हनूमान् अंजना अथवा अंजनी के गर्भ से उत्पन्न केसरी के पुत्र, जो परमवीर हुए हैं। केसरी सुमेरुपर्वत पर रहनेवाले वानरों के राजा थे और अंजनी गौतम की कन्या थीं। हनूमान् पवनदेव के अंश माने जाते हैं।

अंजनी फलों के लिए घोर वन में गई थी, वहीं हनुमान् का जन्म हुआ। तुरंत ही इन्हें भूख लगी तो सूर्य को फल समझकर उसे खाने दौड़े। आकाश में उड़कर जब इन्होंने सूर्य को ढक लिया तब सारे संसार में हाहाकार मच गया और सभी देवता लोग दौड़े। इंद्र ने अपने वज्र से इन्हें मारा तो इनकी ठुडुी (हनु) टेढ़ी हो गई तभी से इनका नाम हनूमान् पड़ गया।

वज्र लगने से जब ये मूर्छित हो गए तब वायु ने इन्हें ले जाकर एक गुफा में छिपा दिया। वायुदेव स्वयं बहुत देर तक वही रुके रहे फिर तो भूमंडल भर में लोगों का साँस लेना दूभर हो गया। तब सब देवताओं ने आकर हनूमान् को अपनी अपनी शक्तियाँ प्रदान कीं और उन्हें अमरत्व भी प्राप्त हुआ। इन शक्तियों में उड़ने, नाना रूप धारण करने आदि की शक्तियाँ हैं। इनका शरीर वज्र का बना माना जाता है। इसीलिए इन्हें वज्रांग अथवा बजरंगबली भी कहते हैं। इनके दूसरे नामों में, मरुत् या वायुपुत्र होने से मारुति, पवनतनय तथा महावीर, अंजनिपुत्र, केसरीनंदन, आंजनेय आदि हैं।

हनूमान् के जन्म की कथा रामायण, शिवपुराण आदि में विस्तारपूर्वक मिलती है और सर्वत्र इन्हें परमपराक्रमी योद्धा के रूप में ही देखा गया है। इन्हीं के हाथोंश् त्रिशरादि रावण के कई सेनापतियों का वध हुआ था और इनके महान् पराक्रम का उदाहरण रामायण में ही मिलता है जब लक्ष्मण के मूर्छित हो जाने पर ये उड़कर हिमालय से संजीवनी बूटी लाने गए और वहाँ शीघ्रता में औषधि न मिलने पर सारा पर्वत ही उखाड़कर उठा लाए। सीता जी की खोज तथा राम-रावण-युद्ध की सफलता का अधिकांश श्रेय इन्हीं को है। ये अजेय, कामरूप, कामचारी तथा यमदंड से अवध्य थे और सभी शक्तियाँ प्राप्त होने पर जब ये देवताओं पर अत्याचार करने लगे तब इनके पिता केसरी तथा वायु देव दोनों ने इन्हें बहुत समझाया। उत्तरकांड में लिखा है कि जब हनुमान् न माने तो भृगु तथा अंगिरा वंशीय ऋषियों ने इन्हें शाप दे दिया कि भविष्य में इनकी सारी शक्तियाँ सीमित हो जाएँगी और किसी के स्मरण दिलाने पर ही उनका विकास हो सकेगा और तभी उनका उपयोग हनुमान् कर सकेंगे।

हनुमान की गणना सप्त चिरजीवियों में की जाती है जिनमें ये लोग हैं -

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण:।

कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:।।

((स्व.) रामज्ञा द्विवेदी)