स्कंदगुप्त गुप्त सम्राटों का उत्कर्षकाल ई. स. ३५०-४६७ ई. तक माना जाता है। इसी युग का अंतिम सम्राट् स्कंदगुप्त था। इस नरेश के स्तंभलेख घोषित करते हैं कि स्कंदगुप्त कुमारगुप्त का पुत्र तथा राज्य का उत्तराधिकारी था। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकार का विषय विद्वानों के लिए विवाद की वार्ता हो गया है। इसका मुख्य कारण भीतरी राजमुद्रा में वर्णित पुरुगुप्त का नामोल्लेख समझा जाता है जो कुमार गुप्त का पुत्र कहा गया है। अतएव प्रश्न सामने आता है कि कुमारगुप्त के दोनों पुत्रों, स्कंदगुप्त तथा पुरुगुप्त, में सर्वप्रथम कौन शासक हुआ।

इस विवाद के निर्णय से पूर्व स्कंदगुप्त के अभिलेख तथा सिर्क्कों के अध्ययन से इस सम्राट् का शासनकाल निश्चित करना युक्तिसंगत होगा। स्कंदगुप्त के छह लेख भिन्न भिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं जिनमें कुछ पर गुप्त संवत् (सं. ३१९ ई.) में तिथि का उल्लेख मिलता है। जूनागढ़ (काठियावाड़ से प्राप्त) लेख की तिथि गु. सं. १३६ है तथा गढ़वा (प्रयाग के समीप) अभिलेख में १४८ अंकित है। इनके आधार पर स्कंदगुप्त का शासन सन् ४५५ से लेकर सन् ४६७ पर्यंत निश्चित हो जाता है। कुमारगुप्त की रजतमुद्रा पर १३६ तिथि अंकित मिली है, जिससे स्पष्ट है कि सन् ४५५ में स्कंदगुप्त सिंहासन पर बैठा। कुमारगुप्त के पुत्रों में स्कंदगुप्त सर्वपराक्रमी तथा योग्य व्यक्ति था जो शासन की बागडोर लेकर सुचारु रूप से कार्य करने में दक्ष सिद्ध हुआ। जूनागढ़ की प्रशस्ति उपर्युक्त कथन की पुष्टि करता है। इसकी स्वर्णमुद्रा पर राजा तथा एक देवी के चित्र अंकित हैं जिसमें देवी राजा को कुछ भेंट कर रही है।

कुछ विद्वान् स्कंदगुप्त को गुप्त-राज्य-सिंहासन का उचित अधिकारी नहीं मानते किंतु यह व्यक्त करते हैं कि उसने अपने पराक्रम द्वारा पुरुगुप्त को हटाकर सिंहासन पर अधिकार जमा लिया। भीतरी स्तंभलेख पर एक श्लोक मिलता है जिससे पुरुगुप्त तथा स्कंदगुप्त के मध्य दायाधिकार के निमित्त युद्ध का अनुमान लगाया जाता है। ''पितरि दिवमुपेते विप्लुतां वंशलक्ष्मीं भुजबलविजितारियं: प्रतिष्ठाप्य भूय:।'' पिता की मृत्यु के पश्चात् स्कंदगुप्त ने चंचल वंशलक्ष्मी को अपने भुजबल से पुन: प्रतिष्ठित किया था। इसी आधार पर दायाधिकार के युद्ध की पुष्टि की जाती है। परंतु उसी भीतरी स्तंभलेख में पुष्यमित्रों का उल्लेख है। वे ही बाहरी शत्रु थे जिन्हें स्कंदगुप्त ने पराजित किया। वंशलक्ष्मी को चंचल करनेवाला राजघराने का कोई व्यक्ति नहीं था। कालीघाट से प्राप्त स्वर्णमुद्राओं तथा स्कंदगुप्त द्वारा प्रचलित सोने के सिक्कों की माप, तोल, धातु तथा शैली के तुलनात्मक अध्ययन से गुप्त साम्राज्य के बँटवारे का भी सिद्धांत उपस्थित किया जाता है। स्कंदगुप्त मगध का राजा तथा पुरुगुप्त पूर्वी बंगाल का शासक माना जाता है। विवाद का निष्कर्ष यह है कि न तो गृहयुद्ध और न साम्राज्य का बँटवारा हुआ था। स्कंदगुप्त गौरव के साथ काठियावाड़ से बंगालपर्यंत शासन करता रहा।

स्कंदगुप्त केवल योद्धा तथा पराक्रमी विजेता ही नहीं था अपितु योग्य शासक भी था। सुशासन के लिए चक्रपालित की नियुक्ति तथा प्रजा की समृद्धि के निमित्त सुदर्शन कासार के जीर्णोद्वार का विवरण जूनागढ़ अभिलेख में पाया जाता है। इस सम्राट् के लौकिक तथा लोकोपकारित के गुणों का वर्णन अनेक लेखों में निहित है। परमभागवत की उपाधि, सिक्कों पर लक्ष्मी की आकृति तथा विष्णुप्रतिमा की स्थापना स्कंदगुप्त को वैष्णव मतानुयायी सिद्ध करती है। सम्राट् में धार्मिक सहिष्णुता की भावना भी पूर्ण मात्रा में विद्यमान थी। अंतर्वेदी में सूर्यपूजा तथा जैन तीर्थकरों की मूर्तिस्थापना की घटनाएँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। गुप्तवंश के इतिहास में स्कंदगुप्त का स्थान महत्वपूर्ण है। उसने साम्राज्य को दृढ़ कर स्कंद (स्वामी कार्तिकेय) नाम को चरितार्थ किया। (वासुदेव उपाध्या)