सेनापति ब्रजभाषा काव्य के एक अत्यंत शक्तिमान कवि माने जाते हैं। इनका समय रीति युग का प्रारंभिक काल है। उनका परिचय देने वाला स्रोत केवल उनके द्वारा रचित और एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ 'कवित्त रत्नाकर' है।

इसके आधार पर इनके पितामह का नाम परशुराम दीक्षित, पिता का नाम गंगाधर दीक्षित और गुरु का नाम हीरामणि दीक्षित था। 'गंगातीर बसति अनूप जिनि पाई है' से इनका अनूपशहर निवासी होना कुछ लोग स्वीकार करते हैं; परंतु कुछ लोग अनूप का अर्थ अनुपम बस्ती लगाते हैं और तर्क यह देते हैं कि यह नगर राजा अनूपसिंह बडगूजर से संबंध रखता है जिन्होंने एक चीते को मारकर जहाँगीर की रक्षा की थी और उससे यह स्थान पुरस्कार स्वरूप प्राप्त किया था और इस प्रकार उसने अनूपशहर बसाया। अनूप सिंह की पाँच पीढ़ी बाद उनकी संपत्ति उनके वंशजों में विभक्त हुई और किन्हीं तारा सिंह को अनूप शहर बँटवारे में मिला। ऐसी दशा में सेनापति के पिता को अनूपशहर कैसे मिल सकता था। परंतु, यह तर्क विषय संबद्ध नहीं है। अनूप बस्ती पाने का तात्पर्य उस बस्ती के अधिकार से नहीं, बल्कि अपने निवास के लिए सुंदर भूमि प्राप्त करने से है। ऐसी दशा में अनूपशहर से ऐसा तात्पर्य लेने में कोई असंभवता नहीं है।

सेनापति के उपर्युक्त परिचय तथा उनके काव्य की प्रवृत्ति देखने से यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान थे और अपनी विद्वता और भाषाधिकार पर उन्हें गर्व भी था। अत: उनका संबंध किसी संस्कृत-ज्ञान-संपन्न वंश या परिवार से होना चाहिए। अभी हाल में प्रकाशित कवि कलानिधि देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट द्वारा लिखित, 'ईश्वर विलास' और 'पद्ममुक्तावली' नामक ग्रंथों में एक तैलंग ब्राह्मण वंश का परिचय मिलता है जो तेलंगगाना प्रदेश से उत्तर की ओर आकर काशी में बसा। काशी से प्रयास, प्रयाग से बांधव देश (रीवाँ) और वहाँ से अनूपनगर, भरतपुर, बूँदी और जयपुर स्थानों में जा बसा।

इसी वंश के प्रसिद्ध कवि श्रीकृष्ण भट्ट देवर्षि ने संस्कृत के अतिरिक्त ब्रजभाषा में भी 'अलंकार कलानिधि', 'शृंगार-रस-माधुरी', 'विदग्ध रसमाधुरी', जैसे सुंदर ग्रंथों की रचना की थी। इन ग्रंथों में इनका ब्रजभाषा पर अपूर्व अधिकार प्रकट होता है। ऐसी दशा में ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि इसी देवर्षि भट्ट दीक्षितों की अनूपशहर में बसी शाखा से या तो स्वयं सेनापति का या उनके गुरु हीरामणि का संबंध रहा होगा। सेनापति और श्रीकृष्ण भट्ट की शैली को देखने पर भी एक-दूसरे पर पड़े प्रभाव की संभावना स्पष्ट होती है।

सेनापति का काव्य विदग्ध काव्य है। इनके द्वारा रचित दो ग्रंथों का उल्लेख मिलता है-एक 'काव्यकल्पद्रुम' और दूसरा 'कवित्त रत्नाकर'। परंतु, 'कवित्त रत्नाकर' परंतु, 'काव्यकल्पद्रुम' अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। 'कवित्तरत्नाकर' संवत् १७०६ में लिखा गया और यह एक प्रौढ़ काव्य है। यह पाँच तरंगों में विभाजित है। प्रथम तरंग में ९७ कवित्त हैं, द्वितीय में ७४, तृतीय में ६२ और ८ कुंडलिया, चतुर्थ में ७६ और पंचम में ८८ छंद हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इस ग्रंथ में ४०५ छंद हैं। इसमें अधिकांश लालित्य श्लेषयुक्त छंदों का है परंतु शृंगार, षट्ऋतु वर्णन और रामकथा के छंद अत्युुत्कृष्ट हैं। सेनापति का काव्य अपने सुंदर यथातथ्य और मनोरम कल्पनापूर्ण षट्ऋतु वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। भाव एवं कल्पना चमत्कार के साथ-साथ वास्तविकता का चित्रण सेनापति की विशेषता है। सबसे प्रधान तत्व सेनापति की भाषा शैली का है जिसमें शब्दावली अत्यंत, संयत, भावोपयुक्त, गतिमय एवं अर्थगर्भ है।

सेनापति की भाषा शैली को देखकर ही उनके छंद बिना उनकी छाप के ही पहचाने जा सकते हैं। सेनापति की कविता में उनकी प्रतिभा फूटी पड़ती है। उनकी विलक्षण सूझ छंदों में उक्ति वैचित््रय का रूप धारण कर प्रकट हुई है जिससे वे मन और बुद्धि को एक साथ चमत्कृत करने वाले बन गए हैं। (उनके छंद एक कुशल सेनापति के दक्ष सैनिकों की भाँति पुकारकर कहते हैं 'हम सेनापति के हैं'।)

सं. ग्रं.-आचार्य रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; उमाशंकर शुक्ल: कवित्त रत्नाकर; भगीरथ मिश्र: हिंदी रीति साहित्य। (भगीरथ मिश्र)