भगवती प्रसाद श्रीवास्तव)