हरिदास जी का जन्म किस संवत् में हुआ था, यह अनिश्चित सा है परंतु इतना निश्चित है कि अकबर के सिंहासनारूढ़ होने के पहले इनका नाम प्रसिद्ध हो चुका था। जो अपने आपको स्वामी हरिदास का वंशधर मानते हैं, उनका कहना है कि वे सारस्वत ब्राह्मण थे, मुल्तान के पास उच्च गाँव के रहनेवाले थे। बाबू राधाकृष्ण दास ने 'भक्तसिंधु' ग्रंथ का प्रमाण देकर यह माना है कि स्वामी जी सनाढ्य ब्राह्मण तथा, कोल के निकट हरिदासपुर के निवासी थे। स्वामी जी की शिष्यपरंपरा के महात्मा सहचरिशरण जी का भी यही मत है। किंतु, नाभा जी ने 'भक्तमाल' में 'आसधीर उद्योतकर' इतना ही इनके विषय में कहा है। 'भक्तमाल' में जो छप्पय दिया गया है, उसमें स्वामी हरिदास की प्रेमपरा भक्ति और गहरी रसिकता का ही वर्णन किया गया है।

स्वामी हरिदास जी उच्च कोटि के त्यागी, निस्पृह और महान् हरिभक्त थे। त्यागी ऐसे कि कौपीन, मिट्टी का एक करवा और यमुना की रज इतना ही पास में रखते थे। श्रीराधाकृष्ण के नित्यलीलाबिहार के ध्यान और कीर्तन में आठों पहर यह मग्न रहते थे। बड़े बड़े राजे महाराजे भी दर्शन करने के लिए इनके निकुंज द्वार पर खड़े रहते थे।

स्वामी हरिदास जी संगीतशास्त्र के बहुत बड़े आचार्य थे। सुप्रसिद्ध तानसेन भी इनके शिष्य थे।

निंबार्क संप्रदाय के अंतर्गत वृंदावन में जो 'टट्टी' स्थान है उसके प्रवर्तक एवं संस्थापक स्वामी हरिदास जी थे। उनका 'निधुवन' आज भी दर्शनीय है। उनकी शिष्यपरंपरा में वीठल विपुल, भगवतरसिक, सहचरिशरण आदि अनेक त्यागी और रसिक महात्मा हुए हैं।

स्वामी हरिदास जी के रचे पद बड़े भावपूर्ण और श्रुतिमधुर हैं, और स्वभावत: राग रागिनियों में खूब बैठते हैं। सिद्धांत और लीलाविहार दोनों पर उन्होंने पदरचना की है। सिद्धांतसंबंधी १९ पद मिलते हैं, तथा लीलाविहारविषयक ११० पद। लीलाविहार की पदावली को 'केलिमाला' कहते हैं। 'केलिमाला' के सरस पदों में श्री श्यामश्यामा के नित्यविहार का अनूठा चित्रण किया गया है। ऐसा लगता है कि वृंदावनविहारी की लीलाएँ प्रत्यक्ष देखकर हरिदास जी ने तंबूरे पर इन पदों को रच रचकर गाया होगा।

सिद्धांतपक्ष में 'तिनका बियारि के बस; ज्यों भावै त्यों उड़ाइ लै जाइ आपने रस' तथा 'हित तौ कीलै कमलनैन सों, जा हित के आगे और हित लागै फीकौ' एवं 'मन लगाइ प्रीति कीजै कर करवा सों, व्रज बीथिन दीजै सोहिनी; वृंदावन सों, बन उपवन सों, गुंजमाल कर पोहिनी' ये पद बहुत प्रसिद्ध हैं। इन पदों में सर्वस्वत्याग, अकिंचनता, ऊँची रहनी, भगवत्प्रपन्नता एवं अनन्यता की निर्मल झाँकी देखने को मिलती है। (वियोगी हरि.)