स्वर्ग (जैन) धार्मिक मान्यताओं के आधार पर लोक दो माने गए हैं - इहलोक जिसे मृत्युलोक कहते हैं पर परलोक जिसके अंतर्गत नरक, स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि जाते हैं। चूँकि स्वर्ग में देवगण रहते हैं, उसे देवलोक कहा गया है। जैनमतानुसार देवताओं के चार निकाय अर्थात् चार जातियाँ हैं-
१. भवनपति, २. व्यंतर, ३. ज्योतिष्क, और ४. वैमानिक। इन सभी के क्रमश: दस, आठ, पाँच और बारह भेद हैं। वैमानिक देवताओं के दो रूप होते हैं - कल्पोत्पन्न तथा कल्पातीत। ये ऊपर रहते हैं। इन सब के रहने के स्थान हैं-सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्मलोक, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत तथा नव ग्रैवेयक और विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि, जिनमें से सौधर्म से लेकर अच्युत तक बारह स्वर्ग कहे गए हैं। सभी भवनपति जंबूद्वीप में स्थित सुमेरु पर्वत के नीचे, उसे उत्तर और दक्षिण लाखों योजनों में रहते हैं व्यंतरदेव ऊर्ध्व, मध्य और अध: तीनों लोकों में भवन तथा आवासों में रहते हैं। और मनुष्यलोक में जो मानुषोत्तर पर्वत पर है, ज्योतिष्कदेव भ्रमण करते हैं। सौधर्म कल्प या सौधर्म स्वर्ग ज्योतिष्क के ऊपर असंख्यात योजन चढ़ने के बाद मेरु के दक्षिण भाग से उपलखित आकाश में स्थित है। उसके ऊपर किंतु उत्तर की तरफ ऐशान है। सौधर्म के समश्रेणी में सानत्कुमार है। ऐशान के ऊपर समश्रेणी में माहेंद्र है। इन दोनों के बीच में लेकिन ऊपर ब्रह्मलोक है। ब्रह्मलोक के ऊपर समश्रेणी में क्रमश: लांतक, महाशुक्र, और सहस्रार एक दूसरे से ऊपर हैं। इनके ऊपर आनत, प्राणत हैं। इनके ऊपर आरण और अच्युत कल्प हैं। फिर कल्पों के ऊपर नव विमान हैं। भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा प्रथम और द्वितीय स्वर्ग के वैमानिक देवगण मनुष्यों की तरह शरीर से कामसुख भोगते और खुश होते हैं। तीसरे तथा चौथे स्वर्ग के देवता देवियों के स्पर्शमात्र से कामतृष्णा को शांत कर लेते हैं। पाँचवें और छठे स्वर्ग के देव देवियों के सजेधजे रूप को देखकर, सातवें और आठवें स्वर्ग के देव देवियों के शब्द सुनकर, तथा नवें दसवें, ग्यारहें एवं बारहवें स्वर्गों के देवों को दैवियों के संबंध में चित्रण मात्र से वैषयिक सुख की प्राप्ति होती है। पहले तथा दूसरे स्वर्ग में शरीर का परिमाण सात हाथ; तीसरे, चौथे में छह हाथ, सातवें आठवें में चार हाथ; नवें, दसवें, ग्यारहवें तथा बारहवें में तीन हाथ है। पहले स्वर्ग में बत्तीस लाख, दूसरे में अट्ठाईस लाख, तीसरे में बारह लाख, चौथे में आठ लाख, पाँचवें में चार लाख, छठे में पचास हजार, सातवें में चालीस हजार, आठवें में छह हजार, नवें से बारहवें तक में सात सौ विमान हैं। पहले और दूसरे स्वर्गों के देवों में पीतलेश्या, तीसरे से पाँचवें के देवों में पद्मवेश्या, तथा छठे से सर्वार्थसिद्धि पर्यंत के देवों में शुक्ल लेश्या पाई जाती हैं (तत्वार्थसूत्र, वाचक उमास्वाति, अध्याय चतुर्थ)। (बशिष्ठ नारायण सिंह)