सोयाबीन (Soybean) लेग्युमिनोसी (Leguminosae) कुल का पौधा है। यह दक्षिण पूर्वी एशिया का देशज कहा जाता है। हजारों वर्षों से यह चीन में उगाया जा रहा है। आज संसार के अनेक देशों, रूस, मंचूरिया, अमरीका, अफ्रीका, फ्रांस, इटली, भारत, कोरिया, इंडोनेशिया और मलाया द्वीपों में यह उगाया जा रहा है। अमरीका में मक्का के बाद इसी फसल का स्थान है। अमरीका के प्रति एकड़ २,००० पाउंड उपज होती है, जब कि भारत में प्रति एकड़ ३,००० पाउंड तक उगाया गया है तथा और अधिक देखभाल से ४,००० पाउंड तक उगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के पंतनगर के कृषि विश्वविद्यालय में और जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में इसपर विशेष शोध कार्य हो रहा है।
प्राचीनकाल में चीन में खाद्य के रूप में और औषधों में इसका व्यवहार होता था। आज यह पशुओं के चारे के रूप में, मानव आहार और अनेक उद्योगों में काम आता है। इसकी खेती और उपयोगिता दिन दिन बढ़ रही है। एक समय इसका महत्व चारे के रूप में ही था पर आज मानव खाद्य के रूप में भी इसका महत्व बहुत बढ़ गया है। एक पाउंड सोयाबीन से इसका एक गैलन दूध बनाया जा सकता है। इसमें एक प्रकार की महक होती है जो कुछ लोगों को पसंद नहीं है, पर इस महक के हटाने का प्रयत्न हो रहा है। सोयाबीन में मांस की अपेक्षा प्रोटीन, दूध की अपेक्षा अधिक कैल्सियम तथा अंडे की अपेक्षा वसावाला लेसिथिन रहता है। इससे प्राप्त लेसिथिन का उपयोग मिठाइयों, पावरोटी और ओषधियों में हो रहा है। इसमें अनेक विटामिन, खनिज लवण और अम्ल भी पर्याप्त मात्रा में रहते हैं। इसकी दाल बड़ी स्वादिष्ट और पुष्टिकर होती है। इसकी हरी फली की साग सब्जियाँ बनती हैं।
सोयाबीन में १८ से २० प्रतिशत तेल रहता है। इस तेल में ८४ से ८७ प्रतिशत तक असंतृप्त ग्लिसराइड रहता है। अत: इसकी गणना सूखनेवाले तेलों में होती है और पेंटों के निर्माण में उपयुक्त होता है। फुलर मिट्टी द्वारा विरंजन तथा माप द्वारा, निर्गंधीकरण के बाद, यह तेल खाने के योग्य हो जाता है। तब इसके मारगरीन और वनस्पति तैयार हो सकते हैं। भारत में भी अमरीका से आया यह तेल, मूँगफली के तेल के स्थान पर वनस्पति के निर्माण में इस्तेमाल होता है। तेल का सर्वाधिक उत्पादन आज अमरीका, जर्मनी तथा मंचूरिया में होता है।
बीज से तेल निकालने पर जो खली बच जाती है उसमें प्रोटीन प्रचुर मात्रा में रहता है। यह सूअरों, मुर्गों और अन्य पशुओं के आहार के रूप में बहुमूल्य सिद्ध हुई है। पालतू मधुमक्खियों को भी यह खिलाई जा सकती है। बीज से आटा भी बनाया गया है। इस आटे की रोटियाँ, और मिठाइयाँ स्वादिष्ट और पुष्टिकर होती हैं। आटे का उपयोग पेंट, अग्निशामक द्रव और औषधियाँ बनाने में होता है। इससे कोर्टोसोम (Cortosom) नामक औषधि भी बनाई जाती है। इसकी सहायता से सुप्रसिद्ध औषधि 'स्ट्रप्टोमाइसिन' बनाई जाती है। आटे का कागज पर लेप चढ़ाने तथा वस्त्रों के सज्जीकरण में भी उपयोग हुआ है। यह प्रमेह, अम्लोपचय (acidosis) तथा पेट की अन्य गड़बड़ियों में लाभप्रद बताया गया है।
सोयाबीन उन सभी मिट्टियों में अच्छा उपजता है जहाँ मक्का उपजता है। मक्के के लिए अच्छे किस्म की मिट्टी और जलवायु आवश्यक होती है। दुमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है। इसके खेतों में पानी जमा नहीं रहना चाहिए। सामान्य मिट्टी में भी यह उपज सकता है यदि उसमें चूना और उर्वरक डाले गए हों। इसके पौधों की जड़ों में गुटिकाएँ (nodules) होती हैं जिनमें वायु के नाइट्रोजन का मिट्टी में स्थिरीकरण का गुण होता है। अत: इसके खेतों में अधिक नाइट्रोजन खाद की आवश्यकता नहीं होती। इसके खेतों में घासपात नहीं रहना चाहिए। जुलाई मास में ड्रिल द्वारा बीज बोए जाते हैं और चार मास में फसल तैयार हो जाती है। इसके खेत में फिर गेहूँ, आलू, और मूँगफली आदि की अन्य फसलें उगाई जा सकती हैं।
सोयाबीन सैकड़ों प्रकार का होता है। संकरण से और भी अनेक प्रकार के पौधे उगाए गए हैं। इसके पौधे दो से साढ़े तीन फुट ऊँचे होते हैं। इसके डंठल, पत्ते और फलियों पर छोटे छोटे महीन भूरे या धूसर रोएँ होते हैं। इसका फूल सफेद या नीलारुण (purple) होता है। फलियाँ हल्के भूरे या काले रंग की होती हैं। फलियों में दो से छह तक गोल या अंडाकार दाने होते हैं। दाने पीले, हरे, भूरे काले या चितीदार हो सकते हैं। पीले बीजवाले सोयाबीन में तेल की मात्रा सर्वाधिक होती है। पौधे और बीज की प्रकृति मिट्टी, उपजाने की विधि, मौसम और स्थान के कारण बदल सकती है।
सोयाबीन के शत्रु भी होते हैं। कुछ कीड़े और इल्लियाँ पौधों को क्षति पहुँचाती हैं। कुछ जानवर, भूशूकर और खरगोश भी पौधों को खाकर नष्ट कर देते हैं। भारत में सोयाबीन की अधिकाधिक खेती करने के लिए भारत का कृषि विभाग किसानों को प्रोत्साहित कर रहा है। प्रोटीन की प्रचुरता के कारण महात्मा गांधी ने भी इसको उगाने और उपयोग करने की ओर लोगों का ध्यान दिलाया था। (फूलदेव सहाय वर्मा)