स्वदेशी आंदोलन से हम विशेषकर उस आंदोलन को लेते हैं जो वंगभग के विरोध में बंगाल और भारत में चली। इसका मुख्य अंग अपने देश की वस्तु अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना है। यह विचार वंगभंग से बहुत पुराना है। भारत में स्वदेशी का पहले पहल नारा श्री बकिमचंद्र ने 'वंगदर्शन' के १२७९ की भाद्र संख्या यानी १८७२ ई. में ही विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था - जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन ब दिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट् अतिथिशाला बन गई हैं।

इसके बाद श्री भोलानाथ चंद्र ने १८७४ में श्री शंभचंद्र मुखोपाध्याय प्रवर्तित 'मुखर्जीज़ मैग्जीन' में स्वदेशी का नारा दिया था। उन्होंने लिखा था ''किसी प्रकार का शारीरिक बलप्रयोग न करके, राजानुगत्य अस्वीकार न करते हुए, तथा किसी नए कानून के लिए प्रार्थना न करते हुए भी हम अपनी पूर्वसंपदा लौटा सकते हैं। जहाँ स्थिति चरम में पहुँच जाए, वहाँ एकमात्र नहीं तो सबसे अधिक कारग अस्त्र नैतिक शत्रुता होगी। इस अस्त्र को अनाना कोई अपराध नहीं है। आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही संभव है।' यह नारा कांग्रेस के जन्म के पहले दिया गया था। जब १९०५ ई. में वंगभंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। उसी वर्ष कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में मत प्रकट किया। देशी पूँजीपति उस समय मिलें खोल रहे थे, इसलिए स्वदेशीश् आंदोलन उनके लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ।

इन्हीं दिनों जापान ने रूस पर विजय पाई। उसका असर सारे पूर्वी देशों पर हुआ। भारत में वंगभंग के विरोध में सभाएँ तो हो ही रही थीं। अब विदेशी वस्तु बहिष्कार आंदोलन ने बल पकड़ा। 'वंदेमातरम्' इस युग का महामंत्र बना। १९०६ के १४ और १५ अप्रैल को स्वदेशी आंदोलन के गढ़ वारिशाल में वंगीय प्रादेशिक सम्मेलन होने का निश्चय हुआ। यद्यपि इस समय बारिशाल में बहुत कुछ दुर्भिक्ष की हालत थी, फिर भी जनता ने अपने नेता अश्विनीकुमार दत्त आदि को धन जन से इस सम्मेलन के लिए सहायता दी। उन दिनों सार्वजनिक रूप से 'वंदेमातरम्' का नारा लगाना गैरकानूनी बन चुका था और कई युवकों को नारा लगाने पर बेंत लग चुके थे और अन्य सजाएँ मिली थीं। जिला प्रशासन ने स्वागतसमिति पर यह शर्त लगाई कि प्रतिनिधियों का स्वागत करते समय किसी हालत में 'वंदेमातरम्' का नारा नहीं लगाया जाएगा। स्वागतसमिति ने इसे मान लिया। किंतु अत्युग्र दल ने इसे स्वीकार नहीं किया। जो लोग 'वंदेमातरम्' का नारा नहीं लगा रहे थे, वे भी उसका बैज लगाए हुए थे। ज्योंही प्रतिनिधि सभास्थल में जाने को निकले त्यों ही उनपर पुलिस टूट पड़ी और लाठियों की वर्षा होने लगी। श्री सुरेंद्रनाथ बनर्जी गिरफ्तार कर लिए गए। उनपर २०० रुपया जुर्माना हुआ। वह जुर्माना देकर सभास्थल पहुँचे। सभा में पहले ही पुलिस के अत्याचारों की कहानी सुनाई गई। पहले दिन किसी तरह अधिवेशन हुआ, पर अगले दिन पुलिस कप्तान ने आकर कहा कि यदि 'वंदेमातरम्' का नारा लगाया गया तो सभा बंद कर दी जाएगी। लोग इस पर राजी नहीं हुए, इसलिए अधिवेशन यहीं समाप्त हो गया। पर उससे जनता में और जोश बढ़ा।

लोकमान्य तिलक और गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे भी इस संबंध में कलकत्ता पहुँचे और बंगाल में भी शिवाजी उत्सव का प्रवर्तन किया गया। रवींद्रनाथ ने इसी अवसर पर शिवाजी शीर्षक प्रसिद्ध कविता मिली। १० जून को तीस हजार कलकत्तावासियों ने लोकमान्य तिलक का विराट् जुलूस निकाला। इन्हीं दिनों बंगाल में बहुत से नए पत्र निकले, जिनमें 'वंदेमातरम्' और 'युगांतर' प्रसिद्ध हैं।

इसी आंदोलन के अवसर पर विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरु हुई। अनुशीलन समितियाँ बनीं जो दबा दी जाने के कारण क्रांतिकरी समितियों में परिणत हो गई। अरविंद के छोटे भाई वारींद्रकुमार घोष ने बंगाल में क्रांतिकारी दल स्थापित किया। इसी दल की ओर से खुदीराम ने जज किंग्सफोर्ड के धोखे में कैनेडी परिवार को मार डाला, कन्हाईलाल ने जेल के अंदर मुखबिर नरेंद्र गोसाई को मारा और अंत में वारींद्र स्वयं अलीपुर षड्यंत्र में गिरफ्तार हुए। उनको तथा तथा उनके साथियों को लंबी सजाएँ हुईं।

दिल्ली दरबार (१९११) में वंगभंग रद्द कर दिया गया, पर स्वेदशी आंदोलन नहीं रुका और वह स्वतंत्रता आंदोलन में परिणत हो गया।

सं. ग्रं. - पट्टाभि सीतारमैया : द हिस्टरी ऑव द कांग्रेस (अंग्रेजी); योगेशचंद्र वागल : मुक्तिसंधाने भारत (बगला)। (मन्मनाथ गुप्त)