हरिवंशपुराण महाभारत के खिल के रूप में हरिवंशपुराण सर्वविदित है। विविध ग्रंथ हरिवंश को महाभारत का खिल प्रमाणित करते हैं। महाभारत तथा हरिवंश में पाए जानेवाले प्रमाण भी इसी बात का समर्थन करते हैं।

महाभारत आदिपर्व के अंतर्गत पर्वतसंग्रहपर्व में हरिवंश के हरिवंशपर्व और विष्णुपर्व महाभारत के अंतिम दो पर्वों में परिगणित किए गए हैं। इन दो पर्वों को जोड़कर ही महाभारत 'शतसाहस्री संहिता' के रूप में पूर्ण माना जाता है।

हरिवंश में अनेक प्रसंग महाभारत की पूर्वस्थिति की ओर संकेत करते हैं। साथ ही महाभारत में उपलब्ध कुछ आख्यान संभवत: आवृत्ति के भय से हरिवंश में उपेक्षित किए गए हैं। महाभारत मौसलपर्व में यादवों के विनाश और द्वारकानगरी के समुद्रमग्न होने का वृत्तांत हरिवंश में केवल एक श्लोक में वर्णित है। महाभारत आदिपर्व में विस्तार के साथ वर्णित शकुंतला का उपाख्यान हरिवंश में अत्यंत संक्षिप्त रूप में मिलता है। महाभारत के ही आदिपर्व में जंबूकथा के वक्ता कणिक मुनि की ओर संकेतमात्र हरिवंश में 'मित्रस्य घनदस्य च' के द्वारा हुआ है।

महाभारत का खिल होने पर भी हरिवंश एक स्वतंत्र पुराण है। पुराण पंचलक्षण-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर और वंशानुचरित् - के आधार पर ही हरिवंश का विकास हुआ है। केवल पुराणपंचलक्षण ही नहीं, वरन् अर्वाचीन पुराणों में प्राप्त स्मृतिसामग्री और सांप्रदायिक विचारधाराएँ भी हरिवंश में उपलब्ध होती हैं।

अग्निपुराण में रामायण और महाभारत के साथ हरिवंश की भी गणना हुई है (अग्नि १२-१३)।. संभवत: अग्निपुराण के काल में हरिवंश

एक पुराण के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व रखने लगा था, अन्यथा हरिवंश का पृथक् नामोल्लेख न होता।

हरिवंशपुराण के हरिवंशपर्व में पुराण पंचलक्षण के वंश और मन्वंतर का अनुरूप विविध क्षत्रिय राजवंशों और ब्राह्मणवंशों का विवरण मिलता है। अन्य पुराणों की वंशावलि से तुलना करने पर हरिवंश की वंशावलि अधिक स्पष्ट और प्रमाणिक ज्ञात होती है।

विष्णुपर्व में कृष्णचरित विस्तृत रूप से वर्णित है। विष्णु, भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त आदि वैष्णव पुराणों से तुलना किए जाने पर हरिवंश का कृष्णचरित्र अपनी प्रारंभिक अवस्था में ज्ञात होता है। हरिवंश के अंतर्गत रास अपने सीमित और सरल रूप में मिलता है, उत्तरकालीन वैष्णव पुराणों की भाँति वह विशद और रहस्यात्मक नहीं हुआ है। इस पुराण में कृष्ण का चरित्र उतना अधिक लोकोत्तर नहीं है जितना उत्तरकालीन पुराणों में दिखलाई देता है। भागवत और पांचरात्र सिद्धांत भी इस पुराण के अंतर्गत अपने आदि रूप में हैं। संभवत: इसी कारण, केवल प्रक्षिप्त स्थलों को छोड़कर, (हरि. २. १२१.६ और २. १२१.१५) पांचरात्र के चतुर्व्यूह का उल्लेख इस पुराण के किसी भी भाग में नहीं हुआ है। चतुर्व्यूह का उल्लेख विष्णु, भागवत और पद्मपुराण में है।

हरिवंश में कृष्ण का स्वरूप वैष्णव पुराणों से भिन्न छांदोग्योपनिषद् के देवकीपुत्र कृष्ण से समानता रखता है। यहाँ पर कृष्ण के लिए प्रयुक्त सूर्य से सादृश्य रखनेवाले विशेषण - 'अग्नि', 'अग्निपति' और 'ज्योतिषां पति' (हरि. ३.९०. २०-२१) छांदोग्य में वर्णित सूर्यपूजक देवकीपुत्र कृष्ण के विशेषणों से निकट संबंध सूचित करते हैं।

हरिवंशपुराण भविष्यपर्व में पुराण पंचलक्षण के सर्गप्रतिसर्ग के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्म के स्वरूप, अवतार गणना और सांख्य तथा योग पर विचार हुआ है। स्मृतिसामग्री तथा सांप्रदायिक विचारधाराएँ भी इस पर्व में अधिकांश रूप में मिलती हैं। इसी कारण यह पर्व हरिवंशपर्व और विष्णुपर्व से अर्वाचीन ज्ञात होता है।

विष्णुपर्व में नृत्य और अभिनयसंबंधी सामग्री अपने मौलिक रूप में मिलती है। इस पर्व के अंतर्गत दो स्थलों में छालिक्य का उल्लेख हुआ है। छालिक्य वाद्यसंगीतमय नृत्य ज्ञात होता है। हाव भावों का प्रदर्शन इस, नृत्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। छालिक्य के संबंध में अन्य पुराण कोई भी प्रकाश नहीं डालते।

विष्णुपर्व (९१ २६-३५) में वसुदेव के अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर भद्र नामक नट का अपने अभिनय से ऋषियों को तुष्ट करना वर्णित है। इसी नट के साथ प्रद्युम्न, सांब आदि वज्रनाभपुर में जाकर अपने कुशल अभिनय से वहाँ दैत्यों का मनोरंजन करते हैं। यहाँ पर 'रामायण' नामक उद्देश्य और 'कौबेर रंभाभिसार' नामक प्रकरण के अभिनय का विशद वर्णन हुआ है।

हापकिंस ने हरिवंश को महाभारत का अर्वाचीनतम पर्व माना है। हाजरा ने रास के आधार पर हरिवंश को चतुर्थ शताब्दी का पुराण बतलाया है। विष्णु और भागवत का काल हाजरा ने क्रमश: पाँचवीं शताब्दी तथा छठी शताब्दी के लगभग निश्चित किया है। श्री दीक्षित के अनुसार मत्स्यपुराण का काल तृतीय शताब्दी है। कृष्णचरित्र, रजि का वृत्तांत तथा अन्य वृत्तांतों से तुलना करने पर हरिवंश इन पुराणों से पूर्ववर्ती निश्चित होता है। अतएव हरिवंश के विष्णुपर्व और भविष्यपर्व को तृतीय शताब्दी का मानना चाहिए।

हरिवंश के अंतर्गत हरिवंशपर्व शैली और वृत्तांतों की दृष्टि से विष्णुपर्व और भविष्यपर्व से प्राचीन ज्ञात होता है। अश्वघोषकृत वज्रसूची में हरिवंश से अक्षरश: समानता रखनेवाले कुछ श्लोक मिलते हैं। पाश्चात्य विद्वान् वैबर ने वज्रसूची को हरिवंश का ऋणी माना है और रे चौधरी ने उनके मत का समर्थन किया। अश्वघोष का काल लगभग द्वितीय शताब्दी निश्चित है। यदि अश्वघोष का काल द्वितीय शताब्दी है तो हरिवंशपर्व का काल प्रक्षिप्त स्थलों को छोड़कर द्वितीय शताब्दी से कुछ पहले समझना चाहिए।

हरिवंश में काव्यतत्व अन्य प्राचीन पुराणों की भाँति अपनी विशेषता रखता है। रसपरिपाक और भावों की समुचित अभिव्यक्ति में यह पुराण कभी कभी उत्कृष्ट काव्यों से समानता रखता है। व्यंजनापूर्ण प्रसंग पौराणिक कवि की प्रतिभा और कल्पनाशक्ति का परिचय देते हैं।

हरिवंश में उपमा, रूपक, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, यमक और अनुप्रास ही प्राय: मिलते हैं। ये सभी अलंकार पौराणिक कवि के द्वारा प्रयासपूर्वक लाए गए नहीं प्रतीत होते।

काव्यतत्व की दृष्टि से हरिवंश में प्रारंभिकता और मौलिकता है। हरिवंश, विष्ण, भागवत और पद्म के ऋतुवर्णनों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि कुछ भाव हरिवंश में अपने मौलिक सुंदर रूप में चित्रित किए गए हैं और वे ही भाव उपर्युक्त पुराणों में क्रमश: अथवा संश्लिष्ट होते गए हैं।

सामग्री और शैली को देखते हुए भी हरिवंश एक प्रारंभिक पुराण है। संभवत: इसी कारण हरिवंश का पाठ अन्य पुराणों के पाठ से शुद्ध मिलता है। कतिपय पाश्चात्य विद्वानों द्वारा हरिवंश को स्वतंत्र वैष्णव पुराण अथवा महापुराण की कोटि में रखना समीचीन है।.................. (वी. पा. पा.)