स्याही या मसी ऐसे रंगीन द्रव को कहते हैं जिसका प्रयोग अक्षरों एवं चिह्नों को अंकित करने अथवा किसी वस्तु में छपाई करने में होती है। लेखन में प्रयुक्त होनेवाली स्याही का प्रयोग सबसे पहले भारत तथा चीन में हुआ था। प्राचीनतम स्याही अर्धठोस पदार्थ होती थी। इसे काजल (दीपकालिमा) तथा सरेस के सम्मिश्रण से तैयार किया जाता था। पीछे तरल स्याही का प्रयोग का आरंभ हुआ। प्रारंभ में तरल स्याही तैयार करने में कार्बन के निलंबन तथा उसके कोलॉइडी द्रवों का प्रयोग होता था। ऐसी स्याही अल्प समय में ही विश्व के अनेक देशों में प्रयुक्त होने लगी। आठवीं शताब्दी में पाश्चात्य देशों में कार्बनयुक्त स्याही का स्थान लौह माजूफल को दलकर उसके आक्वाथ (infusion) अथवा टैनिनयुक्त किसी अन्य द्रव में कसीस के विलयन को मिलाते थे। इसमें पर्याप्त मात्रा में बबूल का गोंद भी मिलाते थे जिससे कोलॉइडी लौह टैनेट द्रव में निलंबन की स्थिति में रहता था। स्याही के बनने में किसी भी शल्कछाल (Scale bark) का प्रयोग होता है पर माजूफल सर्वाधिक उपयुक्त कच्चा माल माना जाता है। माजूफल में सामान्य: ५० से ८० प्रतिशत गैलो टैनिन तथा अल्प मात्रा में गैलिक अम्ल उपस्थित रहते हैं। हरीतकी (हड़) का प्रयोग प्रतिलिपि स्याही के बनाने में किया जाता है। इसमें ४० से ५० प्रतिशत टैनिन रहता है। माजूफल के गैलोटैनिन तथा गैलिक अम्ल का पाइरोगैलिक समूह वर्ण का एक अंश होता है। अत: माजूफल का रँगनेवाला गुण उसमें उपस्थित गैलो टैनिन तथा गैलिक अम्ल की संयुक्त मात्रा पर निर्भर करता है। स्याही के बनाने में विभिन्न मात्रा में माजूफल का प्रयोग होता है। माजूफल का प्रयोग किसी निश्चित मात्रा के आधार पर नहीं होता है। स्थायी स्याही के उत्पादन में भी विभिन्न मात्रा में माजूफल तथा कसीस का उपयोग होता है पर सामान्यत: तीन भाग माजूफल के साथ एक भाग कसीस रहता है। माजूफल में टैनिन की मात्रा निश्चित न होने के कारण स्याही में माजूफल तथा कसीस का भाग निश्चित करना संभव नहीं है। लिखने की लौह माजूफल स्याही बनाने की एक रीति में माजूफल, कसीस, बबूल का गोंद, जल तथा फीनोल क्रमश: १२०, ८०, ८०, २४०० तथा ६ भाग रहते हैं। यहाँ दलित माजूफल को जल से बारबार निष्कर्षित कर सब निष्कर्ष को एक साथ मिलाकर उसमें अन्य पदार्थ मिलाते हैं। स्याही को इस प्रकार तैयार कर परिपक्व होने के लिए कुछ समय तक किसी पात्र में छोड़ देते हैं। स्याही बनाने में कसीस के रूप में फेरस सल्फेट का प्रयोग बहुत समय से होता आ रहा है पर अब लौह के अन्य लवण जैसे फेरिक क्लोराइड या सीमित मात्रा में फेरिक सल्फेट का प्रयोग भी होने लगा है। व्यापारिक कसीम में लौह की मात्रा निश्चित नहीं रहती। सामान्य कसीम नीलापनयुक्त होने से लेकर चमकीला धानी हरे रंग का होता है। इसमें लोह की मात्रा १८ से २६ प्रतिशत तक रहती है।
सामान्य नीलीकाली स्थायी स्याही गैलोटैनेट स्याही होती है। इसमें लौह की मात्रा ०.५ से ०.६ प्रतिशत तक रहती है। स्याही में लौह तथा टैनिन पदार्थों का अनुपात ऐसा रखा जाता है कि लिखावट अधिक स्थायी रहे। फाउंटेनपेन की नीलीकाली स्याही में लौह की मात्रा न्यूनतम ०.२५ प्रतिशत के लगभग रहती है। ऐसी स्याही का रंग बोतल में तथा लिखने के समय नीलाकाला होता है पर वायु के प्रभाव से कुछ समय बाद काला हो जाता है। गैलिक अम्ल स्याही सामान्य लौह माजूपुल के अपेक्षाकृत अधिक समय तक रखने पर खराब नहीं होती। प्रतिलिपि स्याही सांद्र लोह टैनेट (नीलीकाली) स्याही होती है जिसमें ग्लिसरीन अथव डेक्सट्रिन की कुछ मात्रा मिलाकर कागज पर स्याही में होनेवाले वायुमंडलीय आक्सीकरण क्रिया में अवरोध उत्पन्न किया जाता है। इनके रंजकों के उपयोग से विभिन्न वर्णों की स्याही बनाई जाती है। अधिकांश लाल वर्ण की स्याही में मजेंटा अथवा इयोसिन का उपयोग होता है। इनमें आवश्यकतानुसार गोंद अथवा यदि स्याही प्रतिलिपि के कार्य के लिए है तो ग्लिसरीन मिलाया जाता है। नीले वर्ण की स्याही बनाने में प्रशियन नील नामक रंजक तथा अम्ल का प्रयोग होता है जिनका अनुपात क्रमश: ८ : १ होता है। इंडिगो कारमाइन नामक रंजक के प्रयोग से भी स्याही प्राप्त होती है। १.२ प्रतिशत ऐसिड-ग्रीन अथवा ०.२ प्रतिशत मैलकाइट ग्रीन के प्रयोग से हरे वर्ण की स्याही प्राप्त होती है।
कागज पर स्याही के वर्ण में परिवर्तन न होने से लेखन के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। अनेक ऐसी स्याहियाँ भी उपलब्ध हैं जो लिखने के समय दिखाई नहीं पड़ती हैं पर किसी विशेष उपचार से उन्हें पढ़ा जा सकता है। ऐसी स्याही को गुप्त मसी या स्याही कहते हैं। कागज पर छपाई, कपड़ों पर छपाई आदि विशेष प्रयोजनों के लिए विशेष प्रकार की स्याहियाँ काम में आती हैं। (अभय सिन्हा)