हारूँर्रशीद सन् ७५० ई. में ओमय्यद राजवंश इस्लाम इतिहास की महान् खूनी क्रांति से समाप्त हो गया और अब्बासीद वंश का पाचवाँ खलीफा ७८६ ई. में राजसिंहासन पर बैठा। २३ वर्ष शासन करने के पश्चात् ८०८ ई. में उसकी मृत्यु हुई।

हारूँ शासन के प्रथम १७ वर्ष का युग 'बरमकीदियों का युग' कहलाता है। हारूँ ने सिंहासनारूढ़ होने पर यहया को, जो ईरानी पुजारी वंश के बरमक के पुत्र खालिद का पुत्र था, अपना प्रधान मंत्री नियुक्त किया। इस प्रकार सरकार के सारे कामों का अधिकार यहया और उसके दो पुत्रों फजल और जफर के हाथों में आ गया। बरमकीदियों ने अपनी अतिशय उदारता से जितनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी, उतनी संपूर्ण इस्लाम जाति के इतिहास में किसी वंश ने नहीं प्राप्त की। यदि बहुत सी कहानियाँ उनके बाद के प्रपंचों से निकाल दी जाएँ; तो भी किसानों और श्रमिकों के शोषण का दोष उनके सिर आता है, जिसके बिना उनकी सिद्धांतहीन उदारता असंभव होती। सन् ८०३ ई. में हारूँ बरमकीदियों की शक्ति से चिढ़ने लगा। जफर का सिर कटवा लिया गया, और यहया तथा फजल को आजीवन कारावास दिया गया। कठोर राजाज्ञा के अनुसार कोई उस अपदस्थ शासक की प्रशंसा नहीं कर सकता था।

हारूँ बाइजेंटीन राज्य के विरुद्ध युद्धों में सदैव सफल रहा, किंतु स्वयं उसके राज्य में बड़े भयानक विद्रोही थे। वह इस स्थिति में नहीं था कि केखाना (ट्रिपोली और ट्यूनिस) के अगलवीदियों और टैजियर्स के इदरीशियों का स्वतंत्र होने में बाधा पहुँचा सकता, और 'मुस्लिम एशिया' के भी विद्रोहियों ने उसके नाकों दम कर दिया था। उसके शासन के अंतिम दिनों में ट्रॉसोम्सियाना (मावरुन्नहर) और पूर्वी फारस दोनों ने विद्रोह कर दिया, और हारूँ उनका दमन करने के प्रयत्न में मशहाद में मारा गया। उसकी मृत्यु के समय उसके कोष में ९० करोड़ 'दिरम' प्राप्त हुए। उसके पश्चात् उसके दोनों पुत्रों आमिन और मामुनर्रशीद में राज्यविभाजन को लेकर युद्ध हो गया। ऐसी शंका हो सकती है कि हारूँ के चरित्र में, मुस्लिम धर्म का कट्टर भक्त होने के बावजूद, हिंसक निदर्यता थी। किंतु इतना होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि उसे राज्य में न्याय और संपन्नता थी।

हारूँ और उसके पुत्र का एक बड़ा सौभाग्य यह था कि उनके राज्यों में मध्यकालीन इस्लाम युग में असांप्रदायिक और धार्मिक विज्ञानों की सतत वृद्धि हुई। अलफखरी ने लिखा है कि ''हारूँ का शासन सारे शासनों में सर्वोत्तम था - प्रतिष्ठा, शालीनता और दानशीलता संपूर्ण राज्य में व्याप्त थी। जितने विद्वान्, कवि, न्यायवेत्ता, कुरान पाठक, काजी और लेखक इसके दरबार में एकत्र होते थे, उतने किसी अन्य खलीफा के दरबार में सम्मान नहीं पाते थे।''