स्वयंचालित प्रक्षेप्यास्त्र अथवा नियंत्रित प्रक्षेप्यास्त्र (guided missile), सैनिक भाषा में यंत्र द्वारा चलनेवाले ऐसे क्षेपणीय यान या वाहन को कहते हैं जिसके गतिमार्ग को उस यान के अंदर स्थित यंत्रों द्वारा बदला या नियंत्रित किया जा सकता है। इस नियंत्रण का आयोजन प्रयाण से पूर्व, अथवा प्रक्षेप्यास्त्र के वायु में पहुँच जाने पर, दूर से किया जा सकता है, या प्रक्षेप्यास्त्र में ऐसी युक्ति लगी होेती है जो विशिष्ट लक्षणोंवाले लक्ष्य तक उस अस्त्र को पहुँचा देती है।

प्रथम विश्वयुद्ध - अमरीका में प्रथम विश्वयुद्ध के समय में ही स्वनियंत्रित वायुयानों से संबंधित प्रयोग किए गए थे, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व ऐसे वायुयानों तथा दीर्घ परास नियंत्रित प्रक्षेप्यास्त्रों के बारे में कुछ अधिक न किया जा सका।

द्वितीय विश्वयुद्ध - इस युद्ध में अमरीका की वायुसेना ने ऐजॉन (Azon) नामक १,००० पाउंड के बम के प्रयोग में आंशिक सफलता पाई। इस बम को छोड़ने के पश्चात् इसके पुच्छपृष्ठतलों को रेडियों तरंगों से प्रभावित कर चलानेवाला, इसको केवल दिगंश (Azimuth only) में, अर्थात् पार्श्वत:, नियंत्रित कर सकता था, किंतु १०,००० फुट से अधिक की ऊँचाई से इसका उपयोग व्यावहारिक सिद्ध न हुआ। प्रहार में इससे अधिक सफलता जी बी-१ (G B-1) नामक संसर्पक (glide) बम से मिली, जो २,००० पाउंड का सामान्य बम था। इसमें १२ फुट का एक पंख जोड़ दिया गया था। लक्ष्य से २० मील की दूरी से, इसका पूर्व नियंत्रण कर, इसे छोड़ दिया जाता था। इसके पश्चात् ऐसे संसर्पक बमों का निर्माण हुआ, जिनके परास तथा पथच्युति, दोनों का नियंत्रण रेडियो द्वारा किया जाता था। इसके भी पश्चात् ऐसे जी-बी-४ (G B-4) तथा ऐज़ॉन प्रकार के बमों का निर्माण किया गया, जिनके अंदर रेडियोवीक्षण (Television) प्रेषित्र लगे रहते थे और जिनका नियंत्रण रेडियो ने किया जा सकता था। किंतु रेडियोवीक्षण यंत्र की अपर्याप्त विभेदनक्षमता तथा मौसम से उत्पन्न लघु दृश्यता के कारण ऐसे बम भी सफल सिद्ध न हुए। सन् १९४५ में लक्ष्य से निकलनेवाली ऊष्मा से मार्गदर्शन पानेवाले बम बनाए गए, जो समुद्र पर जहाजों के विरुद्ध भी काम में लाए जा सकते थे, किंतु तब तक युद्ध का अंत हो गया था।

इसी समय यूरोप में वेयरी विली (Weary Willie) नामक एक नियंत्रित प्रक्षेप्यास्त्र का उपयोग, जर्मनी द्वारा अधिकृत फ्रांस में, सागरतट पर स्थित वी-२ (V-2) बम संस्थापनों के विरुद्ध किया गया। इन प्रक्षेप्यास्त्रों में २०,००० पाउंड विस्फोटक भर कर, इन्हें वायुयान चालक उचित ऊँचाई तक वायुमंडल में पहुँचाने के पश्चात् स्वयं वापस चला आता था और एक अन्य नियंत्रक वायुयान रेडियो और रेडियोवीक्षण द्वारा उसका मार्गदर्शन कर, लक्ष्य तक पहुँचा देता था, किंतु ये बम भी मौसम की खराबी और विरोधी तोपों की मार के कारण विशेष उपयोगी सिद्ध न हुए।

द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में अमरीका ने जी बी-१ (G B-1), जे बी-२ तथा जे बी-१० प्रक्षेप्य बमों का विकास भी किया। ये बम जर्मनी द्वारा निर्मित बी-श् (V-1) बमों की नकल थे तथा इनमें वैसा ही इंजिन भी लगाया गया था। इन बमों में ऐसे रॉकेट लगे थे जिनका विस्फोट, इनको पृथ्वी से ऊर्ध्व दिशा में सीधा उठाकर आवश्यक दिशा में गतिमार कर देता था।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इस क्षेत्र में सर्वाधिक सफलता जर्मनों ने बी-१ तथा वी-२ प्रक्षेप्यास्त्र बनाकर प्राप्त की। इन्होंने सन् १९२६ में ही इससे संबंधित प्रयोग और अनुसंधान प्रारंभ कर दिए थे। ये दोनों ही अस्त्र २,००० पाउंड भार के विस्फोटकवाले शीर्ष से युक्त होते थे। वी - १की गति केवल ४०० मील प्रति घंटा होती थी। इसके आगमन की पूर्वसूचना इसकी ध्वनि से मिल जाती थी, जिस कारण यह बज बम भी कहलाता था और वायुयान विरोधी तोपें इसे मार गिराती थीं। परंतु बी -२ की गति ध्वनि की गति से कई गुना अधिक, अर्थात् ३,५०० मील प्रति घंटा तक होने के कारण वह नि:शब्द आ पहुँचता था और सतर्क होने तक का अवसर नहीं मिलता था। यह वी - १ से कहीं अधिक विनाशक सिद्ध हुआ।

वी - १ का रूप छोटे मोनोप्ले के सदृश, लंबाई २९ फुट, पंखों की विस्तृति १७ फुट तथा भार ५,००० पाउंड होता था। एक अपक्षेपी यंत्र (Catapult) इसको वायु में ऊपर फेंक देता था। इसके पश्च भाग में स्थित स्पंद जेट (pulse jet) इंजिन द्वारा इसका नोदन (propulsion) तथा उड़ान के समय नियंत्रण प्रचलित प्रकार के स्वत: पथप्रदर्शक द्वारा होता था। नियंत्रण में भूल का निवारण वायुगतिकीय निरोधक पृष्ठों द्वारा, एक परिशुद्ध चुंबकीय दिक्सूचक करता था। प्रक्षेप्यास्त्र को जो मार्ग पकड़ना है उसके अनुसार दिक्सूचक का पूर्वनियोजन कर दिया जाता था और प्रक्षेप के कुछ ही समय पश्चात् अस्त्र वही पथ पकड़ लेता था। यह अधिक से अधिक ५,००० फुट तक ऊँचा उठ सकता था। आवश्यक ऊँचाई तुंगमापक (altimeter) पर स्थिर कर दी जाती थी। अस्त्र के अग्र भाग में रखे एक वायु-गति-लेख (air log) का भी नियोजन इस प्रकार कर दिया जाता था कि लक्ष्य की ओर आवश्यक दूरी तय कर लेने पर यह प्रक्षेप्यास्त्र को पृथ्वी की तरफ मोड़ देता था। इसका परास लगभग १६० मील था।

वी - २ नामक बम वी - १ से कहीं बड़ा प्रक्षेप्यास्त्र था। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत तक इससे रक्षा का कोई उपाय ज्ञात न था। इसकी लंबाई ४६ फुट तथा भार लगभग २८,००० पाउंड था। इसके रॉकेट के मोटर में ऐल्कोहल तथा तरल ऑक्सीजन ईधंन का काम देते थे। एक चबूतरे से यह सीधा ऊपर चढ़ जाता था तथा प्रक्षेप के लिए शक्ति इसमें लगे मुख्य जेट से प्राप्त होती थी। ६० मील की ऊँचाई तक पहुँच जाने पर, इसका परास २०० मरल तथा गति ३,५०० मील प्रति घंटा तक होती थी। छूटने के कुछ ही देर पश्चात् इसमें स्थित एक यंत्र इसे उर्ध्व दिशा से लक्ष्य की ओर इस प्रकार घुमा देता था कि पृथ्वी से लगभग ४५ का कोण बना रहे। एक अन्य यंत्र परास (range) के अनुसार उचित समय पर ईधंन की पहुँच रोक देता था। पूरे परास के लिए ईधंन का ज्वलनकाल केवल ६५ सेकंड होता था। ईधंन के बंद हो जाने पर इसका मार्ग तोप के गोले में प्रक्षेपपथ के सदृश हो जाता था। यह उतनी ऊँचाई पर पहुँच जाता था कि इसके प्रक्षेपण के अधिकांश में वायु से कोई रुकावट न होती थी। इसकी पूँछ में लगे बृहत् पंख (fins) इसे स्थायित्व प्रदान करते थे तथा जेट धारा में स्थित छोटे पिच्छफलकों (vanes) से क्षेपण के समय मार्गदर्शन का काम लिया जाता था। वी-२ की लक्ष्यप्राप्ति में भूल केवल लगभग २ मील पार्श्वत: तथा लगभग ७ मील परास में संभाव्य थी।

इन अस्त्रों के अतिरिक्त जर्मनों ने रेडियो द्वारा नियंत्रित बमों का भी पृथ्वी पर के लक्ष्यों तथा समुद्र पर के जहाजों के विरुद्ध प्रयोग किया। पृथ्वी से वायुमंडल तथा वायुमंडल से वायुमंडल, दोनों प्रकार के वायुयानरोधी प्रक्षेप्यास्त्रों का विकास भी युद्ध के अंत समय जर्मन कर रहे थे।

युद्धोत्तर काल - युद्ध के बाद नियंत्रित प्रक्षेप्यास्त्रों के विकास के लिए दीर्घकालिक कार्यक्रम बनाए गए। इनमें पराध्वनिक (supersonic) गतियों, उच्च वायुमंडलीय घटनाओं, नोदन (propulsion), इलेक्ट्रानिकी, नियंत्रण तथा मार्गदर्शन संबंधी अन्वेषणों पर जोर दिया गया तथा प्राप्त फलों के अनुसार पृथ्वीतल से पृथ्वीतल, पृथ्वी से वायु, वायु से वायु तथा वायु से पृथ्वी पर मार करनेवाले, नियंत्रित प्रक्षेप्यास्त्रों के विकास का कार्यक्रम निश्चित किया गया।

इस चेष्टा के फलस्वरूप प्राप्त प्रक्षेप्यास्त्रों में एक का नाम एयरो बी (Aero-bee) इसका उपयोग ऐसे परियोजनों के निमित्त मौलिक आँकड़े एकत्रित करने के लिए किया गया, जिनमें हजारों मील प्रति घंटा की गति, सौ मील तक की ऊँचाई तक बारह हजार मील तक का परास प्राप्त हो। पेंसिल की आकृति का यह प्रक्षेप्यास्त्र १५० फुट ऊँची मीनार से छोड़ा जाता था और इनका रॉकेट इंजिन, जिसमें तरल ईधंन प्रयुक्त होत था, एक मिनट से भी कम काल तक कार्य कर और लगभग ३,००० मील प्रति घंटा की गति उत्पन्न कर, इसे वायुमंडल में दीर्घ ऊँचाई पर पहुंचा देता था। एयरो बी की लंबाई २१ फुट तक ६ फुट लंबे वर्धक (booster) सहित भार १,५०० पाउंड से अधिक होता था और यह पृथ्वीतल से ७० मील तक की ऊँचाई तक पहुँच जाता था।

ध्वनि से कम गतिवाले प्रक्षेप्यास्त्रों में ऊपर उठने के लिए मुख्य पक्षों की,श् अनुदैर्ध्य अक्ष पर स्थिरता के लिए किसी प्रकार के स्थायीकारी की तथा सहपक्षों (aelerons) और/या पतवारों तथा उत्पादकों द्वारा नियंत्रण की आवश्यकता होती है। जेट तथा रॉकेट से चालित प्रक्षेप्यास्त्रों की गति शीघ्र ही पराध्वनिक हो जाती है। इन्हें वायु में सँभालने के लिए कम वायुगतिकीय (aerodynamic) पृष्ठों की आवश्यकता होती है। इनके पुच्छ भाग में स्थायीकारक पंख (fins) मुख्यत: आवश्यक होते हैं। जब तक प्रक्षेप्यास्त्र वायुमंडल में रहता है, केवल तब तक पतवार तथा उत्थावकों (elevators) की आवश्यकता क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर तलों में शीर्ष का दिशापरिवर्तन करने के लिए पड़ती है। उस गति के प्राप्त करने के पूर्व जब ये तल कार्यकारी हो जाते हैं तथा प्रक्षेप्यास्त्र के वायुमंडल के बाहर पहुँच जाने के पूर्व, मुख्य जेट में स्थित पिच्छफलकों द्वारा या जेट की दिशा बदलकर, नियंत्रण करना आवश्यक होता है।

पराध्वनिक गति प्राप्त हो जाने पर, नियंत्रित प्रक्षेप्यास्त्रों के बहिस्तलों का ऊष्मारोधी धातुओं से बना होना आवश्यक होता है, अन्यथा वायुघर्षण से गरम होकर ये अपरूप या ऑक्सीकृत हो जाएँगे। इस प्रकार की उच्च गति जेट नोदन से प्राप्त होती है। जेट इंजिनों में ज्वलन की गैसों से प्रणोद (thrust) उसी प्रकार प्राप्त होता है। जैसे बच्चों के खिलौना गुब्बारे में भरी वायु के सहसा निकल जाने से। यों तो इंजिन के धारक पात्र के अंदर की सब दीवारों पर गैसों के अविलंब ज्वलन से दाब पड़ती है, पर जो प्रणोद-प्रक्षेप्यास्त्र को गति देता है, उसकी उत्पत्ति जेट इंजिन के पच्छ भाग में ज्वलन गैसों के बाहर निकल जाने के लिए बने छिद्रों से विपरीत दिशा में स्थित, इंजिन की दीवार पर पड़े दबाव के कारण होती है।

सम्मिश्र ईधंन के विस्फोट के लिए वायु की आवश्यकता नहीं होती। इंजिन की खोज (Casing) के अग्रपृष्ठ पर ऐसे विस्फोट द्वारा पड़नेवाले प्रणोद या धक्के से ही प्रक्षेप्यास्त्र को गति मिलती है। इसलिए जेट से चालित प्रक्षेप्यास्त्र बहिरंतरिक्ष में भी, जहाँ वायु नहीं होती, यात्रा कर सकता है।

जेट इंजिनों के विभेद - ये इंजिन मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं : (१) रॉकेट तथा (२) वायुनली (Airduct) वाले। जैसा ऊपर कहा गया है, रॉकेट के कार्य में वायु की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि इसमें ईधंन और उसका दाहक, दोनों उपस्थित रहते हैं। ऐल्कोहल-तरल ऑक्सीजन संयुक्त प्रणोदक, जिसका प्रयोग वी-२ रॉकेट में किया गया, साधारणत: ऐसे ईधंन के रूप में प्रयुक्त होता है।

वायुनलिक वाले जेट तीन प्रकार के, अर्थात् टर्बोजेट (Turbo Jets), स्पंद जेट (Pulse Jets) तथा रैमजेट (Ram Jets), होते हैं। ये तीनों जेट वायुमंडल में से गुजरते हुए, रॉकेट के अग्रभाग में स्थित एक नलिका द्वारा वायु को खींच लेते हैं। इस वायु का संपीडन हो जाता है और यह रॉकेटों में भरे ईधंन, गैसोलीन या केरोसीन तेल, को जला देती है। रॉकेटों की तुलना में वायुनलिका प्रकार का इंजिन इसलिए अधिक सुविधाजनक तथा दक्ष होता है क्योंकि इनमें ईधंन को जलाने के लिए वायु कम में आती है तथा इस कार्य के लिए ईधंन के साथ अन्य ऑक्सीकारक पदार्थ भी नहीं लादना पड़ता। इस कारण कम भारत के ईधंन में आवश्यक प्रणोद उत्पन्न हो जाता है। यह स्पष्ट है कि वायुनलिका इंजिनवाले प्रक्षेप्यास्त्रों का प्रक्षेप पथ वायुमंडल के भीतर ही होगा, जबकि रॉकेट इंजिनवाले प्रक्षेप्यास्त्र अंतरिक्ष में यात्रा कर सकते हैं। वर्तमान काल में चंद्रमा तथा ग्रहों तक यात्रा करनेवाले प्रक्षेप्य यानों में रॉकेट इंजिनों का प्रयोग होता है।

प्रक्षेपण - स्पंद जेट तथा रैम जेट प्रकार के रॉकेटों को वायु में ऊपर उठने के लिए सहायता की आवश्यकता होती है, किंतु रॉकेट तथा टबों जेट प्रकार के इंजिनों में स्वप्रक्षेपण की शक्ति रहती है। फिर भी सामान्यत: सभी प्रकार के प्रक्षेप्यास्त्रों या प्रक्षेपयानों को वायुमंडल के उच्च स्तरों तक पहुंचाने के लिए गुलेल सदृश अपक्षेपी, तोप या जाटो (Jato) का प्रयोग किया जाता है। जाटो में ऐसे छोटे रॉकेटों से काम लिया जाता है जो प्रक्षेप्य के ऊपर पहुँच जाने पर स्वत: उससे अलग हो जाते हैं।

स्थायीकरण - प्रक्षेपण के समय प्रक्षेप्यास्त्र के अनुदैर्ध्य स्थायीकरण के लिए वायुगतिकीय स्थायीकारी तलों से काम लिया जाता है। बाद में प्रक्षेपण के पश्चात् प्रक्षेप्यास्त्र में अपने अक्ष पर घूर्णन उत्पन्न हो जा सकता है। यदि घूर्णन होने दिया जाए तो पतवार और उत्थापक नियंत्रण तक क्रमानुसार ऊर्ध्व तथा क्षैतिज समतलों में नहीं रह पाएँगे और मार्गदर्शन संभव नहीं होगा। नियंत्रण तथा मार्गदर्शन के समय इस घूर्णन का रोकने के लिए प्रक्षेप्यास्त्र में एक छोटा चबूतरा लगा रहता है, जिसके परित: प्रक्षेप्यास्त्र के अनुदैर्ध्य अक्षीय स्थितिसूचक संकेतों का उपयोग घूर्णन रोकने में काम आनेवाले वायुगतिकीय नियंत्रकों को कार्यकारी करने में किया जाता है। इस कृत्रिम चबूतरे का तल जाइरो (gyro) द्वारा इस प्रकार निर्धारित होता है कि किसी क्षण पृथ्वी के जिस बिंदु के ऊपर प्रक्षेप्यास्त्र उड़ रहा है उस बिंदु पर पृथ्वी के स्पर्शी समतल से चबूतरे का तल समानांतर रहे।

नियंत्रण - स्थायीकृत प्रक्षेप्यास्त्र चार प्रकार से होता है। प्रथम, अर्थात् 'पूर्वनिर्धारण' रीति में, प्रक्षेप्यास्त्र में स्थित यंत्रों को इस प्रकार नियोजित कर दिया जाता है कि अस्त्र निश्चित पथ पर चले। यदि वह इस पथ के बाहर चला जाता है, तो मार्गदर्शक यंत्रों से ऐसे संकेत निकलते हैं जो पतवार, या उत्थापक या दोनों की स्थितियों में परिवर्तन कर प्रक्षेप्यास्त्र को सही पथ पर ला देते हैं। दूसरी रीति को 'आज्ञा प्रणाली' (Command system) कहते हैं। इसमें प्रक्षेप्यास्त्र के पथ को नियंत्रण केंद्रों से रेडार द्वारा जाँचते रहते हैं। विपथगामी होने पर, रेडियो या रेडार संकेत द्वारा प्रक्षेप्यास्त्र का लक्ष्य तक मार्गदर्शन किया जाता है। तीसरी रीति, अर्थात् 'रश्मिदंड आरोहण' (Beam Riding) में कई केंद्रों से प्रक्षेप्यास्त्र तक युगपत् रेडियो संकेत प्रक्षेप्यास्त्र की स्थिति का निर्णय, और यदि आवश्यक हो, तो पथपरिवर्तन कर उसे सही मार्ग पर ले जाता है। चतुर्थ प्रणाली 'लक्ष्यसिद्धि' (Homing) पद्धांत कहलाती है। इस प्रणाली में प्रक्षेप्यास्त्र में स्थित यंत्र का मार्गदर्शन लक्ष्य से उत्सर्जित विद्युत्-चुंबकीय ध्वनि, ऊष्मा अथवा प्रकाशतरंगों से होता है। यह उत्सर्जन लक्ष्य से प्राकृतिक रूप से, अथवा उससे परावर्तन कराकर, प्राप्त हो सकता है। ये चारों विधियाँ अलग अलग या संयुक्त रूप से काम में लाई जा सकती हैं, परंतु साधारणत: उड़ान के अधिकांश भाग में प्रथम में से किसी एक का प्रयोग किया जाता है और चतुर्थ प्रणाली यथार्थ लक्ष्यभेद के लिए काम आती है।

स्वयंचालित प्रक्षेप्यास्त्रों का महत्व - उच्चगति, दीर्घ परास, लक्ष्यप्राप्ति में अचुकता तथा स्वत:चालन की क्षमता आदि गुणों के कारण भविष्य के युद्धों में इन अस्त्रों की महत् तथा व्यापक उपयोगिता संभाव्य है, किंतु इनके उत्पादन में बड़ा खर्च होता है तथा इनके प्रयोग के लिए उच्च प्रशिक्षित प्रविधिज्ञों, विद्युत् उपकरणों से साज्जित उड़ान स्थलों (Launching sites), जनशक्ति तथा विपुल सामग्रियों की आवश्यकता होती है। ये सब राष्ट्रों के लिए साध्य नहीं हैं। ऐटम बम के विकास के पश्चात् इन बमों का उपयोग स्वयंचालित प्रक्षेप्यास्त्रों द्वारा भी संभव हो गया है। इसलिए उपरिलिखित कठिनाइयों के रहते हुए भी, ऐटम बम की अपरिमित विनाशकारी शक्ति से विपक्षी का ध्वंस करने के लिए भविष्य के युद्धों में इन प्रक्षेप्यास्त्रों का उपयोग अवश्यंभावी है।

प्रक्षेप्यास्त्रों से बचाव की रीतियाँ - प्रत्येक अस्त्र की मार से बचाव की रीति का आविष्कार आवश्यक है। स्वयंचालित प्रक्षेप्यास्त्रों से बचाव इसी जाति के ऐसे विरोधी प्रक्षेप्यास्त्र द्वारा ही संभव है जिसमें खोजने और लक्ष्यप्राप्ति के लिए मार्गदर्शन करानेवाली युक्तियाँ लगी हैं। आक्रमणकारी प्रक्षेप्यास्त्र को वायुमंडल में ही ये विरोधी प्रक्षेप्यास्त्र खोज निकालेंगे और लक्ष्य तक पहुँचने के पूर्व ही उसे नष्ट कर देंगे। तलाश, लक्ष्य की पहचान तथा भार नियंत्रण के लिए उन्नत रेडार यंत्र और नए प्रकार की वायुयाननाशक तोपें, जो आज से कहीं अधिक क्षिप्रता से काम करें, संभवत: बचाव के लिए उपयोगी सिद्ध हों। इन सब पर निरंतर और बड़े पैमने पर खोज जारी है। (भगवान दास वर्मा)