स्वामी, तैलंग इन तपस्वी महात्मा का जन्म दक्षिण भारत के विजियाना जनपद के होलिया नगर में हुआ था। बाल्यावस्था में इनका नाम तैलंगधर था। बचपन से ही आत्मचिंतन तथा वैराग्य की प्रवृत्ति देखी गई। माता की मृत्यु के पश्चात् जहाँ चिता लगी थी वहीं बैठ गए। पीछे लोगों ने वहीं कुटी बना दी। लगभग बीस वर्ष की योगसाधना के पश्चात् देशाटन में निकल पड़े। इसी देशाटन में पश्चिम प्रदेश के पटियाला नामक नगर में भाग्यवश भगीरथ स्वामी महाराज का दर्शन हुआ जिन्होंने इनको संन्यास दीक्षा दी। इसके पश्चात् बहुत दिनों तक नेपाल, तिब्बत, गंगोत्री, जमनोत्री, मानसरोवर आदि में कठोर तपस्या कर अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त कर लीं। रामेश्वरम्, प्रयाग, नर्मदाघाटी, उज्जैन आदि अनेक तीर्थ स्थानों में निवास और साधना करते हुए काशी पहुँचे। काशी में मणिकर्णिका, राजघाट, अस्सी आदि क्षेत्रों में रहने के बाद अंत में पंचगंगाघाट पर स्थायी रूप से रहने लगे, जहाँ आज भी तैलंग स्वामी मठ है। इस मठ में स्वामी जी द्वारा पूजित भगवान् कृष्ण का एक विचित्र विग्रह है जिसके ललाट पर शिवलिंग और सिर पर श्रीयंत्र खचित है। मंडप के २०-२५ फुट नीचे गुफा है जिसमें बैठकर स्वामी जी साधना करते थे। मठ की बनावट काफी पुरानी है। अनुमानत: माधव जी के मंदिर को तोड़कर मसजिद बनाने के समय से पूर्व वहाँ मठ बन चुका था। इसी मठ में विक्रमाब्द १९४४ की पौष शुक्ल ११ को स्वामी जी ब्रह्मीभूत हुए।
तैलंगधर स्वामी को काशी-प्रवास-काल में तैलंगी होने के कारण काशीवासी तैलंग स्वामी के नाम से पुकारने लगे। स्वामी जी जहाँ कहीं जाते कोई न कोई ऐसी घटना घटती जो अत्यंत चमत्कारपूर्ण होती और लोग घेरने लगते। भीड़ बढ़ते ही स्वामी जी वह स्थान छोड़कर कहीं अन्यत्र निर्जन स्थान में चल देते। मणिकर्णिका घाट पर दिनरात धूप और शीत में स्वामी जी पड़े रहते। उनका कहना था कि जीवित रहने के लिए प्राणवायु (oxygen) या किसी विशेष साधना, क्रम, अपक्रम या खूराक की जरूरत नहीं। सिद्ध साधक यौगिक साधना से घनीकृत तेजस द्वारा जीवित रहने की शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। अस्तु, उन्हें प्राकृतिक नियमों और क्रमों का अपघात करने में कठिनाई नहीं होती। मनोजय और कुंडलिनी जागरण द्वारा शरीर और प्राण को जैसा चाहे कर लेना साधारण सी बात हैं। (श्री. चं. पां.)