सेना सेना संबंधी उपलब्ध प्राचीनतम अभिलेखों में, ईसा से कई हजार वर्ष पूर्व, प्राचीन मिस्र देश में योद्धावर्ग के लोगों के उल्लेख प्राप्त हुए हैं। ये लोग पैदल या रथों पर चढ़कर लड़ते थे। धनुष, बाण, भाले आदि आयुधों का प्रयोग करते थे। तत्कालीन मिस्रो न्यायविधि में, इन लोगों के प्रतिपालन की भी व्यवस्था थी। प्राचीन असीरिया और बेबीलोन नामक देशों में भी इसी प्रकार की सेनाएँ थीं, परंतु इन सेनाओं में अश्वारोही भी सम्मिलित थे जिनके कारण ये सेनाएँ मिस्र सेना की अपेक्षा अधिक सुचल और गतिमान थीं। प्राचीन फारस देश की सेना का संगठन अस्थिरवासी जंगली जातियों को सुगठित कर दिया गया था। इसमें मुख्यत: अश्वारोही ही होते थे। अतएव अधिक सुचलता के कारण यह सेना सुविस्तृत क्षेत्र में युद्ध करने में भी सफल सिद्ध होती थी। फारस साम्राज्य की एक विशाल स्थायी सेना थी जो साम्राज्य के अधीन दूरस्थ सभी प्रांतों और राज्यों की सुरक्षा के लिए समर्थ थी। इसी सेकना में दुर्गरक्षक तथा नगर रक्षकश् सैनिकों की गढ़सेना (garrison troops) भी थी।

यूनानी सेनाएँ-यूनानी नगर राज्यों में प्रत्येक देशवासी के लिए लगभग दो वर्ष पर्यंत सैनिक सेवा अनिवार्य थी। यूनानवासियों के उत्कट देशप्रेम तथा उनकी असाधारण व्यायाम अभिरुचि के कारण यूनानी सेनाएँ भी अत्यंत सदृढ़ एवं अस्त्र प्रयोग में सुदक्ष होती थीं, और घोर युद्ध में भी पंक्तिबद्ध कवायद करते हुए आगे बढ़ती थीं। यूनानी सैनिक प्राय: नगर तथा पर्वत के वासी थे, जो अश्वों का प्रयोग न कर, पैदल ही युद्ध करते थे। सामरिक व्यूहरचना फ्लैनेक्स रूप में होती थी। फ्लैनेक्स में घनाकार वर्ग में स्थित भालाधारी सैनिक होते थे। फ्लैनेक्स सेना प्रत्येक प्रहार को रोकने में सर्वथा समर्थ थी और समतल भूमि पर अप्रतिहृत आगे बढ़ सकती थी। परंतु इस सेना में जहाँ एक ओर सुचलता का अभाव था वहाँ दूसरी ओर यह असम भूमि पर सैनिक कार्यवाही में भी असमर्थ थी। कुछ समय पश्चात् पैलीपोनेसिया और सिरेक्यूज के लंबे युद्धों के कारण यूनान में वृत्तिक सेनाओं की भी नियुक्ति करनी पड़ी। ये सेनाएँ अधिक विस्तृत रूप से लड़ सकती थीं. क्षथा फ्लैनेक्स सेना के १८ फुट लंबे सरसा नामक भालों के स्थान पर लघु क्षेपणास्त्रों (light missiles) का प्रयोग करती थीं। इफिक्रेट के इन पैलटास सैनिकों ने, ईसवी पूर्व सन् ३९१ में स्पार्टा नगर राज्य के सैनिकों (होपलिट) की एक कोर पर विजय प्राप्त कर समस्त यूनान में खलबली मचा दी थी। इतिहासविदित सेनानायक इपैमिनौंडस ने होपलिट सैनिकों की स्थिरता और पैलटास सैनिकों की सुचलता के मिश्रित बल बूते पर ही अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। मिश्रित सेना की यह विधि सिकंदर की सर्वविजयिनी सेना में, जिसमें हल्की और भारी अश्व सेना भी सम्मिलित थी, और विकसित हुई। सिकंदरी सेना में, यूनानी प्लैनेक्स स्थित होपलिट सेना सरीसा से सुसज्जित हो, सेना के मध्य भाग में स्थित होती थी। उसके चारों ओर पैलटास सैनिक अथवा धनुर्धारी अश्वसेना तैनात की जाती थी। मैसीडोन-गार्ड-सैनिक भारी अश्वसेना (heavy cavalry) का कार्य करते थे। वृत्तिक सैनिक बल्लम आदि हथियारों से सुसज्जित हो पार्श्व भाग में स्थित होकर हल्फे रिसाले (light cavalry) के रूप में युद्ध करते थे। भारी रिसाले का प्रयोग शत्रु की क्लांत परंतु युद्ध में डटी सेनाओं को अंतिम आघात पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता था। हल्के रिसाले का उपयोग पराजित सेना का पीछा करने तथा उसमें भगदड़ मचाने के निमित्त किया जाता था।

मौर्यकालीन भारतीय सेना-वैदिक काल में भारतीय सेना में पत्ती और रथ दो ही अंग थे। उत्तर वैदिक काल में अश्वसेना और हस्तिसेना का भी प्रयोग किया जाने लगा। जातक ग्रंथों में चतुरंगबल अथवा चतुरंग चमू का अनेक स्थलों पर वर्णन पाया जाताहै।

चंद्रगुप्त की राज्यसभा में स्थित यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के वर्णनानुसार मौर्य सेना में छह लाख पदाति, तीस हजार अश्वारोही तथा नौ हजार हाथी थे। युद्धभूमि में सम्राट स्वयं सेना का नेतृत्व करते थे। चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में सम्राट की मौल सेना, मित्रसेना और वृत्तिक सेना के सिपाही होते थे। श्रेणी सेनाओं (guilds) तथा जंगली जातियों द्वारा निर्मित सेनाओं का सहायक सेना तथा अनियमित सेना (irregular force) के रूप में प्रयोग किया जाता था। ये सेनाएँ, सैनिक दृष्टि से, केवल प्रतिरक्षा के लिए उपयोगी थीं। गज, अश्व और पदाति ही सेना के प्रधान अंग थे, यद्यपि रथों और समर इंजनों का भी प्रयोग किया जाता था। सैन्यविद्या विशेष उन्नत थी। समूची सेना अग्र्दैंल (vanguard), पृष्ठदल (rearguard), पार्श्वरक्षीदल (flankguard) और रिजर्व सेना (reserve force) आदि-आदि भागों में विभक्त थी। प्रत्येक दल के सुनिश्चित कार्य थे। दुर्ग निर्माण और दुर्ग संक्रमण मौर्यकालीन समुन्नत भारतीय कलाएँ थीं। इस काल में भी भारत देश युद्ध संबंधी नियमों में समकालीन संसार में अतुल्य था। अन्य शक्ति के साथ युद्धरत शत्रु के विरुद्ध आक्रमण, घायल सैनिक की हत्या, निहत्थों पर वार और आत्मसमर्पित शत्रु पर आक्रमण आदि-आदि अन्यायपूर्ण व्यवहार सर्वथा वर्जित थे। भारतीय सेना द्वारा प्रतिपालित, न्याययुद्ध के इन नियमों के कारण, सैन्य संस्कृति के विकास में, भारतीय सेनाओं का विशिष्ट स्थान है।

हनीवाल की सेना-एक अन्य सुप्रसिद्ध प्राचीन सेना कार्थेज देश की थी। हनीवाल के नेतृत्व में, इस सेना की वीर गाथाओं से आज भी विश्व चकित हो उठता है। यूनान और रोगम की प्राचीन सेनाओं से सर्वथा भिन्न इस सेना में स्वदेशाभियान के स्थान पर संघभाव (espirit de corps) कूट-कूटकर भरा गया था। फ्लैनेक्स के स्थान पर पदाति सेन्म पंक्तिबद्ध विशाल गण (battalion) बनाकर लड़ती थी, जो फ्लैनेक्स के ही समान दुर्भेद्य होने के अतिरिक्त चारों ओर घूम-फिरकर भी सैनिक कार्यवाही कर सकती थी। इसमें हल्की और भारी दोनों प्रकार की अश्वसेना भी थी। हनीवाल की सेना में कुछ भाग गजसेना का भी था जिसने फ्रांस और इटली के मध्य बर्फीले ऐल्प्स पर्वतों को लाँघकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। परंतु अन्य वृत्तिक सेनाओं की भाँति यह सेना भी दीर्घकालीन युद्धों के लिए अनुपयुक्त थी। युद्धजनित जनक्षति की पूर्ति के लिए इसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा औऱ अंततोगत्वा, हनीवाल की अलौकिक क्षमता के बावजूद इसे रोम गणराज्य की सेना के आगे सिर झुकाना पड़ा।

रोम गणराज्य की सेनाएँ-रोम गणराज्य की सेना में केवल धनीमनी रोम नागरिक ही होते थे, जो अवैतनिक कार्य तो करते ही थे, साथ ही कवच आदि भी सुलभ करते थे। अधिक धनी लोग अश्वा रूढ़ हो सेना में सम्मिलित होते थे। पदाति सेना में मध्यवर्गीय नागरिक ही होते थे। निर्धन जनता साधारण अस्त्रों से युक्त हो हल्की सेना का कार्य करती अथवा सैनिक सेवा से बिल्कुल पृथक् रहती। रोम-सैनिक-दल, लीजन, में छह हजार व्यक्ति होते थे जो तीस मैनिपल्स में बँटे होते थे। इस प्रकार एक मैनिपल में दो सौ सैनिक होते थे। इनके अतिरिक्त तीन सौ अश्वारोही और बारह सौ साधारण पदाति सेना के बिलाइट्स सैनिक भी होते थे। तलवार तथा लघुक्षेपण (light throwing) भाले इस सेना के प्रधान अस्त्र थे। यदि रोम के स्वाभिमानी सैनिक इतने घोर कट्टर न होते और रोम मैनिपल्स में दैनिक चाल की सुगमता न होती तो रोम सेनाएँ, अपने इन हल्के हथियारों से, अपेक्षाकृत विवृत्त समर में, फ्लैनेक्स के बहुसंख्यक आक्रमणों का कदापि सामना नहीं कर सकती थीं। परंतु पैतृक नेतृत्व का अभाव रोम सेना की महानतम दुर्बलता थी। एक कौंसल (सेनानायक) दो द्विगुण लीजनों का नेतृत्व करता था। रोम नागरिक, जो स्वयं भी योद्धा थे, कौंसल का निर्वाचन करते। जब अनेक लीजन समवेत हो युद्ध करते, जैसा 'कैनी' के युद्ध में हुआ, तब प्रत्येक कौंसल क्रमश: एक-एक दिन संयुक्त सेना का नेतृत्व करता और इस भाँति कोई एकाकी सक्रिय योजना (single plan of operation) वस्तुत: असंभव थी।

रोम साम्राज्य की सेना -धन वैभव की अभिवृद्धि के परिणामस्वरूप रोम संस्कृति में दुर्बलता के कीटाणु भी प्रवेश करने लगे और शनै: शनै: उच्चवर्गीय धनी रोम नागरिकों ने सैनिक सेवा से संन्यास ग्रहण करना आरंभ कर दिया। जब मैरियम ने सैनिक-सेवा-नियमों में धन संपत्ति की अनिवार्यता को हटा दिया तब रोम सेना ने मुख्यत: निम्नवर्गीय निर्धन रोम नागरिक तथा विदेशी ही रह गए। यद्यपि लीजंस और मैनिपल्स अपने संशोधित रूप में अब भी विद्यमान थे तथापि परिवर्तित रोमभावना रोम सेना में स्पष्ट प्रतिबिंबित हो रही थी। इस सेना में केवल संघभाव ही रह गया था अन्यथा स्वदेशाभिमान का सर्वथा अभाव था। प्रत्येक लीजन का संख्यांकन कर उसका एक स्थायी अस्तित्व स्थापित कर दिया गया। सैनिकों को अब अपने अपने लीजन का गर्व था। सैनिक, इस विशाल साम्राज्य की दूरस्थ सीमाओं पर चिरकाल तक अपनी कर्तव्य परायणता से गर्वित हो, अपना अस्तित्व भी सामान्य नागरिकों से पृथक् ही समझने लग गए थे। इन भावनाओं तथा सेना की व्यावसायिक वृत्ति के फलस्वरूप प्रेटोरियन गार्ड के प्रख्यात सैनिकों का उदय हुआ जो सत्ता और वेतन के लिए षड्यंत्र रचने लगे तथा सम्राटों की हत्या तक कर डाली। इन परिस्थितियों का अवश्यंभावी परिणाम यह हुआ कि उत्तर दिशा से उग्र असभ्य जातियों का प्रभाव बढ़ने लगा, ऐड्रिनोपल की पराजय (३७८ ई.) हुई और रोम सेना की प्राचीन कीर्ति, विदेशी बाहुल्य के कारण, व्यंगचित्र मात्र रह गई। रोम परंपरा अब बिजैटा (Byzantine) राज्य ही में जीवित रह गई थी।

बिजैंटा की सेना-आरंभ में पूर्वी साम्राज्य की, अस्थिरवासी जातियों के आक्रमण से, ग्रोथ देश के धनुर्धारी अश्वारोहियों तथा विदेशी फियोडेराटी सैनिकों की सहायता से, सुरक्षा की गई। परंतु सम्राट जस्टिनयन के पश्चात् फियोडेटारी का लोप हो गया और छह सौ ईसवी के आस पास एक सजातीय (homogeneous) तथा सुसंयोजित सेना का प्रादुर्भाव हुआ। आरंभ में सीमा प्रांतों ने सेना प्रदान की तथा राज्य के मध्य भाग में स्थित नागरिकों ने सैनिक सेवा के बदले में सैविक कर (Scutage) सेना स्वीकार किया। कालांतर में प्रादेशिक (territorial) सेना पद्धति का भी नियमन किया गया। समस्त राज्य सैनिक प्रदेशों तथा थेंस में विभक्त था। प्रत्येक सैनिक प्रदेश को निजी प्रादेशिक सेना के लिए सैनिक स्वयं सुलभ करने पड़ते थे तथा पाँच हजार प्रशिक्षित सैनिक सामान्य सेना के लिए सदा तत्पर रखने पड़ते थे। प्रत्येक थेंस को निजी इंजीनियर, संभरण, और चिकित्स्य कोर का भी प्रबंध करना पड़ता था। बेली सेरयस सरीखे नायकों के प्रयत्न से वैज्ञानिक आधार पर प्रशिक्षित सेना की भी उत्पत्ति हुई। अनेक शताब्दियों तक बिजैंटा की सेना अविकल बनी रही, परंतु कालचक्र में फँसकर इसका भी अंत हो गया। अन्य देशों की भाँति यहाँ भी, सर्वप्रथम तो वृत्तिपरक सैनिक वर्ग, जो पारस्परिक भी था, उभड़ पड़ा, और पीछे से मैनजिकर्ट की पराजय के कारण सेना में विदेशी बाहुल्य और बढ़ जाने के कारण, अति संघातक प्रावटोरिन (Practorian) भावनाओं का उदय होने लगा। इन कारणों से सन् १२०४ ईसवी में बिजैंटा की सेनाओं ने शत्रु की उपस्थिति में ही विद्रोह कर दिया। राज्य द्वारा इन विद्रोहों का अवरोध सन् १४५३ तक निरंतर चलता रहा। अंत में कुस्तुनतुनिया पर तुर्की का अधिकार हो जाने पर बिजैंटा साम्राज्य विलुप्त हो गया।

मंगोल सेना-मंगोल सेना मध्ययुग की सर्वाधिक शक्तिशाली सेना थी, जिसने १३वीं शताब्दी में प्रशांत महासागर से लेकर एड्रियाटिक सागर पर्वत विशाल क्षेत्र पर विजय प्राप्त की। इस सेना का सर्जन इतिहासविदित महान् विजेता चंगेज खाँ के हाथों हुआ। कठोर और परिश्रमी अस्थिरवासी जातियों पर आधारित संपूर्ण मंगोल सेना में प्राय: हल्की अश्व सेना ही के सिपाही थे। अतएव इस सेना में युद्धनीतिक सुचलता (Strategic mobility) का अद्वितीय गुण विद्यमान था। सैनिक सेवा के अतिरिक्त आपत्काल में घोड़े भक्ष्य पदार्थों का भी कार्य देते थे। मंगोल सैनिकों की संख्या दो लाख से भी अधिक थी। ये सैनिक भूमि की उपज पर ही निर्वाह करते तथा संभरण साधनों से अपनी गतिविधि को अवरुद्ध नहीं होने देते थे। धनुष और बाण इन्हें अति प्रिय थे। हस्ताहस्ति युद्ध (Close fighting) के अवसर पर लघु कवच तथा खग का प्रयोग करते। दुर्ग की दीवारों को भेदन के उद्देश्य से बैलिस्टा तथा अन्य पर्यवरोध यंत्र (Siege engines) का प्रयोग करते। अपनी विशेष सुचलता तथा अश्व सेना द्वारा अन्वालोपी प्रहार (Enveloping charge) के समरतंत्रों (tactics) का विकास किया। किसी चौड़े मोर्चे की ओर अग्रसर होने के लिए कई 'कोर' परस्पर असंबद्ध होकर चलती थी; द्रुतगामी संदेशवाहकों द्वारा इनमें परस्पर संपर्क स्थापित किया जाता था; तत्पश्चात् युद्ध समय में सकल सेना सहसा केंद्रित हो जाती थी। किसी दुर्ग विशेष पर अधिकार करने के लिए सेना का कुछ भाग घेरा डालने के लिए पीछे रह जाता था, शेष सेना शीघ्रता से आगे बढ़ती रहती, और इस भाँति घिरी गढ़सेना की बाह्य सहायता की आशा नष्ट हो जाती थी।

यूरोप की सामंतीय सेनाएँ-अंधकार युग में जहाँ अन्य राजनीतिक क्षेत्रों में धुंध छा गया था वहाँ सेना संस्थान का भी ्ह्रास हुआ। लौंबर्ड, विसिगोथ, फ्रांस और इंग्लैंड की सभी शक्तिशाली सेनाएँ प्राचीन अस्थिरवासी जातियों पर आधारित थी। चार्लमैगने (Charlemagne) द्वारा सामंतीय सेनाओं का सभारंभ होने पर भी, धन और शक्ति सम्राट और सामंतों में वितरित होने के कारण एक विशाल तथा केंद्रशासित सेना की स्थिति सर्वथा असंभव हो गई थी। सामंतीय सेनाएँ रण प्रशिक्षण से अनभिज्ञ थीं। साथ ही उनकी सेनाएँ वर्ष भर में केवल एक मास से तीन मास पर्यंत ही सुलभ हो सकती थीं। इक कवचधारी राजरणक (knight) सामंतीय सेनाओं के हथियारों द्वारा सर्वथा अभेद्य था। अतएव बहुसंख्यक सेनाओं के स्थान पर, जो रणक्षेत्र में प्राय: निष्प्रभ सिद्ध होती थीं, राजरणक शूरवीरों की संख्या तथा विशिष्टता पर अधिक बल दिया जाने लगा। सामंतीय सेनाओं की इन परिमितताओं के कारण एक नई सेना के सर्जन की आवश्यकता हुई। इस नवीन सेना में बल्लभ तथा धनुष-बाण-धारी (pikemen and crossbowmen) वृत्तिक सैनिकों की बहुसंख्या में नियुक्ति की गई। यह क्रम उस समय तक चलता रहा जब तक अंग्रेजी सेना के लंबे धनुष, स्विस सेना के हल्वर्ड {'हल्वर्ड:' बल्लभ तथा परशु (battleaxe) को मिलाकर बनाया जाता था। इसमें एक अंकुशाकार काँटा भी लगा होता था, जिसमें राजरणक को फँसाकर घोड़े से नीचे खींच लिया जाता था} नामक अस्त्रों से सामंतीय सेनाओं का प्रभुत्व सर्वथा नष्ट नहीं हो गया। इसी समय बारूद के प्रयोग तथा व्यापारी वर्ग के अभ्युत्थान ने भी भूपाखों की शक्ति बढ़ाने में और योग दिया। सम्राटों ने इटली से काउंटरी आदि अति निपुण भृत्य सैनिकों को अपनी-अपनी सेनाओं में नियुक्त कर लिया। ये सेनाएँ स्वभावत: जनसंहार से बची रहतीं, जिसके कारण युद्ध प्राय: और भी रक्तपातहीन निष्परिणाम युद्धा नियमन (monouvres) तक ही सीमित थे।

भारत में मुगल सेना-भारतीय मुगल सेना १६वीं-१७वीं शताब्दी में संसार की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में से थी। वंशानुगत हिंदू और मुसलमान योद्धाओं की एक सेना ने शक्तिशाली मुगल साम्राज्य की स्थापना कर दो सौ वर्षों तक इसकी सुरक्षा की। अश्वसेना इसका दृढ़तम अंग थी जो युद्ध निर्णायक घड़ियों में समरविजय के उद्देश्य से प्रचंड पार्श्वपक्षीय आक्रमण के लिए चढ़ जाती थी। मुगल लोग तोप ढालने की कला में अति प्रवीण थे। संग्राम स्थल में तोपें युद्ध रेखा के मध्य स्थित कर दी जाती थीं। इन्हें शत्रु से सुरक्षित रखने के लिए तोपों के आगे शृंखलाबद्ध गाड़ियाँ खड़ी कर दी जाती थीं। परंतु तोपखाना युद्धभूमि में स्थिर रहकर ही संकार्य कर सकता था और सेना को भी कवायद आदि का कोई अभ्यास नहीं था। आंशिक सेना बादशाह की निजी होती थी, जिसको शाही खजाने से वेतन दिया जाता था, शेष मनसबदार सामंतों और प्रादेशिक शासनाध्यक्षों की हो होती थी। सैन्य संभरण का प्रबंध भी अलौकिक ही था क्योंकि प्रत्येक शिविर में नागरिक सुविधाओं का पूरा बाजार लगता था। धान्यव्यापारी, परचूनिए, जौहरी, अलंकार, पंडित, मौलवी और वेश्या आदि ये सभी सैनिक शिविर का अनुगमन करते और इस प्रकार शिविर स्वत: एक चलता-फिरता नगर प्रतीत होता। यह निस्संदेह एक बड़ी रुकावट थी, जिसके कारण ही उत्तरकालीन मुगल सेनाएँ, चपल मराठों और ईस्ट इंडिया कंपनी के सुप्रशिक्षित ब्रिटिश सिपाहियों के मुकाबले अति मंद गति के कारण अनुपयोगी सिद्ध हुई।

१८वीं शताब्दी में सेना-नैपोलियन से पूर्व यूरोप में सामान्यत: छोटी तथा स्थायी सेनाएँ होती थीं। राजा स्वयं सेना को वेतन देते तथा अन्य आवश्यकताओं की भी पूर्ति करते थे। सर्वसत्ताधारी शासक के लिए शत्रुदमन के निमित्त एक आज्ञापालक सेना नितांत आवश्यक थी। सर्वसाधारण लोग राजकार्यों से प्राय: पृथक् रहते, अतएव सेनाकार्यों में भी उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। यह प्रथा जनता की अभिरुचि के अनुकूल भी थी क्योंकि सर्वसाधारण के हृदयों में तीस वर्षीय लंबे युद्ध के प्रति तीव्र घृणा उत्पन्न हो गई थी। अतएव तत्कालीन यूरोप के एक आदर्श राज्य फ्रांस ने अपनी स्थायी वृत्तिक सेनाओं के लिए पृथक् पृथक् छावनियाँ बनवाई जहाँ सैनिकों और नागरिकों के मध्य संबंध स्थापित नहीं किए जा सकते थे। सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोष्टागार भी स्थापित किए गए।

सैनिकों को कवायद का खूब अभ्यास था। ये सैनिक अधिनायक के प्रत्यक्ष नेतृत्व में युद्ध करते थे। अश्वसेना रेजिमेंट तथा स्क्वाड्रन (Squadrons) में संयोजित थी। अश्व सैनिक तलवार और पिस्तौल से सुसज्जित होते थे। पदाति सैनिक तीन गंभीर पंक्तियों में खड़े किए जाते थे, जो मसृणछिद्र नालिकाओं (Smoothbore muskets) तथा संगीन (Bayonets) का प्रयोग करते। साधारण स्थापन (normal establishment) से भिन्न तोपखाना अभी भी सेना का विशेष अंग था। व्यूह रचना रेखापंक्ति (linear order) में की जाती थी, जिसमें पदाति सेना मध्य भाग में, अश्व सेना पार्श्वभाग तथा अग्रभाग में स्थित होती थी। व्यूहरचना में सेना वाम एवं दक्षिण पक्ष में विभक्त की जाती थी। प्रत्येक पक्ष में पदाति तथा अश्वारोही सैनिक होते थे। पक्षनायक (wing commander) पक्ष का नेतृत्व करता था। गण (Battalion) तथा रेजिमेंट ही सेना के प्रधानतम भाग थे, ब्रिगेड (Brigade) अथवा डिवीजन (Division) में सेना उपविभाजित नहीं थी। पत्याधृत सेना की भी कोई विधि नहीं थी। इस कारण आवश्यकता के समय नायकों को विशेष पुनर्बलन (heavy reinforcement) की कोई आशा नहीं होती थी। केवल एक प्रधान पराजय ही समस्त युद्धपराजय के लिए पर्याप्त थी। इस भयसे घमासान युद्ध (pitched battle) तथा भीषण जनसंहार का परिहार किया जाता था। सेनाधिनायक भी प्राय: अभिजातीय सामंतगण (nobles) ही होते थे, जिनमें परस्पर बंधुत्व की भावना होती थी। इस कारण से भी युद्धीय भीषणता न्यूनतर हो गई थी। भूपाल भी युद्ध को अपने राजवंशीय हितों की सुरक्षा के लिए कौशल क्रीड़ा मात्र ही समझते थे, जिस कारण युद्ध में कतिपय व्यक्ति ही घायल होते, परंतु यूरोप में शक्ति संतुलन के विनाश अथवा किसी भी राष्ट्रसत्ता के लोप हो जाने का लेशमात्र भी भय नहीं था। सिपाही राजा के प्रिय खिलौनों के समान थे, जिनका रक्तरंजित युद्ध में विनाश महान् क्षति समझा जाता था। इन परिस्थितियों में चार युद्ध के अभाव से युद्ध का अर्थ क्रेनल सेना मार्च अथवा प्रतिमार्च (counter march) कोष्ठागारों तथा दुर्गों का अपहरण अथवा निवारण ही समझा जाता था। योधननीति केवल गोधनकोण (war angles) तथा आधाररेखा (base line) का विषय बन गई थी।

प्रशा ने विशेष प्रशिक्षित सेनाधिनायकों के सृजन में भी प्रगति की। ये सेनाधिनायक नवीन युद्धकला के प्रवर्तक बने। ये सेनाओं के क्षणश: जटिल गमनागमन की और सैनिक सामग्री और रसद वितरण की अनुसूची तैयार करते तथा प्रमुख युद्ध सैनिक निर्णयों (major strategical decisions) की विस्तृत योजना बनाते थे। एकल संक्रिया सिद्धांत (single operational doctrine) से अभिमत, विशेषबलाधिकरण अधिकारी विचार विनिमय के बिना भी एक समान कार्य करते । इस प्रकार विशाल सेनाओं को सेनापति के एक सामान्य आदेश पर पूर्ण निपुणतापूर्वक एवं सुनिश्चितश् प्रकार से क्रियान्वित किया जा सकता था। ज्यो-ज्यों युद्ध अधिकाधिक जटिल और विशालकाय होते गए त्यों-त्यों सर्वबलाधिकरण अधिकारियों का महत्व भी बढ़ता गया। इस पद्धति का प्राय: प्रत्येक सेना में सभारंभ किया गया। सर्वबलाधिकरण अधिकारियों के लिए असाधारण योग्यता की सर्वाधिक आवश्यकता थी। सन् १९१४ के प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस और रूस दोनों देशों के एक-एक हजार सर्वबलाधिकरण अधिकारियों के मुकाबले जर्मनी के केवल दो सौ पचार सर्वबलाधिकरण अधिकारी कहीं बढ़-चढ़कर सिद्ध हुए।

१९वीं शताब्दी का अंत-१९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रशा और फ्रांस और अमरीका में दो गृहयुद्ध हुए। सेना संघटन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। अमरीका गृहयुद्धों की यूरोप के शक्तिशाली देशों ने केवल एक असभ्य भिड़ंत समझकर अवहेलना की, दूसरी ओर फ्रांस और जर्मनी के मध्य हुए युद्ध की ओर विशेष ध्यान दिया गया। जर्मनी की नवीन सेनाओं के हाथों फ्रांस की वृत्तिक सेनाओं के पराजित हो जाने पर जर्मन सेनाओं के अनुकरण की दिशा में भी एक उत्साहपूर्ण प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई।

नई प्रणाली के अनुसार अनिवार्य सैनिक सेवा अखिल देशव्यापी दायित्व घोषित की गई। किसी भी व्यक्ति को (स्वास्थिक अयोग्यता के अतिरिक्त) इससे छूट नहीं थी, न स्थानापन्नता का प्रश्न उठता था। यदि किसी वर्ष अनिवार्य सैन्य भर्ती आवश्यकता से अधिक हो जाती तो अधिक सेना रिजर्व दल में भेज दी जाती और शेष समुदाय सामान्यत: तीन वर्ष की अल्पावधि तक सेना में कार्य करने के पश्चात् लगभग छह वर्ष के लिए क्रियाशील रिजर्व में भेज दिया जाता, तत्पश्चात् इसे गढ़ सेना अथवा द्वितीय श्रेणी की रिजर्व सेना में रहकर लगभग पाँच-छह वर्ष पर्यंत कार्य करना पड़ता। इन रिजर्व सेनाओं में कार्य करने के बाद इन व्यक्तियों को लैंडसट्रम नाम गृहस्थी दल (home guard force) में भेज दिया जाता। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को बीस वर्ष की आयु से पैंतालीस वर्ष की आयु तक अनिवार्य रूप से सैनिक कार्य करना पड़ता। इस भाँति असंख्य सैनिक समुदाय तथा इसे शत्रु मोर्चों पर पहुँचाने के लिए रेलगाड़ियों के प्राप्य हो जाने पर इन सैनिकों को लामबंदी (mobilise) कर युद्धभूमि की ओर भेजना प्राथमिक महत्ता का कार्य हो गया। उच्च प्रशिक्षित सर्वबलाधिकरण अधिकारी लामबंदी (mobilisation) की विस्तृत योजना बनाते, क्योंकि शत्रु सीमा पर सेना पहुँचने में एक दिन का विलंब भी महा विनाश का हेतु बन सकता था। अतएव लामबंदी योजना को क्रियान्वित करने के बाद कोई भी बाधा सह्य नहीं थी। इसका तथ्य जुलाई, १९१४ ई. में सर्वविदित हो गया जब युद्धग्रस्त कोई भी देश कूटनीतिक वार्ता के उद्देश्य से सैनिक चालन को रोकने का साहस नहीं कर सका। वास्तव में लामबंदों का आदेश ही युद्धारंभ की घोषणा थी।

दीर्घानुभवी, वृत्तिक तथा स्वयंसेवक सेनानियों को अल्पकालिक अनिवार्य सैनिक-सेवा-बल का अधिकारी नियुक्त कर दिया जाता था। सैनिक सेवा के विशेष अभियोग्य तथा आजीवन सैनिक सेवा के इच्छुक व्यक्तियों को अराज्यादिष्ट अधिकारी (noncosmmisioned officers) अथवा अधिकारी बनाया जाता। वार्षिक अनिवार्य नव-सैनिकों को यथासंभव प्रशिक्षित करना इनका प्रधान कार्य था। सर्वश्रेष्ठ अफसर सर्वबलाधिकरण अधिकारी चुने जाते, जिन्हें और विशेषोपयुक्त प्रशिक्षण दिया जाता। अधिकारियों को कठोर और नीरस जीवन व्यतीत करना पड़ता। वे वेतन भी साधारण ही प्राप्त करते, परंतु समाज में विशेष सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे।

जब यूरोपीय और जापानी सेनाओं ने उपर्युक्त जर्मन पद्धति को अपनाया, ब्रिटेन और अमरीका ने छोटी स्वयंसेवक सेनाओं की पद्धति को ही जारी रखा। परंतु इन दोनों देशों में नौसेना ही विशेष त्राण (Shield) प्रदान करती थी।

प्रौद्योगिकी (technological) विकास तथा दुष्परिणाम-फ्रांस की महाक्रांति से उत्प्ान्न परिवर्तनों के पश्चात् यूरोप की औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप सैनिक संगठन सिद्धांतों में भी उतने ही महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

निस्संदेह शस्त्रास्त्रोन्नति प्रत्येक युग में सैनिक विकास कार्य का निरंतर एक प्रधान अंग रही है। 'सरीसा' सदृश अचल हस्ताहस्ति युद्धोपयोगी शस्त्रों के स्थान पर 'पिलम' सदृश अदूरगामी लघु क्षेपण अस्त्रों का विकास हुआ। समरकौशल तथा अति सीमित सुचलता से संपन्न कवचधारी राजरणक उन लंबे धनुषों के सम्मुख, जिन्होंने सन् ११८४ में चार इंच मोटे ठोस वृक्षों को भी भेद दिया था, नहीं टिक सका। चंगेज खाँ ने धनुर्धारी अश्वारोही सेना में सुचलता एवं शक्ति का संयोग कर एक अपराजेय सेना का सृजन किया। चीन में बारूद के आविष्कार तथा समस्त यूरोप में उसके प्रचलन से धनुर्धारियों की महत्ता क्रमश: क्षीण होने लगी और प्रणालिकाधारी तथा ग्रेनेडियर्स की महत्ता बढ़ने लगी। फील्ड तोपों (field guns) की संख्या में भी वृद्धि कर दी गई। सन् १७०४ में ब्लैनहियम युद्ध में मार्लबरो ने एक तोपखाना प्रति ९०० व्यक्ति की दर से इनका प्रयोग किया, परंतु सन् १८१२ में बौरोडिनो युद्ध में नैपोलियन की सेना में एक तोपखाना प्रति ८४० व्यक्ति की दर से, क्षेत्र तोपखाना, उपलब्ध था।

नैपोलियन के पश्चात् औद्योगिक उन्नति को द्रुत प्रोत्साहन मिला। १९वीं शताब्दी के मध्य तक प्रमुख सेनाओं ने मसृण-छिद्र-मस्केट (Smooth bore muskets) का त्याग कर अधिक दूरगामी नालमुख भरण (muzzle loading) राइफल को अपनाया। अमरीकी गृहयुद्ध में ब्रीचभरण मैगजिन राइफल (breech loading magzine rifle) का प्रयोग किया गया। इसी अवसर पर एक ऐसे यंत्रतोप (Gatling machinegun) का भी निर्माण हुआ जिसमें दस नालें थीं. तथा एक मिनट में २५० से ३०० तक प्रहार कर सकती थी। सन् १८७० में प्रशा के सैनिकों ने ब्रीच भरण तोप (breech loading needle gun) तथा ब्रीच भरण राइफल तोप (breech loading field gun) का उपयोग किया, जबकि फ्रांसीसी सैनिकों को श्रेष्ठतर राइफल 'चैसोपाट' तथा अत्युत्तम यंत्र तोप 'मिट्रैल्यूज' प्राप्य थीं। सन् १९०४-५ में रूस और जापान के मध्य हुए युद्ध में, ३२०० गज की दूरी तक मार कर सकने वाली राइफल तथा ६००० गज की दूरी तक मार कर सकने वाली क्षेत्र राइफलें प्रकट हुईं। 'हाचकिस' और 'मैक्सिम' सदृश यंत्र तोप राइफलों ने बहुसंख्यक पदाति स्कंधों के युग का अंत कर दिया।

तोपखाना शक्ति की विपुल उन्नति के साथ-साथ जनसंख्या में भी शीघ्रता से वृद्धि होने के कारण सेना का आकार भी बढ़ गया। परिणामत: सैनिक आवश्यकता के संभरण तथा गोला-बारूद (ammunition) की माँग में भी पर्याप्त वृद्धि हुई, जिसकी पूर्ति केवल रेलगाड़ियों द्वारा ही संभव थी। सामने के आक्रमण करना अब आत्मघातक बन चुका था, इसलिए युद्ध क्षेत्रीय सीमाएँ भी अधिकाधिक फैलती चली गईं। ऐसी परिस्थिति में सेनापति को अपने अधीनस्थ नायकों से संपर्क स्थापित करने के लिए दो नवीन आविष्कारों, मोटरकार तथा टेलीग्राम, पद्धति पर निर्भर होना पड़ता था। साथ ही उसे विशाल सेना को व्यवस्थित कर मोर्चों पर भेजने तथा उनके संभरण की योजनाएँ बनाने के लिए विशेषज्ञ कर्मचारी अधिकारियों (expert staff officers) की भी आवश्यकता हुई।

इस प्रकार १९वीं शताब्दी के अंत तक एक नवीन सेना का विकास हुआ। इसका नियंत्रण संगठन (control organization) पर्याप्त जटिल था। योजना तथा संक्रिया के लिए एक सर्वबलाधिकरण (general staff) था, संभरण, वासस्थान आदि का प्रभारी एक महाभक्त यांत्रिक (Quarter master general) था। अश्व, पदाति और तोपयोधन सेनाओं के अतिरिक्त संभरण, भैषज्य, आदि अन्य अनेक सैनिक सेवाओं का सृजन किया गया। क्षेत्र दृढ़ीकरण (field fortification), सुरंग (mines), संकेत (signals) और सड़क निर्माण आदि कार्यों के लिए एक सर्वथा नवीन इंजीनियर सैनिक सेवा का भी सृजन किया गया। इन सेनाओं तथा अन्य प्राविधिक सेनाओं की महत्ता और अनुपात भी दिनोत्तर जटिल उपकरणों के प्रयोग के कारण प्रति दिन बढ़ रहे थे। रेलगाड़ियाँ ही पहले युद्ध का मुख्य साधन थीं परंतु अब मोटर गाड़ियाँ और वायुयान भी शीघ्र अपरिहार्य बन गए। वास्तव में युद्ध अब दिन-प्रतिदिन औद्योगिक शक्ति पर ही आश्रित होता जा रहा था।

दो विश्व युद्ध

सन् १९१४ की सेना-वर्तमान शताब्दी के आरंभ में सेनाएँ, यद्यपि श्रेष्ठतर शस्त्रों से सुसज्जित थीं, तथापि सैन्य संगठन अधिकतर १९वीं शताब्दी के ढाँचे पर ही आधारित था। आधारभूत प्रत्येक पदाति दल लगभग एक हजार व्यक्तियों का एक बटैलियन (battalion) होता था; प्रत्येक बटैलियन में चार गण (Company) और प्रत्येक गण में तीन या चार पलटन। यूरोपीय सेनाओं में तीन गणों को मिलाकर एक रेजिमेंट (Regiment) बनाया जाता, दो रेजिमेंट मिलकर एक पदाति ब्रिगेड (Brigade) और दो ब्रिगेड मिलकर एक पदाति डिवीजन (Division)। आधारभूत अश्वदल रेजीमेंट होता था, जिसमं तीन से छह तक स्क्वाड्रन (squadron) होते थे। प्रत्येक स्क्वाड्रन में चार अश्ववृंद होते थे, दो अश्व रेजिमेंट (ब्रिटिश सेना में तीन) मिलाकर एक अश्व ब्रिगेड और दो अथवा तीन अश्व ब्रिगेड मिलाकर एक अश्व डिवीजन। बैटरी (Battery) आधारभूत तोपखाना था, जिसमें सामान्यत: छह तोपें होती थीं जो दो तोप प्रति अनुभाग के हिसाब से अनुभागों में विभक्त कर दी जाती थीं। छह से नौ तक समूहों के मिलने से एक तोपखाना रेजिमेंट बनता था।

अश्व अथवा पदाति डिवीजन सबसे छोटा सैन्य संगठन था, जिसमें सभी शस्त्रास्त्र उपलब्ध थे और जो स्वतंत्र रूप से संक्रिया कर सकता था। उदाहरणार्थ, पाँच हजार व्यक्तियों के एक अश्व डिवीजन में अश्व तोपखाना के कुछ समूह, एक हल्का पदाति गण और इंजीनियरों की एक टुकड़ी भी सम्मिलित होती थी। एक पदाति डिवीजन में सत्तरह हजार से बीस हजार तक सैनिक, २४ से २७ तक तोपें और गेह (reconnaissance) आदि कार्यों के लिए कई अश्वारोही दल होते थे। परंतु इन सब दलों का ठीक-ठीक आकार प्रत्येक सेना में भिन्न-भिन्न था।

एक लाख से भी अधिक सैनिकों की विशाल सेनाओं के डिवीजनों के 'कोर' (corps) में संगठित करना आवश्यक होता था। एक कोर में सामान्यत: चालीस हजार व्यक्ति होते थे। युद्ध के समय में कभी-कभी कोर युद्ध नीतिक योजनानुसार सेना वर्गों (army groups) में वर्गित कर दिया जाता था।

प्रथम विश्व युद्ध (१९१४-१८)-इस युद्ध में जर्मनी एक तरफ से और ब्रिटेन फ्रांस आदि देश दूसरी तरफ से लड़े थे।

सेना संगठन में डिवीजन आदि की आधारभूत रूपरेखा तो विद्यमान रही, परंतु विभिन्न सेना के अंगों की महत्ता और अनुपात में अनेक परिवर्तन हुए। पदाति सेना को प्राय: तोपखाना, वायुसेना, टैंक आदि विशेष युद्ध साधनों के सहारे ही कार्य करना पड़ता था। टैंकों के प्रचलन के कारण अश्व सेना किसी भी बड़े युद्ध के लिए क्रमश: गौण समझी जाने लगी और सन् १९१८ के पश्चात् तो उसका कोई महत्व ही नहीं रह गया। उपयोगिता की दृष्टि से तोपखाना बल अधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण समझा जाने लगा। प्रति एक हजार पदाति सैनिकों के साथ सामान्यत: दस तोपें होती थीं। रासायनिक युद्ध प्रचार, उद्धार (salvage), छद्मावरण (camouflage) तथा, ऋतु विज्ञान आदि कार्यों के लिए नए-नए दल बनाए गए। ब्रिटिश सेना में तो टैंकों का एक पृथक् कोर (corps) ही संस्थापित कर दिया गया, और जल तथा थलसेना से सर्वथा स्वतंत्र वायुसेना का तीसरा ही सैनिक बल भी स्थापित किया गया। यदि ऐसी प्रगतिशील चेष्टाएँ निरंतर जारी रहतीं तो, निस्संदेह द्वितीय महायुद्ध में हुए मारे अनेक सुविधाएँ रहतीं।

दो विश्व युद्धों का मध्य काल-पर प्रथम विश्वयुद्धजनित प्रगति की यह प्रवृत्ति चालू न रह सकी। ब्रिटेन और अमरीका ने छोटी वृत्तिक सेनाओं की रीति पुन: अपनाई, फ्रांस ने मितव्ययिता की दृष्टि से अपनी सेना घटा दी। जर्मनी की वर्साई की संधि के अनुसार केवल एक लाख सैनिक ही रखने का अधिकार था, प्रत्याधृत सेना की भी अनुमति नहीं थी। अतएव जर्मनी को अत्युच्च सैनिक प्रशिक्षण तथा अधिकाधिक सेना अधिकारियों की संख्या से ही संतोष करना पड़ा, ताकि आवश्यकता के समय तेजी सैन्य विकाल किया जा सके। जर्मन नवयुवकों के आधारित सैनिक प्रशिक्षण के लिए स्थान-स्थान पर उपसैनिक युवक क्लब (paramilitary youth clubs) तथा व्यायाम समितियाँ खोल दी गईं।

हिटलर के सत्तारुढ़ हो जाने पर जर्मनी में जब तेजी से पुन:शस्त्रीकरण हुआ तो फ्रांस और ब्रिटेन ने भी ऐसा ही किया। इटली, जापान और रूस की तो पहले ही बड़ी-बड़ी सेनाएँ थीं। इथियोपिया, संचूरिया, चीन और स्पेन के लघु युद्धों में नए उपकरणों के परीक्षण किए गए। प्राविधिक विज्ञान द्वारा युद्ध शस्त्रों में भी अभिवृद्धि हुई। मध्यम श्रेणी के टैंक भी, जो प्रथम युद्ध में केवल पाँच टन भार के थे, अब पच्चीस टन के हो गए थे। वे अधिक भारी तोपें लाद सकते थे तथा दृढ़तर कवचों से सुरक्षित थे। वायुयान भी, जो प्रगतिशील राष्ट्रों द्वारा थलयुद्ध के लिए अनिवार्य स्वीकृत किए गए, अब से मील प्रति घंटे के स्थान पर तीन सौ मील प्रति घंटे की गति से उड़ सकते थे। हवामार तोप (antiaircraft gun) और टैंकमार तोप (antitank gun) का भी आविष्कार हुआ। रूस ने बहुसंख्या में छाताधारी सैनिक (paratroopers) का सर्वप्रथम प्रचलन किया। फ्रांस ने अपनी जर्मन सीमाओं की सुरक्षा के लिए दुर्भेद्य मेगिनोलाइन (इस सुरक्षा लाइन का नामकरण इसके अधिष्ठाता मैगिनो के नाम पर ही किया गया था।) बनाई, परंतु इस दुर्गीकरण से लाभ उठाने के लिए एक सुचल प्रहारक बल का विकास न कर भारी भूल की। जर्मनी ने शीघ्र ही, सदा की भाँति सुप्रशिक्षित, सुसज्जित तथा विशाल सेना खड़ी कर ली। टैंक और वायुयान समूह (tank plane team) ही इस सेना का मुख्य शस्त्र था। इस सेना की सुविख्यात 'ब्लिट्ज क्रीग' नामक रण प्रणाली फुलर और लिड्डेल हार्ट के प्रशिक्षण पर आधारित थी। ब्रिटिश सेना ने इन युद्ध विशारदों के सिद्धांतों पर कभी ध्यान नहीं दिया। जर्मनी वासियों ने परिवहन तथा संभरण सेनाओं का यंत्रीकरण कर सैनिक संक्रिया में जो द्रुतता कर दिखाई उससे सारा संसार डगमडा उठा।

द्वितीय विश्व युद्ध-सन् १९३९-४५ के दीर्घकृत लंबे विश्व युद्ध के कारण 'खड्गहस्त राष्ट्र' की भावना चरम सीमा पर पहुँच गई। प्रत्येक युद्धरत देश के अखिल साधन तथा प्रत्येक स्वस्थ पुरुष और स्त्री को युद्ध के लिए सुसज्जित किया गया। अनिवार्य सैनिक भर्ती अखिल देशव्यापी (भार तथा कुछ अन्य देशों के अतिरिक्त जो गौण रूप में ही युद्धरत थे) घोषित कर दी गई। यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी सशस्त्र सेना में बहुसंख्या में भर्ती की गईं। यह कार्य केवल समग्र जनशक्ति को सुसज्जित करने के लिए ही नहीं अपितु, विभिन्न सेवाओं के मध्य, मानव साधनों के समुचित विभाजन के उद्देश्य से भी किया गया था। युद्ध कार्य में जिस बहुसंख्या में लोग जुटे थे उसका अनुमान इसी से लग सकता है कि अमरीका ने कुछ एक करोड़ दस लाख सैनिकों को भर्ती किया जिनमें से पचास लाख सशस्त्र सेना के सिपाही थे। रूस ने एक करोड़ बीस लाख सैनिकों की सदृढ़ सेना बनाई। समस्त उद्योग, यहाँ तक कि कृषि भी, युद्ध कार्य ही के लिए उपयंत्रित कर दिए गए, जिससे सभी उद्योग भी युद्ध लक्ष्य बन गए और सैनिकों तथा नागरिकों के मध्य अंतर प्राय: लुप्त हो गया।

इस नई युद्ध विधि में दो या दो से अधिक सैनिक सेवाएँ (services) प्राय: सम्मिलित होती थीं; क्योंकि दुहरी संक्रिया अनेक होती थी और न थलसेना और न नौसेना, वायुसेना की सहायता के बिना दक्षतापूर्वक कार्य कर सकती थी। रूस और अमरीका जैसी विशाल शक्तियों में स्वतंत्र वायुसेना न थी, परंतु विपुल वायुबल अवश्य था। ब्रिटेन और जर्मनी की थल, जल और वायु तीनों सेनाएँ पृथक्-पृथक् थीं, परंतु उनमें परस्पर पूर्ण सहयोग बनाए रखने के लिए प्रत्येक संभव कार्य किया जाता था। यह कार्य संयुक्त कमान (joint command) और संयुक्त योजना अधिकारियों द्वारा संपन्न किया जाता था, अर्थात् एक ही युद्धक्षेत्राधिकारी उस क्षेत्र के लिए उपलब्ध जल, थल, और वायुसेना का नेतृत्व करता और उसके सैनिक मुख्यालय में तीनों ही सेवाओं के अधिकारी सम्मिलित होते थे। सार्वभौम युद्ध के लिए समस्त आदेश जारी करने का एक नया साधन खोज निकाला गया जो सम्मिलित (combined) मुख्यालय कहलाता था और जिसमें युद्धरत अनेक संयुक्त राष्ट्रों के प्रतिनिधि होते थे।

सेना का आधारभूत संगठन डिवीजन ही रही। परंतु बड़ी-बड़ी सेनाएँ प्राय: सैनिक वर्ग भी रखती थीं। कुछ रूसी और अमरीकी सैन्य वर्गों की कुछ सैनिक संख्या बीस लाख से भी अधिक थी। प्रति डिवीजन सैनिक संख्या बीस हजार से घटाकर ग्यारह हजार से पंद्रह हजार तक कर देने पर डिवीजन सुप्रबंध्य बन गई थई। विशिष्ट शस्त्रों तथा उपकरणों की जटिलता तथा संस्था दोनों ही के बढ़ जाने से डिवीजन में युद्धों का अनुपात, संभरण सैनिकों तथा प्रविधिज्ञों (technicians) के मुकाबले और अधिक घट गया। इंजीनियरों, संकेत और भैषजिक कर्मचारी वर्ग (personnels) विद्युत और यांत्रिक इंजीनियरों द्वारा आवर्धित कर दिए गए।

इन विशाल सेनाओं के संगठन तथा प्रशिक्षण में अनेक कठिनाइयाँ उत्प्ान्न होती थीं। व्यक्तित्व परीक्षण का एक वैज्ञानिक ढंग ढूँढ़ा गया जिसके अनुसार अधिकारियों को छाँटकर उनके क्षमतानुकूल उन्हें विभिन्न शाखाओं में नियुक्त कर दिया जाता था।

जहाँ एक ओर सैनिक संघटन प्राय: अपरिवर्तित ही रहा वहाँ दूसरी ओर मसर-ब्यूह-कौशल तथा शस्त्रास्त्रों में विशेष परिवर्तन हुए। प्रत्येक युद्ध मंच के लिए विशेषो पयुक्त व्यूहकौशल तथा सैनिक दलों की आवश्यकता पड़ी। मलाया और बर्मा के घने जंगलों में, पदाति सेना को अपनी ही बल-बूते पर छोटी-छोटी टुकड़ियों में विभक्त हो लड़ना पड़ा। 'चिंडिट्स' सैनिकों ने रिपुरेखा से सैकड़ों मील पीछे वायुयान द्वारा रसद प्राप्त कर सैनिक कार्य किए। उत्तरी अफ्रीका में भी दीर्घगामी मरुदलों (long range desert groups) के सैनिक जीप गाड़ियों पर चढ़कर शत्रु प्रदेशों में सैकड़ों मील तक घुस गए। जर्मन सैनिकों ने द्रुतगामी टैंकों तथा गोतामार बममारी दलों (dive bombers teams) का उपयोग किया जिनकी सहायता से वे शीघ्र ही शत्रु मोर्चों में प्रवेश कर बाद में तुरंत ही सैनिक अंगों, कोष्ठागारों और रसद मार्गों पर छा जाते। रूसी सैनिकों ने प्राय: पदाति सेना, टैंकों और तोपों के भीषण प्रहारों पर निर्भर रहकर ही विजय प्राप्त की। सन् १९४५ में रूसी सेना में तीस से बत्तीस तोपें प्रति एक हजार पदाति के लिए प्राप्त थीं तथा प्रति मील मोर्चे पर प्राय: तीन सौ से पाँच सौ तोपों द्वारा आक्रमण किया जाता था। बर्लिन युद्ध में नौ सौ पचहत्तर तोपें प्रति मील मोर्चे के हिसाब से प्रयुक्त की गई थीं, तथा संपूर्ण नाज़ी राजधानी को मटियामेट करने के लिए बाईस हजार तोपों की कुल आवश्यकता पड़ी थी। अमरीकी और ब्रिटिश सेनाओं ने दुहरी संक्रियाओं तथा रणस्थल से दूर शत्रु नगरों पर वायुयानों द्वारा भयानक गोलाबारी की नीति अपनाई जो हिरोशिया और नागासाकी नगरों में अणुबमो द्वारा महा विनाश कर अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई।

आज का सेना युग-द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् सैनिक शक्ति मुख्यत: सब अमरीका में ही केंद्रित हो गई है। दोनों देशों के सैद्धांतिक मतभेद के कारण यह प्रतिस्पर्धा और भी बढ़ गई है। परिणामत: शीत युद्ध का युग आरंभ हो गया है और दो विरोधी सैनिक शिविर भी तैनात दिखाई देते हैं।

नाटी सेनाएँ-सन् १९४९ में पश्चिमी यूरोप, कैनेडा और अमरीका की 'स्वतंत्र जनतंत्र' सरकारों के मध्य 'उत्तर अटलांटिक संधि संगठन' नाटो (North Atlantic Treaty Organisations or N.A.T.O.) नामक एक समझौता किया गया जिसका स्पष्ट उद्देश्य साम्यवादी खतरे के विरुद्ध सैन्य सुरक्षा था।

कोरियाई युद्ध ने पश्चिमी जनतंत्र राज्यों को सैनिक विकास कार्यों के लिए तीव्र प्रेरणा दी। ये चेष्टाएँ सन् १९५३ में कोरिया संघर्ष की समाप्ति के बाद भी चलती रहीं। नाटो संधि के अनुसार मध्य यूरोप में तीस डिवीजन सेना द्वारा प्रतिरक्षा योजना बनाई गई थी, परंतु सन् १९५८ के अंत तक केवल सत्रह डिवीन ही उपलब्ध हो सकी थी। इनमें से पाँच जिवीजन तो अमरीका के और सात जर्मनी ने भेजी थीं। ब्रिटेन और फ्रांस का योगदान पश्चिमी जर्मनी में स्थित क्रमश: साठ हजार और तीस हजार सैनिकों तक ही सीमित रहा। ये दोनों देश अपने विस्तृत साम्राज्यों में अन्य कई भागों के सुरक्षा दायित्व के भार से और द्वितीय विश्वयुद्धजनित राष्ट्रीय क्षति के कारण साधारण योगदान ही कर सके थे। साम्यवाद विरोधी जगत् की अन्य प्रमुख सेनाओं में बाईस डिवीजनों में संगठित चार लाख व्यक्तियों की तुर्की सेना और इटली की सेना भी थी जिसमें से छह डिवीजन तो नाटो संधि में प्रदान कर दी गई और अन्य आठ से नौ डिवीजन तक तैयार की जा रही थी। ताईवान स्थित राष्ट्रीय चीन के तेईस डिविजनों में कुल चार लाख तीस हजार व्यक्ति थे।

साम्यवादी सेनाएँ-सन् १९४५ के पश्चात् साम्यवादी देशों में पूर्व सैनिक वियोजन नहीं किया गया, अपितु जब पश्चिमी देशों ने पुनर्विस्तार आरंभ किया तो इन्होंने सेनाओं में भारी कमी आरंभ कर दी। रूस ने सन् १९५६ में अपनी सशस्त्र सेनाओं में बारह लाख व्यक्तियों की कटौती की घोषणा की, सन् १९५७ में छह लाख चालीस हजार व्यक्तियों की ओर सन् १९५९ में तीन लाख और व्यक्तियों की। इतने पर भी रूसी साम्यवादी सेना विश्व में सर्वाधिक शक्तिशाली है। सन् १९५८ में केवल पूर्वी जर्मनी में इस सेना की बीस कवचसज्जित (armoured) अथवा यांत्रिक डिवीजन तथा दस तोपखाने अथवा विमानमार डिवीजन थे, चार डिवीजन हंगरी में और एक ही बड़ी संचार-पथ-सेना (Line of Cammunication Force) पोलैंड में स्थित थी।

रूस के साथ-साथ अन्य साम्यवादी देशों ने भी अपनी सेनाएँ घटी दीं। पोलैंड और चैकोस्लोवाकिया, प्रत्येक ने, बीस हजार व्यक्तियों की कटौती की घोषणा की, रूमानिया ने पैंतीस हजार की और बलगेरिया ने तेईस हजार की। परंतु इन कटौतियों के उपरांत भी पोलैंड में सन् १९५८ के अंत तक इक्कीस डिवीजन, चैकोस्लोवाकिया में चौदह, रूमानिया में पंद्रह और बलगेरिया में बारह डिवीजन सेनाएँ थीं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चीनी सेना भी एक प्रमुख सेना के रूप में प्रकट हुई। सन् १९३७ से चीनवासियों के मध्य पारस्परिक तथा जापान के विरुद्ध अनंत युद्धों के कारण अनुभवी अफसरों तथा सिपाहियों का एक ऐसा समुदाय उत्पन्न हो गया, जिन्होंने द्वितीय महायुद्ध के उत्तरवर्ती वर्षों में अमरीका से बहुमूल्य उपकरण और हथियार प्राप्त किए तथा भारत में वैज्ञानिक आधार पर सैनिक प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। सन् १९४५ तक चीन में लगभग तीस लाख व्यक्तियों की राष्ट्रीय सेना तथा उसके बीस लाख जनपद सैनिक, मिलीशिया (militia) थे। सन् १९४९ में चीनी साम्यवादी प्राय: इन सभी राष्ट्रीय सैनिक बलों पर अपना अधिकार जमाने में सफल हुए, केवल दशमांश सेना तैबान की ओर बच निकल भागी। कोरियाई युद्ध में स्वयंसेवकों की साम्यवादी सेना ने अपनी विस्मयकारी दृढ़ता तथा युद्ध क्षमता का परिचय दिया। सन् १९५३ तक चीन ने लगभग २० लाख व्यक्तियों की चार क्षेत्रीय (field armies) को बाईस सैनिक कोरों में संयोजित किया। इसके अतिरिक्त बीस लाख व्यक्तियों की तो सैनिक प्रदेशों (military districts) की सेना और लगभग एक करोड़ बीस लाख स्त्रियों और पुरुषों की जानपद सेना थी। यह विशाल समुदाय पूर्ण-प्रशिक्षित होने पर भी युद्ध समय में प्रतिरक्षा कार्य के लिए निस्संदेह उपयोगी सिद्ध हो सकेगा।

सेनाओं का संघटन और उनके उपकरण-द्वितीय विश्वयुद्ध में प्राप्त अनुभवों के कारण नए-नए सैनिक बलों तथा विशिष्टोद्देशीय सेनाओं की वृद्धि होने लगी। उदाहरणार्थ-'कमानडो' तथा दूरसंचार (telecommunication) सेनाओं के नामों का उल्लेख किया जा रहा है। परंतु आधारिक दल डिवीजन तथा गण ही रहे। टैंकों और तोपखाने अनेक डिविजनों के अभिन्न अंग बन गए ।

डिवीजन संघटन पर बहुविध विवाद तथा विचार हुए। कुछ सेनाओं ने तो त्रिभुजी संघटन पर जोर दिया, जिसके अनुसार एक ब्रिगेड में तीन गण, एक डिवीजन में ती ब्रिगेड आदि-आदि योजनाएँ बनाई गई। अन्य सेनाओं में वे, उदाहरणार्थ अमरीकी सेना ने, पाँच उपदलों पर आधारित 'पेंटामिक' संघटक को अपनाया। अधिक वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्रणालियों का विकास हुआ, जिनमें चित्रपट, दूरवीक्षण यंत्र (television) और मनोवैज्ञानिक प्रविधियों का उपयोग किया गया। राजतंत्रीय सिद्धांतों में तीव्र विरोध होने के कारण सैनिकों में अपने-अपने सिद्धांतों का प्रचार (political introduction) अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया; यहाँ तक कि प्रजातंत्र राज्यों ने भी नैतिक सुदृढ़ता की दृष्टि से अपनी जनता को इस संघर्ष के उद्देश्यों से भली भाँति परिचित कराना तथा निजी सामाजिक संगठन की श्रेष्ठता सिद्ध करना आवश्यक कार्य समझा। अतएव मनुष्य युद्ध का अब भी एक महत्वपूर्ण अंग है।

तथापि यंत्रों की महत्ता निस्संदेह और भी बढ़ गई है। भारी टैंकों, सुचल रॉकेटों फेंकुओं (mobile rocket launchers), तोपों तथा बड़ी-बड़ी हाउत्सर (Howitzer) के कारण केवल शौर्य युद्धजय के लिए अपर्याप्त हो चुका है। पदाति सेना के शस्त्रों में अब क्षेत्र तोपखाने (fild artillery) की प्रहार शक्ति से परिपूर्ण बजूका (bajookas) तथा १०६ मिमी की धक्काहीन (recoilless) राइफल सम्मिलित हैं। प्रति क्षण सैकड़ों लक्ष्यभेदी, स्वचालित सुविध राइफल, प्लास्टिक के बने देहकवध, विशिष्टीकृत बारूद (shaped charges), बी.ट. फ्यूज (V.T. fuse) और यांत्रिक खच्चरों का भी प्रयोग किया जाता है। आणवित उच्च कोण वाली हाउंत्सर (atomic howitzer) तथा 'हार्नस्ट जान' नाम की आणविक-युद्ध-शीर्ष वाली (with atomic warhead) निकटगामी रॉकेट (short rane rocket) के समय द्वितीय महायुद्ध की सबसे बड़ी तोप भी खिलौना सी प्रतीत होती है। ये नए शस्त्र रूपस और अमरीका दोनों ही देशों को उपलब्ध हैं। इन आणविक शस्त्रों के कारण सेनाओं को युद्ध क्षेत्र में विसर्जन (dispersal) तथा सुचलता के गुणों के विकास की आवश्यकता है। पिछले कुछ वर्षों से आणविक शस्त्रों की विपुल तोपखाना शक्ति पर आधारित तथा वायु परिवहन द्वारा परम सुचल छोटी-छोटी परंतु उच्च प्रशिक्षित सेनाओं की आवश्यकता यांत्रिक शक्ति ने पूर्णत: ग्रहण कर लिया है। सभी सैनिक संक्रिय सर्वसैनिक (inter services) चेष्टाएँ बने गए हैं, तथा आधुनिक सेना केवल त्रिसैनिक सेवा संयोगी युद्ध तंत्र का एक खंड मात्र रह गई है।

आधुनिक प्रवृतियाँ-आज के प्रतिरक्षा क्षेत्र में तीव्रतर प्राविधिक प्रगति ही सर्व प्रधान तत्व है। परमाणु बम और हाइड्रोजन बम इसी के चिन्ह मात्र है। इतिहास में प्रथम बार द्वितीय विश्व युद्ध के समय विकसित शस्त्रों ने उस युद्ध का निर्णय किया। जो एक हजार आठ सौ प्रकार के शस्त्र सन् १९४५ में अमरीका में बन रहे थे उनमें से केवल तीन सौ पचास शस्त्र सन् १९४० तक आविष्कृत हो समुन्नत हो चुके थे। युद्धोपरांत यह प्राविधिक गति दिन प्रति दिन द्रुततर ही होती जा रही है।

प्राविधिक उन्नति की इस गति का अर्थ यही है कि नए शस्त्र का विकास और परीक्षण कर उसके बहुनिर्माण (mass production) का कार्य आरंभ किया जाता है, तब तक उससे भी श्रेष्ठतर शस्त्र प्रारूप में बनने लगते हैं। इसके साथ ही शस्त्रों के मूल्य में भी बड़ी तेजी से वृद्धि हो रही है। आजकल की एक नई विमानमार तोपदर्शी (gunsight) का मूल्य १९वीं शताब्दी की एक संपूर्ण तोपखाना से भी अधिक हो सकता है। आधुनिक उद्योगों ने अत्यधिक शक्य तथा अनुकूलनीयता (adaptability) का परिचय दिया है। द्वितीय विश्व युद्ध में केवल अमरीका ने ही तीन लाख युद्ध विमान, चौबीस लाख ट्रक और इकतालीस अरब गोला बारूद (ammunition) बनाए थे। परंतु समृद्धतम और परमोद्योगी राष्ट्र भी आधुनिक शस्त्रों के निर्माणभार का अनुभव कर रहे हैं और वे सभी शस्त्र पर्याप्त संख्या में रखने में असमर्थ हैं। ब्रिटेन का चार अरब सत्तर करोड़ पाउंड की पूँजी का त्रिवर्षीय पुनश्शस्त्रीकरण कार्यक्रम सन् १९५७ में अधिक दीर्घकालिक कर दिया गया; नाटो देश भी निर्धारित सेनाएँ सुलभ करने में असमर्थ ही रहे, यद्यपि प्रथम आठ वर्ष की अवधि में इन देशों ने ३७१ अरब ९८ करोड़ ५० लाख डालर धनराशि प्रतिरक्षा कार्य पर ही व्यय की। आधुनिक सेनाओं में जो कटौती की गई है उसका भी एक कारण मितव्ययिता मालूम होता है।

अतएव प्रतिरक्षा बजट का सेना के विभिन्न अंगों में बँटवारा (allocation) भी महत्वपूर्ण दायित्व बन गया है। नियत धनराशि में से कितना अंश थल, जल और वायुसेना को दिया जाए और कितना धन प्रतिरक्षा विज्ञान अनुसंधान कार्यों पर व्यय किया जाए, एक ऐसा प्रश्न है जिसका कोई सर्वथा संतोषजनक अथवा सदामान्य उत्तर असंभव है। इस प्रश्नोत्तर के लिए जिस आधार सामग्री की आवश्यकता है, वह हर घड़ी बदलती रहती है और कोई मानुषिक या इलेक्ट्रोनिक बुद्धि (electronic brain) इस समस्या को पूर्णत: नहीं सुलझा सकती। यह भी संदेहात्मक ही है कि प्रतिरक्षा बजट का आबंटन प्रति सैनिक सेवा आधार पर ही हो, क्योंकि प्रगतिशील विचारधारा के अनुसार प्रत्येक युद्ध नीति (strategy) के आधार पर 'आयुध पद्धति' (weapon system) के आवश्यकतानुसार ही बजट का बँटवारा श्रेयस्कर होगा। उदाहरणार्थ संसार के किसी एक कोने में चल रहे एक सीमित परमाण्विक युद्ध के लिए केवल छोटी-छोटी उच्च प्रशिक्षित सेनाएँ तथा स्वत: पूर्ण सुचलता प्रदायी वायु परिवहन बेड़े ही पर्याप्त होंगे, जबकि किसी पूर्णत: परमाण्विक युद्ध के लिए दूरगामी भीषण बमवर्षकों और राकेटों की आवश्यकता होगी, जो स्थायी स्थल अंगों या सुचल पनडुब्बियों (submarines) पर से छोड़े जा सकें। इस प्रकार विभिन्न सेवाओं (armed services) की पृथक्-पृथक् कार्य क्षमता अपूर्ण ज्ञात होती है और युद्धनीतिक आवश्यकतानुसार तीनों सैनिक सेवाओं को 'आयुध विधि' के अनुसार पुनर्विभाजन की आवश्यकता प्रतीत होती है। अन्यथा यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि नए रॉकेट मिसाइल (rocket missiles) थल, जल और वायु इन तीनों में से किस सेवा के अंतर्गत रखे जाएँ।

रूढ़ अथवा पारंपरिक (conventional), सामरिक नाभिकीय (tactical nuclear) और पूर्ण नाभिकीय (total nuclear), भावी युद्ध के संभावित प्रकार दिखाई देते हैं। पूर्ण नाभिकीय युद्ध में स्थल सेना के लिए शायद ही कोई स्थान हो, क्योंकि युद्ध निर्णय तो युद्धरत देशों द्वारा दूरगामी परमाण्विक बमवर्षा पर ही आधारित होगा, और यह कोई नहीं कह सकता कि क्या रेडियो ऐक्टिव मलबे (radio-active debris) में से टूटा-फूटा स्थल युद्ध भी प्रस्फुट हो सकेगा।

सामरिक परमाण्विक शस्त्रों पर आधारित युद्ध में संभवत: प्रथम विश्व युद्ध जैसा ही गत्यवरोध पुन: उत्पन्न हो जाए क्योंकि ये अस्त्र मुख्यत: प्रतिरक्षा कार्य के ही पक्षपाती हैं। छोटी यंत्रीकृत (mechanised) सेनाएँ परमाण्विक तोपखाना अथवा निकटगामी राकेटों द्वारा विपुल तोपखाना शक्ति उत्पन्न करती हैं। ऐसी परिस्थिति में सफल आक्रमण की एकमात्र आशा केवल उत्कृष्ट दलों द्वारा सहसा आक्रमण ही दिखाई देता है। ये दल आनन-फानन में शत्रु सेना में घुसकर पूर्णत: घुलमिल जाएँगे और इस प्रकार इन पर परमाण्विक बमों के प्रयोग की संभावना नष्टप्राय हो जाती है अन्यथा इन बमों के प्रयोगकर्ता की निजी सेना भी राज की ढेरी बनकर रह जाएगी। इन युद्धों के लिए अभीष्ट सेनाओं में आधारिक दल, बड़ी डिवीजनों के स्थान पर अति सुप्रबंध्य वाहिनी ही को बनाया जा रहा है, और उनकी परिवहन और संभरण आदि आवश्यकताएँ पूर्णत: यंत्रित और सुबाही (streamlined) की जा रही हैं ताकि शत्रु प्रहार से विशेष हानि न हो। अमरीका पश्चिमी जर्मनी की सेनाएँ इस प्रकार की आधुनिक सेनाओं के समुचित उदाहरण हैं, जबकि साम्यवादी सेनाओं की कमी का कारण भी परमाण्विक शस्त्रों पर आधारित युद्ध की संभावना ही ज्ञात होती है।

अपरमाण्विक शस्त्रों पर आधारित पारंपरिक युद्ध अपने मूल उद्देश्यों और 'आयुध पद्धति' दोनों में सीमित ही रहता है। संभव है कि यह युद्ध केवल ऐसे औपनिवेशिक अथवा अमहत्वपूर्ण भाग में छिड़े जहाँ कोई भी देश परम विनाशक पूर्ण परमाण्विक युद्ध का खतरा अपने सिर न लेना चाहे। ऐसी दशा में, आक्रमणकारी कोई धूर्त छापामार (guerilla) हो सकता है, जिसे केवल कुछ स्टेनगनों, कुछ अभिस्फोटों तथा स्थानीय जनता की सहानुभूति ही की आवश्यकता हो। छापामार युद्ध वास्तव में, अब भी एक अति सफल प्रविधि है, परंतु यह अनियमित सेना निश्चित अर्थ में सेना का अंश नहीं कही जा सकती, अतएव प्रस्तुत लेख में इस पर कोई विचार नहीं किया गया है।

परिमित पारस्परिक युद्धों में उच्च प्रशिक्षित सैनिकों की ऐसी 'अग्निशामक' सेना की आवश्यकता होगी जो पूर्णतया वायु परिवहन और वायु संभरण पर ही आश्रित रह सके और तोपखाना शक्ति उत्पन्न करने के लिए 'बजूका', धक्काहीन राइफल (recoilless rifles), ज्वालाक्षेपण मिसाइल (flame throwers) और निकटगामी क्षेपक ट्रकों के सदृश हल्के शस्त्रों से सुसज्जित हो। बहुत सी सेनाएँ भारी तोपखाना शक्ति और लंबी-लंबी संभरण रेखाओं को हटाकर अपनी डिवीजनों का केवल वायु परिवहन आधार पर ही पुनर्गठन कर रही हैं। इन सेनाओं में हेलीकॉप्टर (helicopters) ने तो ट्रक गाड़ियों का और स्थलाक्रामक वायुयानों (ground attack planes) ने स्थल तोपों का स्थान ग्रहण कर लिया है। ये सैनिक दल निस्संदेह इतिहास विदित प्राचीन सेनाओं के सच्चे वंशज हैं। और यदि महान् राष्ट्रों ने परमाण्विक निरस्त्रीकरण को स्वीकार कर लिया, तो ये सेनाएँ ही सर्वोच्च समझी जाएँगी। (श्री. नं. प्र.)