हसरत मुहानी इनका नाम फ़ज़्लुल्हसन था पर इनका उपनाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका वास्तविक नाम भूल गए। इनका जन्म उन्नाव के एक कस्बा मुहान में सन् १८७५ ई. में हुआ। आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई और उसके बाद यह अलीगढ़ गए। अलीगढ़ के छात्र दो दलों में बँटे हुए थे। एक दल देशभक्त था और दूसरा दल स्वार्थभक्त। हसरत प्रथम दल में सम्मिलित होकर उसकी प्रथम पंक्ति में आ गए। यह तीन बार कालेज से निर्वासित हुए पर अंत में सन् १९०३ ई. में बी. ए. परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए। इसके अनंतर इन्होंने एक पत्रिका 'उर्दुएमुअल्ला' निकाली और नियमित रूप से स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लेने लगे। यह कई बार जेल गए तथा देश के लिए बहुत कुछ बलिदान किया। इन्होंने एक खद्दर भण्डार भी खोला जो खूब चला।

हसरत मुहानी लखनऊ के प्रसिद्ध शायर 'तस्लीम' के शिष्य थे और मोमिन तथा नसीम लखनवी को बहुत मानते थे। हसरत ने उर्दू गजल को एक नितांत नए तथा उन्नतिशील मार्ग पर मोड़ दिया है। आज उर्दू कविता में स्त्रियों के प्रति जो शुद्ध और लाभप्रद दृष्टिकोण दिखलाई देता है, प्रेयसी जो सहयात्री तथा मित्र रूप में दिखाई पड़ती है तथा समय से टक्कर लेती हुई अपने प्रेमी के साथ सहदेवता तथा मित्रता दिखलाती ज्ञात होती है वह बहुत कुछ हसरत ही की देन है। हसरत ने गजलों ही में शासन, समाज तथा इतिहास की बातों का ऐसे सुंदर ढंग से उपयोग किया है कि उसका प्राचीन रंग अपने स्थान पर पूरी तरह बना हुआ है। हसरत की गजलें अपनी पूरी सजावट तथा सौंदर्य को बनाए रखते हुए भी ऐसा माध्यम बन गई हैं कि जीवन की सभी बातें उनमें बड़ी सुंदरता से व्यक्त की जा सकती है। उन्हें सहज में उन्नतशील गजलों का प्रर्वतक कहा जा सकता है।

हसरत ने अपना सारा जीवन कविता करने तथा स्वतंत्रता के संघर्ष में प्रयत्न एवं कष्ट उठाने में व्यतीत किया। साहित्य तथा राजनीति का सुंदर सम्मिलन कराना कितना कठिन है, ऐसा जब विचार उठता है तब स्वत: हसरत की कविता पर दृष्टि जाती है। हसरत की मृत्यु १३ मई, सन् १९५१ ई. को कानपुर में हुई। इनको कविता का संग्रह 'कुलियाते हसरत' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। (रजिया सज्जाद)