स्वामी रामतीर्थ वेदांत की जीती जागती मूर्ति थे। इनकी वाणी के शब्द शब्द से आत्मानुभति का उल्लास टपकता है। केवल ३३ वर्ष की अल्पायु में कैसे इन्होंने आत्मज्ञान के प्रकाश से स्वदेश और विदेशों को आलोकित किया, यह एक चमत्कार जैसा है।

इनका जन्म सन् १८७३ की दीपावली के अगले दिन पंजाब के मुरारीवाला ग्राम में एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सन् १८९१ में पंजाब विश्वविद्यालय की बी. ए. परीक्षा में प्रांत भर में सर्वप्रथम आए और गणित लेकर एम. ए. की परीक्षा में भी सर्वप्रथम रहे। गणित इनका अत्यंत प्रिय विषय था। उसकी तल्लीनता में ये दिन रात भूख प्यास सब भूल जाते थे।

अर्थाभाव की जिन विकट परिस्थितियों में इन्होंने विद्याध्ययन किया, वे हृदयविदारक हैं। इनका रहन सहन सीधा सादा था। मोटे कपड़े, सात्विक भोजन, एकांत निवास, ये ही इनकी आवश्यकताएँ थीं। शोक नाम की चीज तो इन्होंने कभी जानी नहीं।

तुलसी, सूर, नानक, आदि भारतीय संत शम्स तबरेज, मौलाना रूसी आदि सूफी संत, गीता, उपनिषद्, षड्दर्शन, योगवासिष्ठ आदि के साथ ही पाश्चात्य विचारवादी और यथार्थवादी दर्शनशास्त्र, तथा इमर्सन, वाल्ट ह्विटमैन, थोरो, हक्सले, डार्बिन आदि, सभी मनीषियों का साहित्य इन्होंने हृदयंगम किया था।

आध्यात्मिक साधना - दस वर्ष की अवस्था में इन्होंने भगत धन्नाराम को गुरु के रूप में वरण किया। वे बालब्रह्मचारी सिद्ध योगी थे। इन्होंने अपने गुरु के नाम एक सहस्र से अधिक पत्र लिखे हैं। वे पूर्ण आत्मसमर्पण के भाव से ओतप्रोत हैं। गुरुनिष्ठा से हृदय विकसित हुआ और वही भगवद्भक्ति में परिणत हो गई। इनके हृदय में अपने इष्ट कृष्ण के दर्शन की लालसा जाग्रत हुई। कृष्णविरह में रात भर रोते रहते। भक्ति की चरम सीमा होते ही कीटभृंगवत् ये अद्वैत स्तर पर आने लगे। इन्होंने अद्वैत वेदांत का अध्ययन और मनन प्रारंभ किया और अद्वैतनिष्ठा बलवती होते ही उर्दू में एक मासिक 'अलिफ' निकाला। इसी बीच उनपर दो महात्माओं का विशेष प्रभाव पड़ा - द्वारकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य और विश्वविश्रुत स्वामी विवेकानंद।

संन्यास - सन् १९०० में स्त्री पुत्रों को भगवान् के भरोसे छोड़ ये गंगा और हिमालय की शरण में जा पड़े और तीर्थराम से स्वामी रामतीर्थ हो गए। ऋषिकेश से आगे तपोवन में आत्मचिंतन करते हुए ऐसी निर्विकल्प समाधि हुई कि उसके खुलते ही जो देखा, सो नया, सब अपनी ही आत्मा। सारी प्रकृति सजीव हो उठी। इन दिनों की उर्दू अंग्रेजी कविताएँ अद्वैतपरक काव्य के अनमोल रत्न हैं।

विदेशयात्रा - स्वामी राम ने जापान में लगभग एक मास और अमेरिका में लगभग दो वर्ष तक प्रवास किया। जहाँ जहाँ पहुँचे, वहाँ लोगों ने एक अद्वितीय पावन संत के रूप में स्वागत किया। उनके स्वरूप में एक दिव्य चुंबकीय आकर्षण था, जो देखता, अपने को भूल सा जाता और एक शांतिमूलक चेतना का अनुभव करता। उनकी मधुर 'ऊँ' ध्वनि भुलाए न भूलती थी। दोनों देशों में राम ने एक ही संदेश दिया-'आप लोग देश और ज्ञान के लिए सहर्ष प्राणों का उत्सर्ग कर सकते हैं। यह वेदांत के अनुकूल है। पर आप जिन सुख साधनों पर भरोसा करते हैं उसी अनुपात में इच्छाएँ बढ़ती हैं। शाश्वत शांति का एकमात्र उपाय है आत्मज्ञान। अपने आप को पहचानो, तुम स्वयं ईश्वर हो।

प्रत्यागमन - सन् १९०४ में स्वदेश लौटने पर लोगों ने राम से अपना एक समाज खोलने का आग्रह किया। राम ने बाँहें फैलाकर कहा, भारत में जितनी सभा समाजें हैं, सब राम की अपनी हैं। राम मतैक्य के लिए हैं, मतभेद के लिए नहीं। देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की, राष्ट्रधर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की। सन् १९०६ में राम पुन: हिमालय और गंगा के साहचर्य में चले गए और दीपावली को 'ऊँऊँ' कहते हुए गंगा में चिर समाधि ले ली। राम के जीवन का हर पहलू आदर्शमय था, आदर्श विद्यार्थी, आदर्श गणितज्ञ, अनुपम सुधारक और अनुपम देशभक्त, महान् कवि और महान् संत।

सिद्धांत - स्वामी राम शंकर के अद्वैतवाद के समर्थक थे, पर उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना है। वे कहते हैं - हमें धर्म और दर्शनशास्त्र भौतिकविज्ञान की भाँति पढ़ना चाहिए। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित हैं, उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के आधार में सत् चित् आनंद रूप से विद्यमान है। वहीं वास्तविक आत्मा है।

उनकी दृष्टि में सारा संसार केवल एक आत्मा का खेल है। जिस शक्ति से हम बोलते हैं, उसी शक्ति से उदर में अन्न पचता है। उनमें कोई अंतर नहीं। जो शक्ति एक शरीर में है, वही सब शरीरों में है। जो जंगम में है, वही स्थवर में है। सब का आधार है हमारी आत्मा।

राम विकासवाद के समर्थक थे। मनुष्य भिन्न भिन्न श्रेणियों है। कोई अपने परिवार के, कोई जाति के, कोई समाज के और कोई धर्म के घेरे से घिरा हुआ है। उसे घेरे के भीतर की वस्तु अनुकूल और घेरे से बाहर की प्रतिकूल। यही संकीर्णता अनर्थों की जड़ है। प्रकृति में कोई वस्तु स्थिर नहीं। अपनी सहानुभति के घेरे में भी फैलना चाहिए। सच्चा मनुष्य वह है, जो देशमय, विश्वमय हो जाता है।

राम आनंद को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं पर जन्म से मरण पर्यंत हम अपने आनंदकेंद्रों को बदलते रहते हैं। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते हैं और भी किसी व्यक्ति में। आनंद का स्रोत हमारी आत्मा है। हम उसके लिए प्राणों का भी उत्सर्ग देते हैं।

जब से भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारंभ किया हम पतनोन्मुख हुए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है, उसे देशकालानुसार बदलना चाहिए। श्रमविभाजन के आधार पर वर्णव्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी, पर आज हमने उसके नियमों को अटल बना कर समाज के टुकड़े टुकड़े कर दिए। आज देश के सामने एक ही धर्म है-राष्ट्रधर्म। अब शारीरिक सेवा और श्रम केवल शूद्रों का कर्तव्य नहीं माना जा सकता। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिए।

भारत के साथ तादात्म्य होनेवाली स्वामी राम ने भविष्यवाणी की थी-चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतंत्र होकर उज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। राम ने अपने एक पत्र में लाला हरदयाल को लिखा था - हिंदी में प्रचार कार्य प्रारंभ करो। वही स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी। एक शब्द में इनका संदेश है - त्याग और प्रेम। (दीवान चंद)