हरदयाल, लाला इनका जन्म १४ अक्टूबर, १८८४ को दिलली में हुआ। माता ने तुलसी रामायण एवं वीरपूजा के पाठ पढ़ाकर उदात्त भावना, शक्ति एवं सौंदर्य बुद्धि का संचार किया। उर्दू, फारसी के पंडित गौरीदयाल माथुर ने बेटे को विद्याव्यसन दिया। अंग्रेजी तथा इतिहास में एम. ए. करने पर रिकार्ड स्थापित किया। मास्टर अमीरचंद की गुप्त क्रांतिकारी संस्था के सदस्य ये इससे पूर्व बन चुके थे।

हरदयाल जी एक समय में सात कार्य कर लेते थे। १२ घंटे की नोटिस देकर मित्र इनसे शेक्सपियर का कोई भी नाटक मुँह जबानी सुन लेते। भारत सरकार ने छात्रवृत्ति देकर आक्सफ़र्ड भेजा। वहाँ दो और छात्रवृत्तियाँ पाईं। परंतु इतिहास के अध्ययन के परिणामस्वरूप अंगरेजी शिक्षापद्धति को पाप समझकर ऑक्सफर्ड छोड़ दिया। अब लंदन में 'देशभक्त समाज' स्थापित कर असहयोग का प्रचार करने लगे (जिसका विचार गांधी जी को १४ बरस बाद आया)। भारत को स्वतंत्र करने के लिए यह योजना बनाई - जनता में राष्ट्रीय भावना जगाने के पश्चात् सरकार की कड़ी आलोचना तथा युद्ध की तैयारी की जाए। भारत लौटते पर पूना में लो. तिलक से मिले। पटियाला पहुँच गौतम के समान संन्यास लिया। शिष्यमंडली के सम्मुख ३ सप्ताह संसार के क्रांतिकारियों के जीवन का विवेचन किया। फिर लाहोर के अँगरेजी दैनिक 'पंजाबी' का संपादन करने लगे। इनके आलस्यत्याग, अहंकारशून्यता, सारल्य, विद्वत्ता, भाषा पर आधिपत्य, बुद्धिप्रखरता, राष्ट्रभक्त का ओज तथा परदु:ख में संवेदन के कारण मनुष्य एक बार दर्शन कर मुग्ध हो जाता। निजी पत्र हिंदी में ही लिखते, दक्षिण भारत के भर्क्तों को संस्कृत में उत्तर देते। ये कहते : 'अंग्रेजी शिक्षापद्धति से राष्ट्रीय चरित्र नष्ट होता है और राष्ट्रीय जीवन का स्रोत विषाक्त।' अँगरेज ईसाइयत के प्रसार द्वारा दासत्व को स्थायी बना रहे हैं।'

१९०८ में दमनचक्र चला। लाला जी के प्रवचन के फलस्वरूप विद्यार्थी कॉलेज छोड़ने लगे और सरकारी नौकर नौकरियाँ। भयभीत सरकार इन्हें गिरफ्तार करने लगी। लाला लाजपतराय के अनुरोध पर ये पेरिस चले गए। जेनेवा से मासिक 'वंदेमातरम्' निकलने पर ये उसके संपादक बने। श्री गोखले जैसे मॉडरेटों को खूब लताड़ते। हुतात्मा मदनलाल दींगड़ा के संबंध में इन्होंने लिखा - इस अमर वीर के शब्दों एवं कृत्यों पर शतकों तक विचार किया जाएगा जो मृत्यु से नववधू के समान प्यार करता था। 'ढींगड़ा ने कहा था - 'मेरे राष्ट्र का दास होना परमात्मा का अपमान है।'

पेरिस को इस संन्यासी ने प्रचारकेंद्र बनाया था। परंतु इनके रहने का प्रबंध भारतीय देशभक्त न कर पाए। अत: ये १९१० में अल्जीरिया और वहाँ से लामार्तनीक में बुद्ध के समान तप करने लगे। भाई परमानंद जी के अनुरोध पर ये हिंदू संस्कृति के प्रचारार्थ अमरीका गए। तत्पश्चात् होनोलूलू के समुद्रतट पर एक गुफा में रहकर शंकर, कांट, हीगल, मार्क्स आदि का अध्ययन करने लगे। भाई जी के कहने पर इन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में हिंदू दर्शन पर व्याख्यान दिए। अमरीकी इन्हें हिंदू संत, ऋषि एवं स्वातंत््रय सेनानी कहते। १९१२ मं स्टेफर्ड विश्वविद्यालय में दर्शन तथा संस्कृत के प्राध्यापक हुए। तत्पश्चात् 'गदर' पत्रिका निकालने लगे। इधर जर्मनी और इंगलैंड में युद्ध छिड़ गया। इनके प्राण फूँकनेवाले प्रभाव से दस हजार पंजाबी भारत लौटे। कितने ही गोली से उड़ा दिए गए। जिन्होंने विप्लव मचाया, सूली पर चढ़ा दिए गए। सरकार ने कहा कि हरदयाल अमरीका और भाई परमानंद ने भारत में क्रांति के सूत्रों को सँभाला। दोनों गिरफ्तार कर लिए गए। भाई जी को पहले फाँसी, बाद में कालेपानी का दंड सुनाया गया। हरदयाल जी स्विट्जरलैंड खिसक गए और जर्मनी के साथ मिलकर भारत को स्वतंत्र करने के यत्न करने लगे। महायुद्ध के उत्तर भाग में जर्मनी हारने लगा। लाला जी स्वीडन चले गए। वहाँ की भाषा में इतिहास, संगीत, दर्शन आदि का व्याख्यान देने लगे। तेरह भाषाएँ ये सीख चुके थे।

१९२७ में इंगलैंड जाकर 'बोधिसत्व' पुस्तक लिखी। इसपर लंदन विश्वविद्यालय ने डॉक्टर की उपाधि दी। तब 'हिंट्स फार सेल्फ कल्चर' छापी। विद्वत्ता अथाह थी। अंतिम पुस्तक 'ट्बेल्व रिलिजिंस ऐंड मॉर्डन लाइफ' में मानवता पर बल दिया। मानवता को धर्म मान लंदन में 'आधुनिक संस्कृति संस्था' स्थापित की। सरकार ने १९३८ में भारत लौटने की छूट दे दी। इन्होंने स्वदेश लौटकर जीवन को देशोत्थान में लगाने का निश्चय किया। ३ मार्च, १९३८ को हृदय की गति बंद हो जाने से इनकी मृत्यु हुई। (धर्मरत्न)