हर्बार्ट, जॉहैन (योहान) फ्रीड्रिक (१७७६-१८४१ ई.) जर्मन दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री। ज्ञान से ओतप्रोत वातावरण में पले। पितामह ओल्डनबर्ग की उच्चतम श्रेणी की पाठशाला में प्रधानाचार्य और पिता पारिषद् थे। यूनानी भाषा के ज्ञानार्जन में माता से सहायता मिली। येना विश्वविद्यालय में फिक्टे के शिष्य थे। इंटरलेकव (स्विट्सरलैंड) में राज्यपाल के तीन पुत्रों के उपशिक्षक १७९७ से १७९९ तक रहे। उसी समय इनका पैस्तैंलॉस्सी से संपर्क हुआ। गॉटिगैंन विश्वविद्यालय में कई वर्षों तक शिक्षा सिद्धांतों पर व्याख्यान दिए। इसी काल में पैंस्तैंलात्सी की शैक्षिक रचनाओं की आलोचना के अतिरिक्त इन्होंने एक पुस्तक शिक्षाविज्ञान पर और दूसरी व्यावहारिक दर्शनशास्त्र पर लिखी। १८०९ में इन्हें कोनिग्सबर्ग विश्वविद्यालय में सुुप्रसिद्ध दार्शनिक कांट का स्थान मिला। वहीं इन्होंने अध्यापकों का प्रशिक्षणालय और बच्चों का विद्यालय भी चलाया और शिक्षा, मनोविज्ञान एवं तत्वज्ञान संबंधी पुस्तकें भी लिखीं। १८३३ में गॉटिंगैंन लौटकर दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक का कार्य मृत्यु पर्यत किया। इसी बीच इनका 'शिक्षासिद्धांतों की रूपरेखा' नामक ग्रंथ (१८३५ में) प्रकाशित हुआ।
हर्बार्ट का दार्शनिक दृष्टिकोण बहुत्ववादी यथार्थवाद था। इनके मतानुसार विश्व असंख्य मूल तत्वों से बना है। ये मूल तत्व अथवा 'सत्' काल तथा स्थान के प्रभाव से परे हैं। मानव बुद्धि द्वारा इनकी जानकारी संभव नहीं। ये 'सत्' पृथक् बिंदुओं पर रहने से असंबद्ध और एक बिंदु पर होने से संबद्ध कहलाते हैं। संबद्ध 'सत्' आपस में मिल जाते हैं। जब असंबद्ध 'सत्' एक बिंदु पर आते हैं तो परिवर्तन ओर गुणबाहुल्य की प्रतीति होती है। चेतना के कारण ही विश्व परिवर्तनशील जान पड़ती है। गुण की दृष्टि से मन का दूसरा नाम आत्मा है। तर्कशास्त्र के विशुद्ध औपचारिक पक्ष पर ही हर्बार्ट ने बल दिया।
मनोविज्ञान के क्षेत्र में हर्बार्ट ने मन की विभिन्न शक्तियों के स्वतंत्र अस्तित्व को अस्वीकार किया और मन की एकरूपता पर बल दिया। इनके मतानुसार तंत्रिकातंत्र द्वारा मन प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण से संपर्क स्थापित करता है और इसी से विचारों की उत्पत्ति होती है। प्रकटीकरण की आंतरिक क्रिया द्वारा विचारों का विकास होता है और सामान्यकीकरण द्वारा प्रत्यय बनते हैं। सवेदना एवं प्रत्यक्षीकरण, कल्पना एवं स्मृति, और प्रत्ययात्मक चिंतन तथा निर्माण, ये मन के विकास के तीन स्तर हैं। ज्ञान, संवेदन और इच्छा, मानसिक व्यवहार के तीन मूल पक्ष है। हर्बार्ट ने तत्वज्ञान, गणित और अनुभव के आधार पर मनोविज्ञान का स्वरूप निश्चित करने का प्रयास किया।
शिक्षा के सिद्धांतों एवं शिक्षण पद्धति की ओर हर्बार्ट ने विशेष ध्यान दिया। इन्होंने नैतिकता को शिक्षा का सार बताया और सद्गुण को शिक्षा का उद्देश्य। आंतरिक स्वतंत्रता, पूर्णता, सद्भावना न्याय और साम्य को नैतिकता का आधार माना। इच्छा और अंतरात्मा में द्वंद्व के अभाव को आंतरिक स्वतंत्रता कहा गया है। पूर्णता से प्रभावपूर्ण एवं संतुलित दृढ़ संकल्प का बोध होता है। सद्भावना में दूसरों की भलाई चाहने का भाव है। न्याय का संकेत पक्षपात के अभाव की ओर है। सुनीति अथवा औचित्य की भावना साम्य के अंतर्गत आती है। अंतरात्मा का स्वरूप विचारों पर निर्भर है। विचारों का स्रोत जड़ एवं चेतन वातावरण है। प्राकृतिक तथा सामाजिक संसर्ग से प्राप्त अनुभवों द्वारा ही विचारवृत्त निर्मित होता है। विचारवृत्त का विस्तार बहुमुखी रुचि पर निर्भर है। इंद्रियभावी, जिज्ञासाभावी, सौंदर्यभावी, सहानुभूतिमय, सामाजिक तथा धार्मिक, इस रुचि के छह प्रकार है। शिक्षाप्रद अनुदेश द्वारा शिक्षक छात्र के मन में ऐसी रुचि का बीजारोपण कर सकता है। इस प्रकार बच्चों के चरित्रनिर्माण में शिक्षक का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। इस उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए सुव्यवस्थित शिक्षणपद्धति आवश्यक है।
हर्बार्ट की शिक्षणप्रणाली में संप्रत्यक्ष के उस पक्ष पर विशेष बल दिया गया है जिसमें पूर्वज्ञान की सहायता से नवीन ज्ञान का आत्मसात् सरल हो जाता है। आत्मसात् के साथ मननक्रिया भी संबंद्ध है। आत्मसात् के दो भेदों, स्पष्टता और संगति, तथा मनन के भी दो भेदों व्यवस्था और प्रयोग, को लेकर हर्बार्ट की 'चतुष्पदी' निर्मित हुई। उनके अनुयायिओं ने स्पष्टता के दो भाग, प्रस्तावना और वस्तूपस्थापन, कर दिए। इस प्रकार 'पंचपदी' या 'पंचसोपान' का प्रचलन हुआ। 'पंचसोपान' का उद्देश्य था पाठ्यसामग्री को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करना ताकि छात्र अपने योग्यतानुसार उसे सुगमता से ग्रहण कर सकें। एकाग्रीकरण द्वारा सभी पाठ्य विषयों को साहित्य और इतिहास जैसे एक या दो व्यापक विषयों से संबद्ध कर देने पर बल दिया गया।
कुछ विद्वानों ने हर्बार्ट के विचारों की कड़ी आलोचना की है। उनका कथन है कि हर्बार्ट ने शिक्षणविधि को औपचारिक और यांत्रिक स्वरूप दे दिया। सभी प्रकार के पाठों को 'पंचसोपान' के ढाँचे में ढालना संभव नहीं। बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों की उपेक्षा करके केवल ज्ञानसंचार से ही चरित्रनिर्माण नहीं हो सकता।
ज्ञान की अपेक्षा प्रेरणा का महत्व अधिक है। हर्बार्ट का शैक्षिक उद्देश्य एकांगी है। इन्होंने शारीरिक तथा स्त्रीशिक्षा की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया। इनकी पारिभाषिक शब्दावली कृत्रिम है। ये सब होते हुए भी हर्बार्ट के शैक्षिक अंशदान की अवहेलना नहीं की जा सकती। सर्वप्रथम शिक्षा का वैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत करने का श्रेय इन्हीं को है। इनके द्वारा किए गए प्रत्ययों के कलननिर्माण संबंधी प्रयासों तथा मानसिक मात्रात्मक अध्ययन के आधार पर आधुनिक मनोभौतिकी एवं प्रायोगिक मनोविज्ञान का विकास हुआ। आज भी संसार की शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ इनके विचारों से प्रेरणा ले रही हैं।
सं. ग्रं. - (अंग्रेजी) रॉबर्ट आर. रस्क : द डॉक्ट्रिन्स ऑव द ग्रेट ऐंजुकेटर्स; एफ. पी. ग्रेव्ज़ : ग्रेट एजुकेटर्स ऑव थ्री सेंचुरीज़; जी. एफ़. स्टाउट : स्टडीज़ इन फ़िलोसॉफ़ी ऐंड साइकॉलॉजी; एच. एम. और ई. फ्रैंल्किन : इंट्रोडक्शन टु हर्बार्ट्स साइस ऐंड प्रैक्टिस ऑव एजुकेशन; पॉलमनरी : ए ब्रीफ़ कोर्स इन द हिस्टरी ऑव एजुकेशन; एन्साक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, खंड ११; एन्साक्लोपीडिया अमेरिकाना, खंड १४। (हिंदी) एस. के. पाल : महान् पाश्चात्य शिक्षाशास्त्री; सीताराम जायसवाल : आधुनिक शिक्षा का विकास; सीताराम चतुर्वेदी : शिक्षा प्रणालियाँ और उनके प्रवर्तक; गुलाबराय : पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास।श्श् (जंगीर सिंह)