सैयद अहमद खाँ, सर का जन्म १७ अक्टूबर, १८१७ ई. को देहली में हुआ। उनके पूर्वज मुगल शाहशाहों के दरबार में उच्च पदों पर आरूढ़ रह चुके थे। उनकी शिक्षा पुराने ढंग के मुगल परंपरानुसार हुई। देहली के मुगल शासक की शोचनीय दशा देखकर वे ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में प्रविष्ट हो गए और आगरा, देहली, बिजनौर, मुरादाबाद, गाजीपुर तथा अलीगढ़ में विभिन्न पदों पर आरूढ़ रहे। प्रारंभ से ही उनकी पुस्तकों की रचना में बड़ी रुचि थी और शीआ-सुन्नी-मतभेद संबंधी उन्होंने कई ग्रंथ लिखे। किंतु कुछ अंग्रेज विद्वानों के संपर्क के कारण उन्होंने यह मार्ग त्याग दिया और १८४५ ई. में आसारुस्सनादीद का प्रथम संस्करण प्रकाशित किया जिसमें देहली के प्राचीन भवनों, शिलालेखों आदि का सविस्तार विवरण दिया। १८५७ ई. के संघर्ष के समय वे बिजनौर में थे। उन्होंने वहाँ अंग्रेजों की सहायता की और शांति हो जाने के तुरंत बाद एक पुस्तक 'रिसाला अस्बाबे बग़्वााते हिंद' लिखी जिसमें अंग्रेजों के प्रति हिंदुस्तानियों के क्रोध का बड़ा मार्मिक विश्लेषण किया। मुसलमानों की अंग्रेजों के प्रति निष्ठा के प्रमाण में उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की और मुसलमानों का ईसाइयों से घनिष्ठ संबंध स्थापित कराने के उद्देश्य से तबीनुल कलाम (बाइबिल की टीका) और रिसालये तआम अहले किताब की रचना की। खुत्बाते अहमदिया में सर विलियम म्योर की पुस्तक लाइफ़ ऑव मुहम्मद का उत्तर लिखा और क़ुरान की टीका सात भागों में की। अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया कि शिक्षा एवं सिद्धांत नेचर अथवा प्रकृति के नियमों के अनुकूल हैं और विज्ञान तथा आधुनिक दर्शनशास्त्र से इस्लामी नियमों का किसी प्रकार खंडन नहीं होता और उससे प्रत्येक युग तथा काल में मानव समाज का उपकार हो सकता है।

सर सैयद का सबसे बड़ा कारनामा शिक्षा का प्रसार है। सर्वप्रथम इन्होंने १८५९ ई. में मुरादाबाद में फारसी का मदरसा स्थापित कराया। १८६४ ई. में गाजीपुर में एक अंग्रेजी स्कूल खुलवाया। १८६३ ई. में गाजीपुर में यूरोप की भाषा से उर्दू में ग्रंथों के अनुवाद तथा यूरोप की वैज्ञानिक उन्नति पर वादविवाद कराने के उद्देश्य से गाजीपुर में ही साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना कराई। सर सैयद के अलीगढ़ स्थानांतरित हो जाने के उपरांत शीघ्र ही सोसाइटी का कार्यालय भी वहाँ चला गया। इसी उद्देश्य से सर सैयद ने अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट नामक एक समाचारपत्र भी निकालना प्रारंभ किया। इसका स्तर समकालीन समाचारपत्रों में काफी ऊँचा समझा जाता था। वे एक उर्दू के विश्वविद्यालय की स्थापना भी करना चाहते थे। उच्च वर्ग के हिंदू मुसलमान दोनों ने खुले दिल से सर सैयद का साथ दिया किंतु वे हिंदुओं के उस मध्य वर्ग की आकांक्षाओं से परिचित न थे जो अंग्रेजी शिक्षा द्वारा उत्पन्न हो चुकी थी। इस वर्ग ने सर सैयद की योजनाओं का विरोध किया और उर्दू के साथ हिंदी में भी पुस्तकों के अनुवाद की माँग की। सर सैयद इस वर्ग से किसी प्रकार समझौता न कर सके। १८६७ ई. की उनकी एक वार्ता से जो उन्होंने वाराणसी के कमिश्नर शेक्सपियर से की, यह पता चलता है कि हिंदी आंदोलन के कारण वे हिंदुओं के भी विरोधी बन गए। उसी समय स्वेज नहर के खुदने (१८६९ ई.) एवं मध्य पूर्व की अनेक घटनाओं के कारण अंग्रेज राजनीतिज्ञ संसार के मुसलमानों के साथ साथ भारत के मुसलमानों में भी अधिक रुचि लेने लगे थे। सर सैयद ने इस परिवर्तन से पूरा लाभ उठाया। १८६९-१८७० ई. में उन्होंने यूरोप की यात्रा की और टर्की के सुधारों का विशेष रूप से अध्ययन किया। मुसलमानों की जाग्रति के लिए तहज़ीबुल इल्लाक़ नामक एक पत्रिका १८७० ई. निकालनी प्रारंभ की। अलीगढ़ में मोहमडन ऐंग्लों ओरिएंटल कालेज की स्थापना कराई जो १८७९ ई. में पूरे कालेज के रूप में चलने लगा। १९२१ ई. में यही कालिज यूनीवर्सिटी बन गया।

१८७८ ई. से १८८२ ई. तक वे वाइसराय की कौंसिल के मेंबर रहे और देश के कल्याण के कई काम किए, विशेष रूप से एलबर्ट बिल के समर्थन में जोरदार भाषण दिया। २७ जनवरी, १८८३ ई. को पटना में और १८८४ ई. के प्रारंभ में पंजाब में कई भाषणों में हिंदुओं तथा मुसलमानों को एक कौम बताते हुए पारस्परिक मेलजोल पर अत्यधिक जोर दिया किंतु वे राजनीति में जेम्स स्टुअर्ट मिल के सिद्धांतों से बड़े प्रभावित थे। १८८३ ई. में ही उन्होंने इस बात का प्रचार प्रारंभ कर दिया था कि भारत में हिंदुओं के बहुमत के कारण जनता के प्रतिनिधियों द्वारा शासनप्रणाली मुसलमानों के लिए हानिकारक है। इसी आधार पर उन्होंने कांग्रेस का विरोध किया। १८८६ में एक यूनाइटेड इंडिया पैट्रिक असोसिएशन की स्थापना कराई और इस बात का प्रचार किया कि मुसलमानों को केवल अपनी शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए। इसी उद्देश्य से १८८६ ई. में उन्होंने मोहमडन एजूकेशनल कांग्रेस की स्थापना की। १८९० ई. में इसका नाम मोहमडन एजूकेशनल कान्फ्रसें हो गया। २७ मार्च, १८९८ ई. को उनकी मृत्यु हो गई।

सं. ग्रं. - सर सैयद की रचनाओं के अतिरिक्त अलीगढ़ इंस्टीटियूट गज़ट; तहज़ीबुल इख्लाक हाली; हयाते जावेद; सैयद तुफैल अहमद : मुसलमानों का रोशन मुरतक्बिल (देहली, १९४५); ग्राहम सी. एफ. आई. : दि लाइफ ऐंड वर्क ऑव सैयद अहमद खाँ (एडिनबर्ग, लंदन १८८५)। (सैयद अतहर अब्बास रिजवी)