सौदा, मिर्जा मुहम्मद रफीअ इनके पिता मुहम्मद शफीअ व्यापार के लिए काबुल से दिल्ली आए और यहीं विवाह कर बस गए। सन् १७११ ई. में यहीं सौदा का जन्म हुआ और यहीं शिक्षा पाई। पिता के धन के समाप्त होने पर सेना में नौकरी की, पर उसे छोड़ दिया। कविता करने की ओर रुचि पहले ही से थी। पहले फारसी में शेर कहने लगे और फिर उर्दू में। यह शाह हातिम के शिष्य थे। बादशाह शाहआलम इनसे अपनी कविता का संशोधन कराते थे। दिल्ली की दुरवस्था बढ़ने पर यह पहले फर्रुखाबाद गए और वहाँ कई वर्ष रहने के अनंतर यह सन् १७७१ ई. में नवाब शुजाउद्दौला के दरबार में फैजाबाद पहुँचे। नवाब आसफुद्दौला ने इन्हें मलिकुशुअरा की पदवी तथा अच्छी वृत्ति दी, जिससे अंतिम दिनों में सुखपूर्वक रहते हुए सन् १७८१ में इनकी लखनऊ में मृत्यु हुई।
उर्दू काव्यक्षेत्र में सौदा का स्थान बहुत ऊँचा है क्योंकि यह उन कवियों में से हैं, जिन्होंने उर्दू भाषा का खूब प्रसार किया और उसे इस योग्य बनाया कि उसमें हर प्रकार की बातें कही जा सकें। इन्होंने हर प्रकार की कविताएँ - गजल, मर्सिया, मुखम्मस, कसीदा हजो आदि रचकर उसके भांडार को संपन्न किया। इनमें कसीदा तथा हजों में सौदा के समकक्ष कोई अन्य कवि नहीं हुआ। कसीदे में इनकी कल्पना की उड़ान तथा शब्दों के नियोजन के साथ ऐसा प्रवाह है कि पढ़ने ही में आनंद आता है। अपनी हजोओं में समय की अवस्था तथा लोगों के वर्णन में अत्यंत विनोदपूर्ण व्यंग्य किए हैं।
इनकी कविता में केवल मुसलमानी संस्कृति ही नहीं झलकती प्रत्युत हिंदुस्तान के रीति रिवाज, देवताओं के नाम, उनकी लीलाओं के उल्लेख यत्र तत्र बराबर मिलते हैं। सौदा ने फारसी शब्दों के साथ हिंदी शब्दों का प्रयोग ऐसी सुंदरता से किया है कि इनकी कविता की भाषा में अनोखापन आ गया है। इनका भाषा पर ऐसा अधिकार है कि यह हर प्रकार के प्रसंग का बड़ी सुंदरता से वर्णन कर देते हैं। इनकी समग्र कविता 'कुल्लियाते सौदा' के नाम से प्रकाशित हो चुकी है, जिसमें गजल, कसीदे, हजो सभी संकलित हैं। (रजिया सज्जाद)