स्पेक्ट्रमिकी, खगोलीय वह विज्ञान है जिसका उपयोग आकाशीय पिंडों के परिमंडल की भौतिक अवस्थाओं के अध्ययन के लिए किया जाता है। प्लैस्केट के मतानुसार भौतिकविद् के लिए स्पेक्ट्रमिकी वृहद् शस्त्रागार में रखे हुए अनेक अस्त्रों में से एक अस्त्र है। खगोल भौतिकविद् के लिए आकाशीय पिंडों के परिमंडल की भौतिक अवस्थाओं के अध्ययन का यह एकमात्र साधन है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और प्रारंभिक शोध - १६७५ ई. में न्यूटन ने सर्वप्रथम श्वेत प्रकाश की संयुक्त प्रकृति का पता लगाया। इसके सौ वर्ष से कुछ अधिक समय के पश्चात् १८०२ ई. में वुलैस्टन (Wollastan) ने प्रदर्शित किया कि सौर स्पेक्ट्रम में काली रेखाएँ होती हैं। उन्होंने सूर्य के प्रकाश के एक संकीर्ण किरणपुंज को एक छिद्र में से अँधेरे कक्ष में प्रविष्ट कराकर प्रिज़्म द्वारा देखा। उन्होंने देखा कि यह किरणपुंज काली रेखाओं द्वारा चार रंगों में विभक्त हो गई। यह भी देखा कि एक मोमबत्ती की ज्वाला के निचले भाग के नीले प्रकाश को एक प्रिज़्म के द्वारा देखने पर बहुत से चमकीले प्रतिबिंब दिखाई पड़ते हैं, जिनमें से एक और स्पेक्ट्रम के नीले और बैंगनी रंगों के बीच की काली रेखा का संपाती होता है। बाद में १८१४ ई. में फ्राउनहोफर (Fraunhofer) ने काली रेखाओं की दूरदर्शी और संकीर्ण रेखाछिद्र से विस्तृत परीक्षा की और वे स्पेक्ट्रमश् में ५७४ तक काली रेखाओं को गिन सके थे। उन्होंने उनमें से कुछ प्रमुख रेखाओं का नाम A, a, B, C, D, E, b इत्यादि दिया जो आज भी प्रचलित हैं। उन्होंने यह भी देखा कि सौर स्पेक्ट्रम की D रेखाएँ दीपक की ज्वाला के स्पेक्ट्रम में दिखाई पड़नेवाली काली रेखाओं की संपाती होती हैं। इस संपात की सार्थकता तब तक अज्ञात रही जब तक किर्खहॉफ (Kirchhoff) ने १८५९ ई. में एक साधारण प्रयोग द्वारा यह स्पष्ट नहीं किया कि स्पेक्ट्रम में D रेखाओं की उपस्थिति इनके तरंगदैर्ध्य पर तीव्रता की दुर्बलता के कारण है, जिसका कारण सूर्य में सोडियम वाष्प की तह को उपस्थिति है और इससे उन्होंने सूर्य में सोडियम की उपस्थिति को सिद्ध किया। इस महत्वपूर्ण सुझाव का उपयोग हिगिंज (Huygens) ने किर्खहॉफ़ की खोजों को तारकीय स्पेक्ट्रम के अध्ययन में प्रयुक्त कर किया। प्राय: उसी समय रोम में सेकी (Secchi) ने तारकीय स्पेक्ट्रम को देखना प्रारंभ किया और यह शीघ्र ही स्पष्ट हो गया कि तारे भी लगभग उन्हीं पदार्थों से बने हैं जिनसे सूर्य बना है।

किर्खहॉफ़, हगिंज और सेकी के प्रारंभिक कार्य के बाद यग, जान्सेन, लॉकयर, फोगेल (Vogel) और इनके पश्चात् डिस्लैंड्रिस पिकरिंग, किलर, डुनर (Duner), हेल (Hele) बेलोपोल्सकी (Belopolsky) और अन्य लोगों ने इस दिशा में कार्य किया।

१८७३ ई. में लॉकयर ने सर्वप्रथम प्रदर्शित किया कि एक तत्व एक से अधिक विशिष्ट स्पेक्ट्रम उत्सर्जित परमाणु के ऊपर प्रयुक्त उद्दीपन पर निर्भर करता है। जब लॉकयर ने स्पेक्ट्रम को उत्तेजित करने के लिए आर्क के बाद अधिक उग्र स्फुलिंग विधि का प्रयोग किया तब जो स्पेक्ट्रम रेखाएँ और तीव्र हो गई उन्हें उन्होंने वर्धित रेखाओं का नाम दिया। ये यह प्रदर्शित करनेवाले प्रथम व्यक्ति थे कि सूर्य के वर्णमंडल (Chromosphere) का स्पेक्ट्रम मंडलक और सूर्यकलंक (Sunspot) के स्पेक्ट्रम से भिन्न है और इससे निष्कर्ष निकाला कि प्रकाशमंडल (photosphere) के ताप की अपेक्षा वर्णमंडल का ताप अधिक और सूर्यकलंकों का ताप कम होता है।

लॉकयर ने यह ज्ञात किया कि यौगिकों के ज्वाला स्पेक्ट्रम (Flame Spectrum) में पट्टियों (प्रत्येक रेखाओं के समूह से युक्त होती है) अनुक्रम दिखाई पड़ता है। ये पट्टियाँ घटक (Constituent) परमाणुओं द्वारा प्राप्त रेखिल स्पेक्ट्रम (line spectrum) से भिन्न होती हैं। परंतु जब ताप बढ़ा दिया गया, तब पट्टियाँ लुप्त हो गईं और घटक तत्वों के रेखिल स्पेक्ट्रम प्रकट हो गए। इस प्रेक्षण से लॉकयर ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि स्फुलिंग स्पेक्ट्रम में तत्वों की वर्धित रेखाएँ साधारण तत्वों के वियोजन (dissociation) से प्राप्त होनेवाले प्रोटोएलिमेंट (proto element) के कारण होती हैं। इस प्रकार आज की ज्ञात पिंकरिंग श्रेणी जो आयनित हीलियम परमाणु के कारण है उसे प्रोटो हाइड्रोजन (Proto hydrogen) स्पेक्ट्रम कहा गया। आज हम जानते हैं कि ये प्रोटोएलिमेंट मात्रा वे ही तत्व हैं जिनके परमणु आयनित हो गए हैं। लॉकयर ने अनेक तारों का प्रेक्षण किया और यह निष्कर्ष निकाला कि वे विभिन्न प्रकार के स्पेक्ट्रम केवल इसलिए प्रदर्शित करते हैं कि उनका ताप विभिन्न है। सन् १९२१ तक यह विवेकपूर्ण सुझाव उपेक्षित ही रहा जब तक कि साहा (Saha) ने स्पेक्ट्रम अनुक्रम के बारे में सही व्याख्या नहीं की। इनके अनुसार तारों की भिन्नता का कारण उनकी आंतरिक रसायनिक रचना नहीं है अपितु उनके ताप और दबाव की भिन्नता है।

१९०० ई. के लगभग यंग के विचारों के आधार पर तारकीय परिमंडल (Stellar atmosphere) के बारे में एक पर्याप्त संतोषजनक गुणात्मक सिद्धांत प्रतिपादित हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार परिमंडल का निम्नतम स्तर एक अपारदर्शी प्रकाशमंडल है जिसमें गैसीय माध्यम में संघनित धातु या कार्बन वाष्प तैरते रहते हैं। प्रेक्षित संतत स्पेक्ट्रम का उद्गम इसी स्तर से होता है। इस स्तर के ऊपर अपेक्षाकृत ठंढा परिमंडल रहता है जो वरणात्मक अवशोषण (Selective absorption) द्वारा प्रेक्षित काली रेखाएँ उत्पन्न करता है।

१९वीं शताब्दी के अंतिम दशक में तारों, विशेषत: सूर्य के परिमंडल का विस्तृत गुणात्मक विश्लेषण किया गया। अनेक अन्वेषकों, मुख्यरूप से रोलैंड (Roland), ने स्पेक्ट्रम रेखाओं की पहचान तरंगदैर्ध्य के संबंध के आधार पर करने का प्रयास किया। सूर्य का तल, सूर्य धब्बों के बदलते हुए दृश्य, सौर ज्वाला का अध्ययन किया गया।

अनेक ग्रहणों के अध्ययन से सौर वर्णमंडल और किरीट (Corona) की संरचनाओं के बारे में बहुमूल्य सूचनाएँ प्राप्त हुई। बहुत सी नई समस्याएँ, जैसे किरीट रेखाओं की पहचान आदि पैदा हो गई। ग्रहों के अध्ययन के लिए स्पेक्ट्रमिकी का उपयोग भी किया गया, यद्यपि कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं प्राप्त हुआ। १९०० ई. तक स्पेक्ट्रमिकीय युग्मतारों (Spectroscopic binaries), वे तारे जो देखने में एकल दिखाई देते हैं परंतु वास्तव में युग्म तारे हैं और जिनसे स्पेक्ट्रम रेखाओं में कभी कभी आवर्ती द्विगुण उत्पन्न हो जाते हैं) का पता लगा। विभिन्न वेधशालाओं में अनेक स्पेक्ट्रमलेखी (Spectrographs) कार्य में लाए गए और अनेक अन्वेषकों द्वारा, विशेषत: लिंक वेधशाला में कैंपबेल द्वारा, त्रिज्य वेग (radial velocity) का स्पेक्ट्रमी मापन प्रारंभ हुए। ऐसा कहा जा सकता है कि इसी के साथ खगोलीय स्पेक्ट्रमिकी के प्रथम चरण का समापन हुआ।

१९वीं शताब्दी की खगोलभौतिकी (astrophysics) तारकीय स्पेक्ट्रम की गुणात्मक व्याख्या तक ही सीमित थी। बीसवीं सदी से परिमाणात्मक व्याख्या का प्रारंभ हुआ। १९०० ई. के प्लैक के विकिरण नियम परमाणु ऊर्जास्तर की मान्यता आयनन विभव (ionisation potential) एवं विस्तृत प्रयोगशाला और परमाणु स्पेक्ट्रमी (atomic spectra) के सैद्धांतिक अन्वेषण से तारों की भौतिक दशा और उनके संघटन का परिणात्मक अध्ययन संभव हो सका है। ऐसा कहा जा सकता है कि इन्हीं अन्वेषणों से खगोलीय स्पेक्ट्रमिकी के द्वितीय चरण का प्रारंभ हुआ।

शुस्टर (Schuster) ने सन् १९०२ में खगोलभौतिकी जर्नल में एक लेख प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने सौर मंडलक के छोर (limb) की ओर के प्रेक्षित अँधेरों को विकरित परिमंडल द्वारा समझाने का प्रयास किया। कुछ वर्षों के पश्चात् उन्होंने दूसरा निबंध प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने तारकीय स्पेक्ट्रमों में अवशोषण और उत्सर्जन रेखाओं की व्याख्या करने का प्रयत्न किया इन खोजों के पश्चात् श्वार्ट्स चाइल्ड के (Schwarzschild), मिल्न (Milne), एडिंगटन (Eddington), फाउलर (Fowler) और इनके पश्चात् अनसॉल्ड (Unsold), चंद्रशेखर, स्टामग्रेन (Stromgren) तथा अन्य लोगों ने इस दिशा में कार्य किया।

तारों का सतत स्पेक्ट्रम - सूर्य पृथ्वी के सबसे निकट का और सबसे अधिक चमकीला तारा है, जो प्रेक्षणीय मंडलक प्रदर्शित करता है। यह स्वाभाविक है कि तारों के सतत स्पेक्ट्रम सिद्धांत की जाँच सूर्य के ऊपर इसके अनुप्रयोग द्वारा की जाए। सूर्य मंडलक के ऊपर की तीव्रता वितरण का प्रेक्षण समाकलित (integrated) प्रकाश में ही नहीं वरन् अलग अलग तरंगदैर्ध्य के एकवर्णी प्रकाश में भी किया गया है। यह पाया गया कि अंग (Limb) तक पहुँचन पर तीव्रता घट जाती है और अंगतमिस्रण की घटना दीर्घ तरंगदैर्ध्य की अपेक्षा लघु तरंगदैर्ध्य में अधिक स्पष्ट होती है।

शुस्टर ने इस प्रेक्षित अंगतमिस्रण की व्याख्या करते समय यह मान लिया था कि प्रकाशमंडल सभी दिशाओं में समान रूप से विकिरण करता है और उसके चारों ओर का गैसीय परिमंडल सभी आवृत्तियों पर उसका अवशोषण और उत्सर्जन करता है। यह मानकर कि गैसीय परिमंडल निचले प्रकाशीय मंडल की अपेक्षा ठंढा है, शुस्टर ने एक सैद्धांतिक नियम का प्रतिपादन किया और इस सिद्धांत की प्रेक्षणों से तुलना की।

तारकीय परिमंडल में विकिरणात्मक (radiative) संतुलन की महत्ता को समझने का श्रेय श्वार्ट्स चाइल्ड को है जो यह दिखाने में सफल रहे कि प्रेक्षणों के साथ रुद्धोष्म (adiabatic) संतुलन की अपेक्षा विकिरणात्मक संतुलन का अधिक तालमेल बैठता है। इस विचार के अनुसार अभ्यंतर से ऊर्जा का अभिगमन एक स्तर से दूसरे स्तर तक विकिरण द्वारा होता है।

संतुलन के लिए परिमंडल में एक निश्चित ताप वितरण आवश्यक है। यदि हम अनुमान कर लें कि ताप भीतर की ओर बढ़ता जाता है, तो अंगतमिश्रण की घटना को बड़ी सरलता से समझा जा सकता है। जैसे जैसे हम मंडलक केंद्र से अंग की ओर अग्रसर होते हैं, दृष्टिरेखा सतह के उस बिंदु पर अधिकाधिक झुक जाती है जहाँ वह सौर परिमंडल में प्रवेश करती है। फलस्वरूप उत्सर्जित तीव्रता में अंशदान करनेवाले स्तर की औसत गहराई घट जाती है। चूँकि ताप भीतर की ओर बढ़ता है अत: अगतमिस्रण उत्पन्न हो जाता है।

श्वार्ट्सचालइल्ड के विचारों से मूल समस्याओं को समझने में काफी सहायता मिली परंतु बोर (Bohr) के परमाणु सिद्धांत के विकसित होने तक और सतत अवशोषण एवं उत्सर्जन की प्रक्रिया समझा में आने तक वे विचार अस्पष्ट रहे। इस सिद्धांत के अनुसार संतत अवशोषण तभी होता है जब कि बद्ध इलेक्ट्रॉन प्रकाशिक आयनन (photoionnisation) द्वारा मुक्त होता और संतत उत्सर्जन तभी होता है जब मुक्त इलेक्ट्रॉन का ग्रहण (capture) आयन द्वारा होता है।

परमाणु सिद्धांत के विकास की दृष्टि से श्वार्ट्स चाइल्ड के अन्वेषण निरंतर चलते रहे। १९२० ई. में लुंडब्लैंड ने (Lundbland) ने यह सिद्ध किया कि श्वार्ट् सचाइल्ड की कल्पनाएँ (assumptions), जैसे (१) अवशोषण गुणाक तरंगदैर्ध्य से स्वतंत्र है तथा (२) प्रकीर्णन (scattering) नगण्य है, बहुत हद तक ठीक हैं। इन कल्पनाओं के आधार पर व्युत्पन्न संतत स्पेक्ट्रम में तीव्रता का वितण प्रेक्षणों से भली भाँति मेल खाता है। श्वार्ट्सचाइल्ड की कल्पनाओं के आधार पर ही कार्य कर मिल्न (Milne) द्वारा आगे विकास किया गया और स्वतंत्र रूप से वे उन्हीं परिणामों पर पहुँचे जिन पर लंडब्लैड पहुँचे थे। मिल्न ने एक अन्वेषण द्वारा, जिसे उन्होंने १९२३ ई. में प्रकाशित किया, संतत स्पेक्ट्रम के सिद्धांत का विस्तार समकालिक प्रकीर्णन और अवशोषण तक किया। संतत स्पेक्ट्रम के सिद्धांत में बनी कल्पनाओं की सार्थकता की जाँच तक ही भावी शोध सीमित था। ये कल्पनाएँ थीं : (१) परिमंडल समतल समांतर है, (२) यह विकिरणात्मक संतुलन में है, (३) उत्सर्जन गुणांक प्रत्येक स्थान पर किर्खहफ्रा प्लांक के संबंध द्वारा व्यक्त किया गया है अर्थात् In = Kn Bn (T), तथा (४) अवशोषण गुणांक आवृत्ति से स्वतंत्र है, केवल उन्हीं स्थितियों को छोड़कर जहाँ तीव्रता वितरण वक्रता से प्रभावित होता है। पहली कल्पना की वैधता अनेक स्थितियों में सही सिद्ध हुई, दूसरी कल्पना के संबंध में यह देखा गया कि यदि संवहन द्वारा ऊर्जा अभिगमन नगण्य न हो तो संभावित विचलन हो सकते हैं। अनसॉल्ड ने सूर्य में एक संवहनी (convective) क्षेत्र का पता लगाया है। नवीनतम खोजों से पता लगता है कि विकिरणात्मक संतुलन का सबसे ऊपरी स्तर के प्रेक्षण से जो विरोधाभास है, वह सौरतल के दानेदार होन के करण है। कम से कम अधिक गहरे स्तर में, जहाँ यह माना जा सकता है कि ऊष्मागतिकी संतुलन विद्यमान है, तीसरी कल्पना वैध होगी। चौथे अनुमान की वैधता का परीक्षण करने के लिए मक्रिया (Mecrea), बियरमैन, (Biermann), अनसाल्ड, (Unsold), पेनीकॉक (Pannekock) और अन्य लोगों द्वारा अवशोषण गुणांक के विस्तृत परिकलन किए गए। इन लोगों ने अपने परिकलन में रसेल द्वारा निर्धारित सूर्य के रासायनिक संगठन का उपयोग किया। इन परिकलनों का उपयोग विभिन्न प्रभावी तापों पर तीव्रता वितरण के वक्र बाने के लिए किया गया और अनेक वैज्ञानिकों ने सूर्य और तारों के सतत स्पेक्ट्रमों के प्रेक्षणों से इनकी तुलना की। इस तुलना से यह पता चला कि परमाणु हाइड्रोजन का प्रकाशिक आयनन ऊष्ण तारों में मुख्य रूप से भाग लेता है जब कि सूर्य और इसी प्रकार के अन्य तारों के लिए संतत अवशोषण का अन्य स्रोत होना चाहिए। १९३९ ई. में विल्ड्ट ने यह ज्ञात किया कि सौर किस्म के तारों में संतत अवशोषण का कारण ऋणात्मक हाइड्रोजन हो सकते हैं जिनमें एक प्रोटॉन और दो इलेक्ट्रान रहते हैं। इन आयनों के विन्यास (configuration) की स्थिरता आरंभ में ही स्थापित हो चुकी थी। यह शीघ्र ही मालूम हो गया कि संतत अवशोषण के स्रोत के रूप में ऋणात्मक हाइड्रोजन आयन की महत्ता १०,००० के नीचे बढ़ जाती है और ६,००० पर यह प्रबल हो जाती है। एक ओर चंद्रशेखर और दूसरी ओर चैर्लांग (Chalong) एवं कूर्गेनॉफ (Kourganoff) की खोजों से यह ज्ञात हो गया कि सौर मंडलक के अंगतमिस्रण (limbdarkening) के प्रेक्षण असाधारण रूप से सैद्धांतिक परिणामों के अनुरूप होते हैं, यदि ऋणात्मक हाइड्रोजन आयन के कारण होनेवाले अवशोषण को ध्यान में रखा जाए।

यद्यपि यह कहा जा सकता है कि तारों के संतत स्पेक्ट्रमों के बारे में हमें पर्याप्त जानकारी हो गई है, तथापि अभी बहुत सी समस्याओं का हल नहीं मिला है, उदाहरणार्थ, सूर्य का ४००० A के नीचे का संतत अवशोषण का स्रोत अभी भी अज्ञात है। इस संबंध में अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं, पर कोई भी संतोषजनक नहीं है।

अपेक्षाकृत ठंढे तारों में आण्विक यौगिक (molecular compound) प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं और उनका संतत अवशोषण अभी भी अज्ञात है। बम-विटेंस (Bohm-Vitense) ने हाल में ३८४० A से लेकर १,००,८०० A ताप के लिए अनुमानित रासायनिक संगठनवाले तारकीय द्रव्यों के संतत अवशोषण के गुणांकों की सारणी प्रस्तुत की है। हाइड्रोजन (H), हीलियम (He) और हीलियम+ (He+) के अवशोषण की सारणी भी बेनो (Veno) द्वारा प्रस्तुत की गई है।

५०० A पर के कुछ ऊष्ण तारों के स्पेक्ट्रम में होनेवाली असंतता और महादानवी (Super giant) तारों के संतत स्पेक्ट्रमों को अभी भी पूर्ण रूप से समझा नहीं जा सकता है। फिर भी हम यह कह सकते हैं कि इस शती के पूर्वार्ध में तारों के संतत स्पेक्ट्रम संबंधी ज्ञान में हुई प्रगति पर्याप्त संतोषजनक रही है।

तारकीय स्पेक्ट्रमों में अवशोषण रेखाएँ - तारकीय स्पेक्ट्रमों में अवशोषण रेखाओं की रचना के बारे में प्रारंभिक विचार बड़े सरल थे। प्रकाशमंडल को घेरे हुए ठंढा गैसीय मंडल, प्रकाशमंडल से संतत उत्सर्जित होनेवाले विकिरण का वरणात्मक अवशोषण करता है जिससे अवशोषण रेखाएँ बनती हैं। सर्वप्रथम शुस्टर ने तारकीय स्पेक्ट्रमों में अवशोषण रेखाओं का क्रमबद्ध सिद्धांत प्रस्तुत किया। इन्होंने इन रेखाओं के बनने का कारण संतत प्रकीर्णन पर आरोपित स्पेक्ट्रम रेखाओं के अवशोषण को बताया।

शुस्टर ने इन रेखाओं में तीव्रता की कमी के लिए कुछ परिकलन किए और उनकी जब प्रेक्षण से तुलना की तो यह ज्ञात हुआ कि समकालिक अवशोषण एवं प्रकीर्णन के विचार से शुस्टर की विधि सही थी। शुस्टर ने प्रकाशमंडल के चारों ओर शुद्ध प्रकीर्ण परिमंडल की कल्पना की।

शुस्टर के बाद श्वार्ट् सचाइल्ड ने इस दिशा में कार्य किया। इन्होंने विकिरणात्मक संतुलन के आधार पर स्पेक्ट्रम रेखाओं में उत्सर्जन फलनों को ज्ञात किया और सौर मंडलक में अनेक बिंदुओं पर बनी सौर अवशोषण रेखाओं के प्रेक्षणों से उनकी तुलना की।

इन्होंने यह पाया कि अवशोषण रेखाओं के बनने में प्रकीर्णन का महत्वपूर्ण योग है, क्योंकि इनके प्रेक्षणों को एक शुद्ध अवशोषित परिमंडल द्वारा नहीं समझाया जा सकता।

आधुनिक खगोलीय स्पेक्ट्रमिकी को प्रारंभ करने का श्रेय अनसल्ड को है, जिन्होंने सूर्य मंडलक के ऊपर पाई जानेवाली सोडियम रेखाओं की परिच्छेदिका क विशेष रूप से की गई प्रकाशमापीय मापों को श्वार्ट्सचाइल्ड द्वारा विकसित विकिरणात्मक (radiative) अंतरण (transfer) के सिद्धांत और रेखीय अवशोषण के क्वांटम सिद्धात से संबंध स्थापित करने का प्रयास किया और उसने सौर परिमंडल की इलेक्ट्रान दाब तथा कम से कम अंश: रासायनिक संघटन का पता लगाया। अनसल्ड के लेखों के पश्चात् इस दिशा में काफी तेजी से प्रगति हुई। १९२९ ई. में एडिंग्टन ने अवशोषण रेखाओं के निर्माण पर एक निबंध प्रकाशित किया जिसमें तारकीय अवशोषण रेखाओं के बनने की विधि का स्पष्टीकरण किया था। इसके अनुसार इन रेखाओं के बनने में प्रकीर्णन और अवशोषण का समान रूप से हाथ से हाथ रहता है। इस प्रकार परिमंडल के सभी स्तरों पर प्रकीर्णन और अवशोषण होता है। इन रेखाओं के बनने का कारण यह है कि रेखा के समीप अवशोषण बहुत अधिक होता है। आगामी वर्षों में एडिंग्टन के सिद्धांत का मिल्न, वुलि (Woolley), पेनीकॉक, अनसल्ड और चंद्रशेखर द्वारा सुधार और विस्तार किया गया।

इस प्रकार जब शुस्टर-श्वार्ट्सचाइल्ड के अनुसार रेखाओं का निर्माण प्रकाशमंडल के ऊपर स्थित उत्क्रमणमंडल (revensinglayer) में होता है, जो संतत स्पेक्ट्रम उत्पन्न करते हैं, मिल्नएडिंग्टन के अनुसार रेखीय अवशोषण के गुणांक और सतत अवशोषण के गुणांक का अनुपात सभी स्थानों पर स्थायी रहता है और सभी स्तर समान रूप से रेखिल और संतत अवशोषण उत्पन्न करने में समर्थ हैं। परंतु किसी रेखा की वास्तविक स्थिति दोनों चरम सीमाओं के बीच में होती है। उत्क्रमणमंडल और प्रकाशमंडल एक दूसरे में धीरे धीरे विलीन हो जाते हैं और प्रकाशमंडल की पहचान करनेवाला कारक अपारदर्शिता (opacity) क्रमिक वृद्धि है।

मिल्न ने फ्राउनहोफर रेखाओं के बनने की दो अवस्थाओं पर विचार किया। पहला विचार था कि रेखाओं का निर्माण स्थानीय ऊष्मागतिकीय संतुलन या अवशोषण प्रक्रम के अंतर्गत होता है। यहाँ प्रत्यक स्तर ताप द्वारा वर्णित किया जाता है और किर्खहॉफ़ के नियम का पालन होता है। इस दृष्टि से एक तीव्र रेखा के केंद्र से हुआ विकिरण सबसे ऊपरी स्तर के अनुरूप होता है क्योंकि इस तरंगदैर्ध्य पर रेखिल अवशोषण गुणांक अधिक होता है और विकिरण केवल तल से पहुँचता है। समीप के सातत्यक (Continuum) में विकिरण का अधिकांश अपेक्षाकृत गरम और निचले स्तरों सा आता है। सूर्य के छोर की ओर निर्गत विकिरण सातत्य और रेखाओं दोनों में सर्वोच्च स्तर से आता है। इसके परिणामस्वरूप रेखाओं को छोर पर लुप्त हो जाना चाहिए।

दूसरी अवस्था में परमाणु किसी भी दशा में विकिरण क्षेत्र के ताप संतुलन में नहीं है किंतु वे अधिक गहराई से अपने तक पहुँचनेवाले क्वांटा (Quanta) का वर्णात्मक प्रकीर्णन करते हैं। इस प्रकार एक विशिष्ट प्रकाश क्वांटम का तल तक पहुँचने का बहुत कम अवसर प्राप्त होता है। प्रकीर्णन की इस क्रियाविधि द्वारा बनी अवशोषणरेखा का केंद्र काला होगा।

फ्रॉउनहोफर की कोई रेखा न तो केंद्र में काली होती है और न छोर पर अदृश्य। निम्न केंद्रीय तीव्रतावाली अनुनाद रेखाएँ (reasonance lines) प्रकीर्णन की क्रियाविधि को बढ़ावा देती हैं जबकि उच्च स्तरवाली गौण (subordinate) रेखाएँ अवशोषणप्रक्रम को बढ़ावा देती हैं। अनसल्ड, पेनीका, मिनर्ट, स्ट्रमग्रेन और चंद्रशेखर ने सिद्धांत को और अधिक परिष्कृत किया। इनके कार्य मुख्य रूप से रेखिल विकिरण के अंतरण के समीकरण के हल और आदर्श परिस्थितियों से विचलन से संबंधित थे।

तारकीय स्पेक्ट्रमों में रेखाओं का विस्तार - तारकीय स्पेक्ट्रमों में अवशोषण रेखाएँ तीव्र फोक्स करने पर भी साधारणतया चौड़ी और अस्पष्ट दिखाई देती हैं। उनके चौड़ी होने के प्रधान कारण निम्नलिखित हैं :

(१)�� डॉप्लर प्रभाव, जो परमाणुओं के असंगत गतिज (kinetic) गतियों के कारण उत्पन्न होता है। इसमें कभी कभी विक्षोभ विस्तार (Turbulence broadening) को भी सम्मिलित किया जा सकता है, कुछ निश्चित किस्म के तारों में गैसों की अधिक मात्रा की उच्चस्तरीय गति के कारण होता है।

(२)�� विकिरण अवमंदन (Radiation damping) जो उत्तेजित स्तरों के परिमित जीवनकाल के कारण होता है।

(३)�� टक्कर अवमंदन (Collision damping) कभी कभी विकिरण परमाणु के साथ कुछ निकटवर्ती परमाणुओं, आयनों या इलेक्ट्रानों की टक्कर के फलस्वरूप चौड़ी रेखा बनती है।

(४)�� आयनों और इलेक्ट्रानों द्वारा उत्पन्न सांख्यिकीय उच्चावच क्षेत्र के कारण हाइड्रोजन हीलियम रेखाओं पर स्टार्क प्रभाव होता है।

(५)�� जेमीन प्रभाव - सूर्यकलंकों या चुंबकीय तारों में उत्पन्न रेखाएँ चुंबकीय क्षेत्र द्वारा चौड़ी या खंडित हो जाती हैं।

वृद्धि का वक्र - रेखाओं के निर्माण की क्रियाविधि और आवश्यक आँकड़े मिल जाने पर रेखा की समोच्च रेखा प्राप्त करना और उसका प्रेक्षणों से तुलना करना संभव है। ऐसी प्रक्रिया बहुधा बड़ी श्रमसाध्य होती है, यद्यपि इन रेखाओं से बहुमूल्य परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। परंतु दुर्बल रेखाओं का स्पेक्ट्रमलेखी से फोटोग्राफ लेन पर उनकी रूपरेखा बड़ी विकृत ज्ञात होती है, क्योंकि रेखा की यथार्थ रूपरेखा प्राप्त करने के लिए स्पेक्ट्रमलेखी की सीमित विभेदनक्षमता (resolving power) पर्याप्त नहीं होती। सौभाग्यवश एक अन्य भौतिक राशि है जिस रेखा की तुल्यांक चौड़ाई (Equivalent width of a line) कहते हैं और जो स्पेक्ट्रमलेखी की सीमित विभेदनक्षमता से प्रभावित नहीं होती। यह शून्य तीव्रतावाली आयताकार परिच्छेदिका (Rectangular profile) की चौड़ाई है जो उतनी ही संपूर्ण ऊर्जा का अवशोषण करती है जितनी वास्तविक परिच्छेदिका। खगोलीय स्पेक्ट्रमिकी के लिए एक रेखा की तुल्यांक चौड़ाई और रेखा को उत्पन्न करनेवाले परमाणुओं की संख्या के बीच एक क्रियात्मक संबंध प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार के संबंध को वृद्धि का वक्र कहते हैं। रेखा की तुल्यांक चौड़ाई (W) का सिद्धांतत: परिकलन भी किया जा सकता है। यदि एक ग्राफ पर Log (W) को Log N का फलन प्रदर्शित किया जाए (N = अवशोषण परमाणुओं की संख्या) तो वृद्धि का सैद्धांतिक वक्र प्राप्त होता है जिससे ज्ञात होता है कि किस प्रकार किसी रेखा की शक्ति अवशोषण परमाणुओं की संख्या के साथ-साथ बढ़ती जाती है। यथार्थत: इसमें Log Nf सम्मिलित है न कि Log N | यहाँ पर f दोलक की शक्ति है जो परमाणु की अभिरुचि प्रदर्शित करता है जब वह विशेष आवृत्ति के अवशोषण के लिए विवादस्पद मूल अवस्था में रहता है (परंपरा से fको एक पूर्ण संख्या होना चाहिए परंतु क्वांटम के यांत्रिक परिकलन से वह ज्ञात होता है कि fसन्निकटत: कोई पूर्ण संख्या भी नहीं है)।

वृद्धि का आनुभविक वक्र (Empirical curve) - किसी तत्व, चाहे वह उदासीन हो या आयनित, की सभी रेखाओं के तुल्यांक चौड़ाई के लघुगणक को उनके सापेक्ष्य f मानों के लघुगणक के विपरीत आलेखित करने से प्राप्त होता है। तारकीय परिमंडल के आवश्यक प्रचालों जैसे तत्वों की प्रचुरता और उत्तेजन ताप ज्ञात करने के लिए इस प्रकार के वक्र की सैद्धांतिक वक्र से तुलना की जाती है।

तारकीय स्पेक्ट्रमों का वर्गीकरण - लगभग सभी ५०,००० या इससे अधिक तारकीय स्पेक्ट्रमों को जिनका अध्ययन किया जा चुका है इन्हें इस प्रकार नियमित क्रम से व्यवस्थित किया गया है जिसमें उनके अनेक गुण धीरे धीरे बदलते हैं। ऐसे गुण, प्रभावी ताप, रंग, अवशोषणरेखाओं या पट्टियों की आपेक्षिक तीव्रता आदि हैं। स्पेक्ट्रम के वर्गीकरण की जितनी भी प्रणालियाँ प्रस्तावित की गई हैं उनमें ऐनी कैनन (Annie Cannon) द्वारा प्रस्तुत हार्वर्ड वर्गीकरण संतोषजनक रूप से स्वीकृत है। ये वर्ग है - शून्य (o), बी (B), ए (A), एफ (F), जी (G), के (K) और एम (M)। ऐसे अपेक्षाकृत कम तारे हैं जो मुख्य क्रम से के (K) पर शाखा बनाते हैं; वे एन (N), और यस (S) के नाम से जाने जाते हैं। प्रत्येक वर्ग का पुन: अंतर्विभाजन होता है जिसके लिए अक्षरों या ९ तक के अंकों का उपयोग किया जाता है। जिन तारों का स्पेक्ट्रम ज्ञात हो चुका है उनमें ९०% से अधिक ए (A), एफ (F), जी (G) और के (K) वर्ग के हैं।

वर्गo - इसमें ३०,००० A से अधिक प्रभावी तापवाले नीलेश्वेत तारे हैं जिनके स्पेक्ट्रम में चमकीले बैंड पाए जाते हैं। ये बैंड धुँधली संतत पृष्ठभूमि पर आरोपित हाइड्रोजन, आयनित हीलियम दुबारा और तिबारा आयनित और नाइट्रोजन के कारण हैं, जैसे टी प्यूपिस (T. Pupis), वाल्फ राये (Wolf Rayet) तारे (इनका वर्णन नीचे देखिए)।

वर्ग बी - इसमें लगभग २०,००० A ताप के श्वेत तारे है जिनके स्पेक्ट्रम में प्रबल हाइड्रोजन रेखाएँ होती हैं। हीलियम अनुपस्थित होता है। एच (H) और के (K) रेखाएँ कुछ-कुछ दिखाई देती हैं। वर्धित धात्विक रेखाएँ भी पाई जाती हैं परंतु वे दुर्बल होती हैं, जैसे लुब्धक (Sirius), अभिजित (Vega) तथा फोमलहॉट (Fomalhaut)।

वर्ग एफ - इसमें वे तारे हैं जिनका ताप लगभग ७,५०० A है और जिनके स्पेक्ट्रम में प्रबल एच (H) तथा के (K) रेखाएँ न्यून प्रबल हाइड्रोजन रेखाएँ और अधिक संख्याओं में सुस्पष्ट धात्विक रेखाएँ पाई जाती हैं, जैसे अगस्त्य (Canopus) तथा प्रोसियन (Procyon)।

वर्ग जी - ये सूर्य की किस्म के पीले तारे हैं जिनका प्रभावी ताप ६,००० A है। इनके स्पेक्ट्रम में प्रबल एच (H) तथा के (K) रेखाएँ और अनेक सूक्ष्म धात्विक रेखाएँ पाई जाती हैं, जैसे सूर्य, कैपेला (Capella) और a सेंटारी (a-Centauri)।

वर्ग के - ये नारंगी रग के तारे हैं जो जी और एम वर्ग के मध्य में होते हैं। इनका ताप लगभग ४,२०० A के होता है। इनके स्पेक्ट्रम में धातुओं की उदासीन रेखाएँ प्रबल और एच एवं के रेखाएँ भी बड़ी प्रबल होती है। हाइड्रोजन रेखाएँ अपेक्षाकृत निर्बल होती हैं। संतत स्पेक्ट्रम की चमक बैंगनी में शीघ्रता से कम हो जाती है, जैसे सूर्यकलंक, स्वाती (Arcturus)।

वर्ग एम - लगभग ३,००० A ताप के ये लाल तारे हैं। इनके स्पेक्ट्रम के (K) तारों के स्पेक्ट्रम के समान ही होते हैं पर अंतर केवल इतना ही है कि इनमें टाईटेनियम ऑक्साइड के सुस्पष्ट बैंड पाए जाते हैं, जैसे ज्येष्ठा (Antares), आर्द्रा (Betelgeuse)।

वर्ग एन - ये लाल तारे हैं जिनका ताप लगभग ३,००० A होता है। इन्हें कार्बन तारे भी कहते हैं। संतत स्पेक्ट्रम पर, जो बैंगनी में बहुत दुर्बल होता है, आणविक कार्बन के कारण काले हंस बैंड (dark Swan bands) अध्यारोपित रहते हैं, जैसे वाई कैनम (Y-Canum), बैनाटिकी रम, (19 Pisces)।

वर्ग आर - इस किस्म के तारों के स्पेक्ट्रम में एन वर्ग के तारों की भाँति ही बैंड होते हैं परंतु स्पेक्ट्रम बैंगनी तक फैला रहता है। ये तारे बड़े धुँधले हैं और कुछ ही ज्ञात हैं।

वर्ग एस - इन तारों के स्पेक्ट्रम एम (M) वर्ग के समान होते हैं। अंतर यही है कि टाईटेनियम ऑक्साइड के स्थान पर जरकोनियम ऑक्साइड के बैंड रहते हैं। इन तारों की संख्या बहुत थोड़ी है और ये बड़े धुँधले होते हैं।

वोल्फ राये तारे - १८६७ ई. में पैरिस वेधशाला के वोल्फ और राये ने एक चाक्षुष स्पेक्ट्रमलेखी की सहायता से सिग्नस (Cygnus) के बड़े तारामेध में तीन बड़े असाधारण तारकीय स्पेक्ट्रमों का पता लगाया। अन्य स्पेक्ट्रमों से ये स्पेक्ट्रम इस बात में भिन्न थे कि इनमें चौड़े उत्सर्जन बैंड थे। कुछ बैंड अभी तक पहचाने नहीं गए थे। प्रत्येक बैंड दोनों ओर समान रूप से धुँधला होता गया था। उसमें रेखाएँ नहीं थीं और सभी बैंड धुँधले संतत स्पेक्ट्रम पर अध्यारोपित थे। इनपर हाइड्रोजन और आयनित हीलियम की चमकीली रेखाएँ थीं। अभी तक इस किस्म के लगभग १०० तारों का आकाशगंगा (milky way) और मैलैनीय मेघों (Magelleanic clouds) में पता लगा है। वोल्फ राये तारे शून्य वर्ग में निचली श्रेणी के अंतर्गत आते है और ज्ञात तारों में उष्णतम हैं। इन तारों का ताप १,००,००० A क्रम का है।

अनेक एम तारों के स्पेक्ट्रमों में संतत स्पेक्ट्रम पर दूसरी काली रेखाओं के मध्य में चमकीली हाइड्रोजन रेखाएँ दिखाई देती हैं। इन तारों को उत्सर्जन तारे कहते हैं और इन्हें एम ई (Me) से प्रकट करते हैं। एम-ई तारों की चमक परिवर्ती (Variable) होती है।

उपर्युक्त स्पेक्ट्रम वर्गों के अतिरिक्त दो और वर्ग हैं जिन्हें पी (P) और क्यू (Q) अक्षरों से प्रकट करते हैं। गैसीय नीहारिकाओं (Nebulae) के स्पेक्ट्रमों को, जिनमें चमकीली रेखाएँ पाई जाती हैं, पी (P) वर्ग में तथा नवताराओं (Nova) के स्पेक्ट्रमों को क्यू (Q) वर्ग में रखते हैं।

नवताराओं के स्पेक्ट्रम और पी सिगनी (P-cygani) किस्म के तारों में प्राय: दोहरी रेखाएँ दिखाई पड़ती हैं जिनमें एक चौड़ा उत्सर्जक घटक (Component) और एक तीव्र अवशोषण घटक होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये तारे शीघ्रता से बढ़ती हुई पट्टिका या खोल (Shell) द्वारा घिरे रहते हैं। कुछ बी (B) किस्म के तारे भी हैं जिनमें ऐसी उत्सर्जन रेखाएँ पाई जाती हैं जिनमें से प्रत्येक एक अवशोषणरेखा द्वारा खंडित रहती है। यह तारों के चारों ओर घूर्णी गैसीय खोल (Shell) के कारण होता है। उत्सर्जन रेखाएँ खोल (Shell) द्वारा उत्पन्न होती हैं और अपने विभिन्न भागों के डॉपलर विस्थापन (Shift) द्वारा चौड़ी की जाती हैं। केंद्रीय धुंधली रेखा की उत्पत्ति खोल के उस भाग से होती है जो तारे और तारे के विकिरण का अवशोषण करनेवाले प्रेक्षक की दृष्टिरेखा के आर पार घूमता है। यह आवृत्ति इस स्पेक्ट्रम की अपनी विशेषता है।

नोहारिकाओं के स्पेक्ट्रम - अनेक नीहारिकाओं में ऐसे स्पेक्ट्रम होते हैं। जिनमें चमकीली रेखाएँ होती हैं। उनमें सबसे प्रबल दोहरे और तेहरे आयनित आक्सीजन की वर्जित रेखाएँ हैं और उन्हें प्रकाशमान् गैसों का मेघ कहते हैं। अन्य नीहारिकाओं के स्पेक्ट्रम निकटवर्ती तारों के स्पेक्ट्रम के समान होते हैं और वे तारों के परावर्तित प्रकाश द्वारा चमकते हैं। फिर भी अन्य नीहारिकाओं, जैसे परागांगेय नीहारिकाओं (Extragalactic nebula) में काली रेखा के स्पेक्ट्रम पाए जाते हैं, जैसा अनेक तारों के मिश्रित प्रकाश से आशा की जाती है।

प्राचल (Parameter) के ताप से घनिष्ट रूप से संबंधित हार्वर्ड के स्पेक्ट्रम वर्गीकरण के तारों की वास्तविक ज्योति पर आधारित एक दूसरा वर्गीकरण भी है जिसका नामकरण I, II, III, IV, V के नाम से यॉर्क्स वेधशाला के कीनन और मॉर्गेन द्वारा स्वतंत्र रूप से किया गया है। वास्तविक ज्योतियाँ निरपेक्ष तारकीय कांतिमान (Absolute steller magnitude) के रूप में व्यक्त की जाती हैं। तारों का कांतिमान वही है जो मानक दूरी, १० पारसेक्स (३२.६ प्रकाश वर्ष =१०१४ मील) पर होता है। उदाहरणस्वरूप वर्ग एक के तारों का निरपेक्ष कांतिमान (Absolute magnitude) - ५ के क्रम का और वर्ग पाँच के तारों का + ५ क्रम का होता है। अंतिम मान सूर्य की नैज चमक के अनुरूप और पहला मान १०,००० गुना अधिक चमकदार होता है।

तारकीय स्पेक्ट्रमों की व्याख्या - किसी अवशोषण रेखा की तीव्रता परमाणुओं की उस संख्या पर निर्भर करती है जो रेखा का अवशोषण करने में समर्थ है। रेखा की तीव्रता जानने के लिए हमें किसी तत्व के सभी परमाणुओं का ज्ञान होना चाहिए तथा यह भी ज्ञान होना चाहिए कि उसका कितना भाग किसी विशेष रेखा का अवशोषण करने में समर्थ है। बोल्ट्समैन (Boltzmann) के सूत्र (जो ऊष्मागतिक संतुलन को मान लेने पर ही वैध है) से किसी स्तर में परमाणुओं की संख्या और क्षेत्र (ground) में उनकी संख्या का अनुपात स्तर के ताप और उद्दीपन विभव के फलन के रूप में प्राप्त होता है। १९२०-२१ ई. में साहा ने क्रमबद्ध निबंधों में एक या अधिक बार आयनित परमाणुओं का विभिन्न अचर दशाओं में विकिरण के सुलझाने का प्रथम बार प्रयास किया। साहा ने सिद्धांत रूप से गैसों के आयनन और उद्दीपन को ताप और दबाव के फलन के रूप में ज्ञात किया। उन्होंने व्यक्त किया कि विभिन्न स्पेक्ट्रमी वर्गों के तारों के अवशोषणरेखाओं के स्पेक्ट्रमों में अंतर का मुख्य कारण परिमंडल के ताप में अंतर है। साहा के आयनन समीकरण की परिशुद्ध व्युत्पत्ति आर. एच. फाउलर द्वारा प्रस्तुत की गई जिन्होंने मिल्न के संग स्पेक्ट्रम वर्ग के साथ रेखाशाक्ति के परिवर्तन सिद्धांत को विकसित किया जिससे कई पक्षों में साहा के प्रारंभिक कार्यों में महत्वपूर्ण सुधार प्रस्तुत हुआ। इस सिद्धांत को सहायता से किसी तत्व की सभी अचर दशाओं में परमाणुओं के वितरण को ताप और इलेक्ट्रान के दबाव के फलन के रूप में ज्ञात किया जा सकता है।

इस प्रकार उष्णतम तारों में धात्विक रेखाएँ नहीं प्रकट होतीं, क्योंकि उच्च ताप पर धातुएँ दोहरी और तेहरी आयनित हो जाती हैं और इन आयनित परमाणुओं की रेखाएँ पाराबैंगनी क्षेत्र में दूरी पर स्थित होती हैं। ठंढे तारों में कोई हीलियम रेखा नहीं दिखाई देती क्योंकि रेखाओं को उत्तेजित करने के लिए ताप पर्याप्त नहीं होता है।

फिर यदि हम लगभग समान ताप के दानव (giant) और वामन (Dwart) तारों के स्पेक्ट्रमों की तुलना करें तो हमें कुछ अंतर मिलते हैं जिनकी व्याख्या तारों के परिमंडलों के घनत्वों के अंतर से की जा सकती है। दानव तारों का परिमंडल विरलित और विस्तृत होता है जबकि वामन तारों का परिमंडल हल्का और संपीडित होता है। एक ही ताप के दानव और वामन तारों के स्पेक्ट्रमों में एक ही तत्व के आयनित और उदासीन परमाणुओं की रेखाओं की तुलना करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि उदासीन परमाणुओं की रेखाएँ दानव की अपेक्षा वामन में तो अधिक प्रबल होती हैं जब कि आयनित परमाणुओं की रेखाएँ दानव तारे में प्रबल होती हैं। इस प्रकार एक निर्दिष्ट ताप के दानव तारे का स्पेक्ट्रम कुछ उच्च ताप के वामन तारे के लगभग अनुरूप होता है। वामन तारे का उच्च ताप कुछ हद तक दानव तारे के परिमंडल में न्यून घनत्व का पूरक है।

तारों का रासायनिक संघटन - १९२७ ई. में रसेल ने रोलैंड तीव्रताओं (Rowland intensities) के अंशशोधन (Calibration) द्वारा सूर्य के रासायनिक संघटन को ज्ञात करने का प्रयास किया। पेनेगेपोश्किन ने, जिन्होंने हार्वर्ड वेधशाला के लिए गए वस्तुनिष्ठ प्रिज़्म प्लेट पर साहा के आयनित सिद्धांत और रेखा तीव्रता के दृष्टि अनुमान (eye estimation) का उपयोग किया, यह प्रदर्शित किया कि अधिकांश तारों का रासायनिक संघटन मुख्यत: सूर्य जैसा ही है। उसी समय से परिच्छेदिक (Profile) और वृद्धि के वक्र पर आधारित परिमाणात्मक प्रक्रिया ने रेखातीव्रता और सक्रिय परमाणुओं की संख्या के बीच के संबंधों के गुणात्मक विचारों का स्थान ग्रहण कर लिया। इन दोनों उपगमनों में रेखानिर्माण के निश्चित सिद्धांत निहित हैं। धातुओं की आपेक्षिक प्रचुरता का ज्ञान उतना ही यथार्थ हो सकता है जितना यथार्थ ज्ञान उनके f के मानों का (f-values) है और हाइड्रोजन के अनुपात का ज्ञान सूर्य जैसे तारों के लिए भी प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि सतत अवशोषण के रूप में ऋणात्मक हाइड्रोजन आयन ही उत्तरदायी है।

हाइड्रोजन और हीलियम की तुलना में ऑक्सीजन समूह, कार्बन, नाइट्रोजन और निऑन इत्यादि की प्रचुरता का ज्ञान उष्ण तारों के आँकड़ों से भी प्राप्त हो सकता है। इन तारों के स्पेक्ट्रमों से, जिनमें हल्के तत्वों की रेखाओं की प्रचुरता होती है, हल्के तत्वों की प्रचुरता भी निर्धारित की जा सकती है।

विश्लेषणों से ज्ञात हुआ कि अधिकांश तारों का संघटन एक सा ही है। अन्य तारों का संघटन भिन्न है। एम (M) वर्ग के तारों में कार्बन की अपेक्षा ऑक्सीजन प्रचुर मात्रा में है जब कि आर (R) और एन (N) वर्ग के तारों में ऑक्सीजन की अपेक्षा कार्बन प्रचुर मात्रा में है। एस (S) वर्ग में जिरकोनिय ऑक्साइड की पट्टियों की प्रमुखता है जबकि एम (M) तारों में टाये (Tio) पट्टियाँ प्रबल हैं। उच्च तापवाले वोल्फ राये तारों के एक वर्ग की विशिष्टता हीलियम कार्बन एव ऑक्सीजन रेखाओं के कारण है और दूसरे वर्ग में हीलियम तथा नाइट्रोजन प्रमुख रूप से पाए जाते हैं परंतु कार्बन निर्बल है। ग्रहीय नीहारिकाएँ और नवतारों का संघटन साधारण तारों के समान ही है।

असामान्य संघटन के पदार्थों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए विस्तृत खोज की आवश्यकता है। कुछ तारों का संघटन क्यों असाधारण है, विशेषत: जहाँ कार्बन, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन संबंधित हैं? ऐसे प्रश्नों का उत्तर ब्रह्मांडोत्पत्तिक संबंधी अभिरुचि का है।

(ए. एस. आर. तथा जे. वी. एन.)