हरिश्चंद्र (भारतेंदु) जन्म भाद्रपद शुक्ल ऋषि पंचमी सं. १९०७ वि., सोमवार, ९ सितंबर, सन् १८५० ई. को वाराणसी में हुआ। पिता का नाम गोपालचंद्र उपनाम गिरधर दास था। यह अग्रवाल वैश्य तथा वल्लभ संप्रदाय के कृष्णभक्त वैष्णव थे। बाल्यकाल ही से इनकी प्रतिभा के लक्षण दिखलाई पड़ने लगे थे। पाँच छह वर्ष की अवस्था ही में इन्होंने एक दोहा बनाया था तथा एक उक्ति की नई व्याख्या की थी। पहले घर पर ही इन्हें संस्कृत, हिंदी, उर्दू तथा अंग्रेजी की शिक्षा मिली और फिर कुछ वर्षों तक इन्होंने काशी के क्वींस कालेज के वार्ड्स स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। यह अति चंचल तथा हठी थे और पढ़ने में मन नहीं लगाते थे पर इनकी स्मरणशक्ति तथा धारणा शक्ति प्रबल थी। सं. १९३३ वि. के लगभग यह सपरिवार जगन्नाथ जी गए और तभी इनका शिक्षाक्रम टूट गया। अपने कवि पिता तथा उनकी साहत्यिक मित्रमंडली के संपर्क में निरंतर रहने से इनकी साहित्यिक बुद्धि जाग्रत हो चुकी थीं पर इस जगन्नाथ जी की यात्रा में देश के भिन्न भिन्न भागों के अनुभवों ने इनकी बुद्धि को विशेष रूप से ऐसा विकसित कर दिया कि वहाँ से लौटकर आते ही वह उन सब कार्यों में दत्तचित्त हो कर लग गए जिन्हें वह अंत तक करते रहे। इन्हीं अनुभवों में पाश्चात्य नवीन विचारों, सभ्यता तथा संस्कृति का परिज्ञान भी था। यह स्वभाव से अत्यंत कोमलहृदय, परदु:खकातर, उदारचेता, गुणियों तथा सुकवियों के आश्रयदाता तथा स्वाभिमानी पुरुष थे। इसी दानशीलता में तथा हिंदी की सेवा में इन्होंने अपना सर्वत्व गँवा दिया पर अंत तक अपना यह व्रत निबाहते गए। यह अनन्य कृष्णभक्त थे पर धार्मिक विचारों में अत्यंत उदार थे तथा किसी अन्य धर्मं या संप्रदाय के प्रति विद्वेष न रखकर उसका आदर करते थे। स्वसमाज के अंधविश्वासों को दूर करने के लिए इनकी वाणी सतत प्रयत्नशील रही और बालविवाह, विधवाविवाह, विलायतयात्रा, स्त्रीशिक्षा सभी विषयों पर इन्होंने लेख लिखे तथा व्याख्यान दिए। पाश्चात्य शिक्षा का अभाव देखकर इन्होंने सन् १८६५ ई. के लगभग घर पर ही बालकों को अंग्रेजी पढ़ाने का प्रबंध किया जो पहले चौखंभा स्कूल कहलाया और अब हरिश्चंद्र कालेज के नाम से एक विशाल विद्यालय में परिणत हो गया है।

देशभक्ति इनका मूल मंत्र था और देशसेवा के लिए मुख्यत: इन्होंने 'निज भाषा उन्नति' ही को साधन बनाया। देश के पूर्वगौरव का गायन किया, वर्तमान कुदशा पर रुदन किया तथा भविष्य में उसके उन्नयन के लिए प्रेरणाएँ दीं। ये सूक्ष्म तथा दूरदर्शी थे अत: इनकी रचनाओं में बहुत सी ऐसी बातें आ गई हैं, जो प्रतिफलित होती जाती हैं। परंपरा की काव्यभाषा का संस्कार कर इन्होंने उसे स्वच्छ सरल, स्निग्ध चलता स्वरूप दिया तथा खड़ीबोली हिंदी को ऐसी नई शैली में ढाला कि वह उन्नति करती हुई अब देश की राष्ट्रभाषा तथा राजभाषा हो गई है। इन्होंने साहित्य की धारा को मोड़कर जनता की विचारधारा को उसी में मिला लिया और समयानुकूल साहित्य के अनेक विषयों पर पुस्तकें, कविता, लेख आदि लिखकर उसे सशक्त बनाया। समग्र देश के भिन्न भिन्न प्रांतवासियों को एकत्र होकर एक ही मंच से भारत की उन्नति के उपायों को सोचने और करने की इन्होंने सम्मति दी और यही राष्ट्रीयता की इनकी प्रथम पुकार थी। इन्होंने हिंदी में पत्रपत्रिकाओं का अभाव देखकर हानि उठाकर भी अनेक पत्रपत्रिकाएँ निकालीं और दूसरों को प्रभावित कर निकलवाईं। यह इतने सहृदय तथा मित्रप्रेमी थे कि स्वत: क्रमश: इनके चारों ओर समर्थ साहित्यकारों का भारी मंडल घिर आया और सभी ने इनके अनुकरण पर देश तथा मातृभाषा के उन्नयन में यथाशक्ति हाथ बँटाया। भारतेंदु जी कृत दो सौ से अधिक छोटी बड़ी रचनाएँ हैं, जिनमें नाटक, काव्य, पुरातत्व, जीवनचरित्र, इतिहास आदि सभी हैं। ये सामाजिक, धार्मिक, देशभक्ति आदि सभी विषयों पर रची गई हैं। कविवचनसुधा पत्र, हरिश्चंद्र मैगजीन या हरिश्चंद्रचंद्रिका तथा स्त्रियोपयोगी बालाबोधिनी इनकी पत्रपत्रिकाएँ हैं जिनमें इनके लिखे अनेक लेख निकले हैं।

काशी नागरीप्रचारिणी सभा ने इनकी सभी रचनाएँ संगृहीत तथा संपादित कराकर भारतेंदुग्रंथावली नामक तीन खंडों में प्रकाशित की है। भारतेंदु जी का देहावसान माघ कृष्ण ६, सं. १९४१ वि., ६ जनवरी, सन् १८८५ ई. को हुआ था। ((स्व.) ब्रजरत्न दास)