सौरपुराण की गिनती उपपुराणों में होती है, सूतसंहिता में (सन् १४ सौ के पूर्व) स्थित क्रम के अनुसार यह सोलहवाँ उपपुराण है। किसी किसी का मत है कि सांब, भास्कर, आदित्य, भानव और सौरपुराण एक ही ग्रंथ हैं केवल नाम भिन्न भिन्न हैं, परंतु यह कथन गलत है, क्योंकि देवी भागवत ने आदित्यपुराण से पृथक् सौर को गिना है (स्कं. १, ३, १५) एवं सूत्रसंहिता ने सांबपुराण से भिन्न सौरपुराण गिना हैं, भास्कर और भानव ये दो पाठभेद भार्गव और भानव के स्थान में पाए जाते हैं। अत: सौरपुराण के साथ उनको एकरूप कहना गलत है, कदाचित् ये उपपुराण होने पर भी संप्रति उपलब्ध नहीं है, एवं प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों में इनका उल्लेख नहीं है।

सौरपुराण पूना की आनंदाश्रम संस्था द्वारा संभवत: दाक्षिणात्य नौ प्रतियों से मुद्रित उपलब्ध है, उत्तरीय प्रतियों के पाठ भिन्न हो सकते हैं।

इस पुराण में अध्याय ६९ तथा श्लोक संख्या ३,७९९ है, सौरपुराण अपने को ब्रह्मांडपुराण का 'खिल' अर्थात् उपपुराण कहता है एवं सनत्कुमारसंहिता और सौरीसंहिता रूप दो भेदों से युक्त मानता है (९। १३-१४)। इस समय सौरीसंहिता को ही सौरपुराण कहते हैं और सनत्कुमारसंहिता को सनत्कुमारपुराण नाम से उपपुराणों में प्रथम गिनते हैं।

सौरपुराण नाम से इसमें सूर्य का ज्ञान विज्ञान होगा, ऐसा भ्रम होता है परंतु यह एक शिवविषयक उपपुराण है, केवल सूर्य ने मन से कहा है। अत: अन्य पुराणों के समान इसको सौरपुराण कहते हैं। नैमिषारण्य में ईश्वरप्रीत्यर्थ दीर्घसत्र करनेवाले शौनकादिक ऋषियों के सम्मुख व्यास द्वारा प्राप्त यह पुराण सूत ने कहा है (१,२-५)। यह उपपुराण होने पर भी पुराण के 'सर्गश्च प्रतिसर्गश्च' आदि लक्षण इसमें पाए जाते हैं, (अ. २१-२३,२६,२८,३०-३१,३३)।

इस पुराण में ३९-४० अध्यायों में द्वैतमतस्थापक मध्वाचार्य का (सन् ११९३) वर्णन विस्तार से आया है, वे अध्याय यदि प्रक्षिप्त न हों तो इस पुराण का प्रणयन नए विचार से दक्षिण देश में सन् १२०० में हुआ, यह कह सकते हैं। चौथे अध्याय में आया हुआ कलियुग का वर्णन भी इस कल्पना का पोषक है।

इस पुराण का प्रारंभ इस प्रकार है - सूर्यपुत्र मनु कामिका वन में यज्ञ करनेवाले प्रतर्दन राजा के यज्ञ में गया, वहाँ तत्व का विचार करनेवाले परंतु निर्णय करने में असमर्थ ऋषियों के साथ आकाशवाणी द्वारा प्रवृत्त होकर सूर्य के द्वादशादित्य नामक स्थान में जाकर सूर्यदर्शन के निमित्त तप करने लगा, हजार वर्षों के अनंतर सूर्य ने दर्शन दिए और सौरपुराण सुनाया (१,१९-४५)।

इसमें विशेष विषय ये हैं-

सुद्युम्न (१), प्रह्लाद (२९-३०), त्रिपुर (३४-३५), उपमन्यु (३६) आदि के चरित्र पढ़ने योग्य हैं। वाराणसी, गंगा, विश्वेश्वर आदि का वर्णन भी (४-८) सुंदर है। योगों के अनेक अंगों का (१२-१३) एवं अनेक दानों का (९-१०) वर्णन देखने योग्य है। अनेक कृष्णाष्टम्यादिव्रत, वर्णभेद, श्राद्ध, वानप्रस्थ, संन्यासधर्म भी वर्णित हैं (१४-२०)। शिवपूजादि (४२,४४), पाशुपत (४५), पार्वती की उत्पत्ति एवं तारकासुरवध (४९-६३) आदि का वर्णन रोचक ढंग से हुआ है। शिवभक्ति (६४), उज्जयिनीस्थ महाकाल आदि का वर्णन (६४), पंचाक्षरमंत्रमहिमा (६५) भी द्रष्टव्य हैं। धर्मशास्त्रीय उपयुक्त निर्णय - तिथि, (५७, ६८), संक्रांति (५१), प्रायश्चित्त (५२), उमामहेश्वर व्रत (४३), पुण्य और वर्ज्यदेश (१७), श्राद्ध (१९) आदि विचारणीय हैं।

शिव और विष्णुभक्तों में अपने अपने उपास्य देवता को लेकर जो उग्र विरोध था उसको मिटाने के लिए एवं समाज में सामंजस्य स्थापन के लिए शिवश् और विष्णु में भेद देखना बड़े पाप का कारण बताया है (२९)। ((स्व.) अनत शास्त्री फड़के)