सूर्य खगोल कार्यों में मनुष्य का सबसे अधिक संबंध सूर्य है। यदि उन लोककथाओं का परीक्षण किया जाए जो आधुनिक वैज्ञानिक युग के प्रारंभ होने के पहले पृथ्वी के विविध भागों में बसने वाली जातियं में प्रचलित थीं तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि वे लोग यह पूर्णतय: जानते थे कि सूर्य के बिना उनका जीवन असंभव है। इसी भावना से प्रेरित होकर उनमें से अनेक जातियों ने सूर्य की आराधना आरंभ की। उदाहरणत: वेदों में सूर्य के संबंध में जो मंत्र हैं उनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक आर्य यह भली-भाँति जानते थे कि सूर्य प्रकाश और ऊष्मा का प्रभव है तथा उसी के कारण रात, दिन और ऋतुएँ होती हैं। एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय की अवधि को उन्होंने दिवस का नाम दिया। उन्हें यह भी विदित था कि लगभग ३६५ दिवसों की अवधि में सूर्य कुछ विशेष नक्षत्र मंडलों में भ्रमण करता हुआ पुन: अपने पूर्व स्थान पर आ जाता है। इस अवधि को वे वर्ष कहते थे जो प्रचलित शब्दावली के अनुसार सायन वर्ष (Tropical Solar year) कहलाएगा। उन्होंने वर्ष को ३०-३० दिवस वाले १२ मासों में विभक्त किया। इस विचार से कि प्रत्येक ऋतु सदैव निश्चित मासों में ही पड़, वे वर्ष में आवश्यकतानुसार अधिक मास जोड़ देते थे।
मनुष्य के जीवन का सूर्य के साथ इतना घनिष्ठ संबंध होते हुए भी प्राचीन लोग उपकरणों के अभाव के कारण विशेष वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त न कर सके। सूर्य संबंधी सबसे पहला महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य ईसा से लगभग ७४७ वर्ष पूर्व प्राचीन बेबीलीग निवासियों के विदित था। वे यह जानते थे कि प्रत्येक सूर्यग्रहण से १८ वर्ष और ११� दिवसों की अवधि के पश्चात् ग्रहण के लक्षणों की आवृत्ति होती है। इस अवधि को वे सारोस कहते थे और आज भी यह इसी नाम से प्रसिद्ध है। परंतु सूर्य के भौतिक लक्षणों के वैज्ञानिक अध्ययन का प्रारंभ तो सन् १६११ से ही मानना चाहिए जब गेलीलियो ने प्रथम बार सौरबिंब के अवलोकन में दूरदर्शी (Telescope) का उपयोग किया। दूरदर्शी की सहायता से उन्होंने बिंब पर कुछ कलंक देखें जो नियमित रूप से पश्चिम की ओर परिवहन कर रहे थे। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि सूर्य, पृथ्वी की भाँति, अपने अक्ष पर परिभ्रमण करता है। जिसका आवर्त काल एक चंद्रमास के लगभग है। आगामी कुछ वर्षों में सूर्य कलंकों और सूर्य के परिभ्रमण के आवर्तनकाल का चाक्षुष अध्ययन होता रहा। ज्योतिष के अध्ययन में दूसरा महत्वपूर्ण वर्ष १८१४ है जब फाउनहोकर (Fraunhofer) ने सूर्य के अध्ययन में स्पेक्ट्रमदर्शी (spectroscope) का प्रथम बार प्रयोग किया। परंतु उस उपकरण का पूरा-पूरा लाभ तो तभी उठाया जा सका जब फोटोग्राफी में इतनी प्रगति हो गई कि खगोल कार्यों के स्पेक्ट्रमपट्ट के स्थायी चित्र लिए जा सकें। इन चित्रों की सहायता से विविध कार्यों के स्पेक्ट्रमपट्टों का तुलनात्मक अध्ययन संभव हो सका। सन् १८९१ में हेल और डेसलेंड्रेस ने एक स्पेक्ट्रमी-सूर्यचित्री (Spectroheilography) का आविष्कार किया जिसने इस अध्ययन को महान् प्रगति दी। कुछ वर्षों से एकवर्ण सूर्यचित्री को चलचित्रक (Movie Camera) के साथ जोड़कर सूर्य पर होने वाली अनेक घटनाओं के चलचित्र बनाए जा रहे हैं। इन चलचित्रों ने इस अनुसंधान को एक नवीन रूप प्रदान किया है। परंतु इन चित्रों का वास्तविक महत्व तो क्वांटम-सिद्धांत और साहा के अयनन सूत्र की सहायता से ही जाना जा सका। सन् १९३० से अब तक अनेक यंत्रों का आविष्कार हो चुका है जिनमें ल्यो द्वारा निर्मित परिमंडलचित्रक (Coronograph) का मुख्य स्थान है। इन यंत्रों ने अनेक नवीन तथ्यों को प्रगट किया। दूसरी ओर सैद्धांतिक अध्ययन में द्रवगतिकी (Hydrodynamics) तथा विद्युतगतिकी (Electrodynamics) का उपयोग होने लगा जिससे अनेक भौतिक घटनाओं को समझने में समुचित सहायता मिली है।
मंदाकिनी में सूर्य की स्थिति: सूर्य मंदाकिनी का एक साधारण सदस्य है। वह मंदाकिनी के केंद्र से लगभग तीस हजार प्रकाश वर्षों (प्रकाश वर्ष उस दूरी को कहते हैं जिसको प्रकाश एक वर्ष में पार करता है) के अंतर पर उस स्थान पर स्थित है जहाँ पर उसके और भागों की तुलना में तारों का घनत्व बहुत कम है।
सूर्य का कार्य-साधारण चाक्षुष अवलोकन पर सूर्य एक गोलकाय जैसा दिखाई देता है जिसका पृष्ठ पूर्ण रूप से विकारहीन है। सूर्य का यह दृश्य प्रकाश मंडल (Photosphere) कहलाता है। प्रकाश मंडल का व्यास ८६४००० मील अथवा १४.१०/१० सेंमी है और लगभग पृथ्वी के व्यास का १०९ गुना है। इसका पुंज २.२४.१०/ २७ टन अथवा २.१०/३३ ग्राम है जो पृथ्वी के पुंज का लगभग ३ लाख गुना है। इसका माध्य घनत्व १.४२ है। सूर्य से हमारी पृथ्वी की माध्य दूरी १४९८९१००० किमी है और प्रकाश सूर्य से पृथ्वी तक आने में लगभग ८� मिनट लेता है। प्रकाश मंडल का प्रत्येक वर्ग इंच ३.७८.१०/३३ अर्ग प्रति क्षण की अर्धा से विकिरण करता है और मंडल की प्रभाचंडता ३०,००,००० कैंडिलशक्ति के तुल्य है।
सूर्य वामन श्रेणी का एक तारा है और अधिकांश तारों की भाँति सूर्यकाय दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है: (१) आंतरिक भाग, जो प्रकाशमंडल द्वारा सीमित है, और (२) वर्णमंडल। इस वर्णमंडल की गहराई प्रकाशमंडल के अर्धव्यास के २० गुने के लगभग है और इसका संपूर्ण पुंज सूर्यपुंज का १०/१५ भाग है जो लगभग हमारे वायुमंडल के संपूर्ण पुंज के २०वें भाग के बराबर है। इतना कम पुंज होने पर भी सूर्य के वर्णमंडल में अनेक आश्चर्यजनक भौतिक घटनाएँ घटती हैं जिनका उल्लेख आगे चलकर किया जाएगा।
आधुनिक मत के अनुसार सूर्य का आंतरिक भाग तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है: (१) केंद्रीय आंतरक, जिसमें परमाणवीय अधिक्रियाओं द्वारा ऊर्जा उत्पन्न होती है जो आंतरक के पृष्ठ तक मुख्यत: संवाहन (Convection) की विधि से पहुँचती है, (२) आंतरक को घेरे हुए गोलीय वलय, जिसमें ऊर्जा का परिवहन विकिरण की विधि से होता है और (३) आंतरिक भाग का शेष भाग जिसमें ऊर्जा के परिवहन की विधि पुन: संवाहन है।
सूर्य की आंतरिक संरचना -सूर्य की आंतरिक संरचना के विषय में निम्नलिखित तथ्य ज्ञात हुए हैं। इसका केंद्रीय ताप लगभग २५.७. १०,६ अंश परम और केंद्रीय घनत्व ११० ग्राम प्रति घन सेमी है। इसकी ९८ प्रतिशत ऊर्जा केंद्रीय भाग में उत्पन्न होती है जिसका अर्धव्यास उसके संपूर्ण अर्धव्यास का आठवाँ भाग है। यह ऊर्जा परमाणवीय अधिक्रियाओं द्वारा उत्पन्न होती है। आधुनिक मत के अनुसार अधिनिम्नांकित दो क्रियाएँ सूर्य ऊर्जा की प्रभव मानी जाती है: (१) कार्बन-नाइट्रोजन-चक्र और (२) प्रोटान-प्रोटान-प्रतिक्रिया। इन दोनों प्रतिक्रियाओं का शुद्ध फल यह होता है कि हाइड्रोजन परमाणु हीलियम परमाणुओं में परिवर्तित हो जाते हैं तथा कुछ पदार्थ मात्रा, आइन्सटाइन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के अनुसार, ऊर्जा का रूप ले लेती है। प्रथम अभिक्रिया में कार्बन-नाइट्रोजन के परमाणु नष्ट नहीं होते, वे तो अभिक्रिया में उत्प्रेरक (Catalyst) के रूप में भाग लेते हैं।
यदि ऊर्जा का प्रभव कार्बन-नाइट्रोजन-चक्र मानें और आंतरक में कार्बन, नाइट्रोजन की मात्रा उतनी ही लें जितनी वर्णमंडल में उपस्थित है तो आंतरक में हाइड्रोजन लगभग ६० प्रतिशत, हीलियम ३६ प्रतिशत और अन्व तत्व ४ प्रतिशत होने चाहिए। परंतु सूर्य के केंद्रीय तापमान पर ये दोनों अधिक्रियाएँ संभव हैं और यदि ऊर्जा प्रभव इन दोनों अधिक्रियाओं को मानें, तो हाइड्रोजन और हीलियम की मात्रा क्रमश: लगभग ८२ प्रतिशत और १७ प्रतिशत होनी चाहिए।
प्रकाशमंडल की आकृति-प्रकाश मंडल की चकाचौंध के कारण सूर्य के पृष्ठ और वर्णमंडल के लक्षणों का अध्ययन नहीं किया जा सकता, परंतु पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय जब चंद्रमा सूर्यबिंब को ढक लेता है, वर्णमंडल का अवलोकन किया जा सकता है। इस विधि से तो प्रति वर्ष कुछ ही मिनटों तक वर्णमंडल का अवलोकन किया जा सकता है, वह भी यदि मौसम अनुकूल हो। परंतु आजकल दूरदर्शी में अपारदर्शी धातु का बिंब लगाकर प्रकाशमंडल के प्रतिबिंब को ढक लिया जाता है और इस प्रकार कृत्रिम रूप से पूर्ण सूर्यग्रहण की परिस्थिति उत्पन्न कर ली जाती है। फलत: दिन में किसी भी समय वर्णमंडल के किसी भी भाग का फोटोग्राफ लिया जा सकता है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए कुछ वेधशालाओं में प्रति दिन निश्चित अंतर से वर्णमंडल के फोटोग्राफ लिए जाते हैं। हेल के एक वर्ण-सूर्य-चित्री ने यह संभव कर दिया कि वर्णमंडल के प्रतिबिंब की संकीर्ण पट्टियों के फोटोग्राफ एक के बाद एक करके निश्चित वर्ण के प्रकाश में एक ही फोटोग्राफ पट्ट पर लिए जा सकते हैं और इस प्रकार संपूर्ण प्रतिबिंब का फोटोग्राफ लिया जा सकता है। सूर्यपृष्ठ के हाइड्रोजन तथा कैल्सियम परमाणुओं द्वारा विकिरण किए गए प्रकाश में लिए गए फोटोग्राफ ने उन घटनाओं को प्रकट किया है जिनका कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था। इन प्रकाशों में लिए गए फोटोग्राफ एक-दूसरे से भिन्न लक्षण प्रकट करते हैं। हाइड्रोजन परमाणुओं के प्रकाश में लिए गए फोटोग्राफ यह बताते हैं कि वहाँ वे परमाणु किस भौतिक अवस्था में हैं तथा कैल्सियम के प्रकाश में लिए गए फोटोग्राफ यह बताते हैं कि द्वियनित कैल्सियम परमाणु किस भौतिक अवस्था में हैं।
अयनित कैल्सियम के प्रकाश में लिए गए फोटोग्राफों का प्रमुख लक्षण यह है कि वे कलंकों के समीप के अतवा विक्षोभ में आए हुए प्रकाशमंडल के भागों में कैल्सियम गैस के बड़े-बड़े दीप्तिमान मेघ प्रगट करते हैं। इसके विरुद्ध हाइड्रोजन के प्रकाश में लिए गए फोटोग्राफ प्रकाशमंडल पर चटने वाली सूक्ष्मतर घटनाओं को भी अधिक विस्तार से प्रगट करते हैं। इन फोटोग्राफों की पृष्ठभूमि में चमकते काले दाने होते हैं जिन पर चमकते एवं काले पतले तंतु (filament) प्रगट होते हैं और कलंक की परिधि के निकट के भाग जंतुओं से बने हुए दिखलाई देते हैं। कैल्सियम और हाइड्रोजन के फोटोग्राफों में इतना भिन्न-भिन्न भागों के रासायनिक संघटन के अंतर के कारण नहीं हो सकता क्योंकि सूर्य का वर्णमंडल इतना प्रक्षुब्ध (turbulent) होता है कि ऐसे अंतर अधिक समय तक विद्यमान नहीं रहत सकते। वास्तव में यह अंतर इन तत्वों के रासायनिक लवणों की भिन्नता के कारण उत्पन्न होता है। अधिकांश कैल्सियम परमाणु सरलता से फोटोग्राफ के लिए अभीष्ट प्रकाश का विकिरण करने में समर्थ होते हैं। इसके विरुद्ध लगभग दस लाख हाइड्रोजन परमाणुओं में केवल एक ही परमाणु की अभीष्ट वर्ण का प्रकाश विकिरण करने की उद्दीम किया जा सकता है। अत: हाइड्रोजन परमाणु उद्दीपन की दशा में अल्प से परिवर्तनों से भी प्रभावित हो जाता है। हाइड्रोजन का दीप्त मेघ यह प्रगट करता है कि वह भाग अत्यंत उष्ण है। इसी प्रकार काला मेघ भी यह प्रगट करता है कि उस भाग में ताप इतना है कि हाइड्रोजन परमाणु उद्दीपन की अवस्था में हैं क्योंकि सामान्य परमाणु विकिरण के लिए लगभग पारदर्शी हैं। अभी तक यह न जाना जा सका कि क्यों कुछ मेघ दीप्त होते हैं और कुछ काले। कदाचित् दीप्त मेघों के भागों का पदार्थ काले मेघों के भागों के पदार्थ की अपेक्षा अधिक उष्ण, सघन एवं विस्तृत है। दीप्त धब्बे स्पष्टत: प्रतुंगकों से संबद्ध हैं जिनका वर्णन आगे किया जाएगा। काले मेघों को कैल्सियम के प्रकाश में देखें अथवा हाइड्रोजन के प्रकाश में, वे भी रचना में साधारणत: पत्र जैसे होते हैं, परंतु कभी-कभी लंबे काले सर्प के आकार में भी दृष्टिगत होते हैं। ये लंबे काले मेघ भी सहस्रों धागों के बुने हुए होते हैं और कुछ दिनों तक विद्यमान रहते हैं। अंत में भयंकर विस्फोट के साथ अदृश्य हो जाते हैं। ये काले मेघ भी प्रतुंगक ही हैं जो प्रकाश मंडल की दीप्त पृष्ठभूमि में काले दिखाई देते हैं। वे कैल्सियम के प्रकाश की अपेक्षा हाइड्रोजन के प्रकाश में अधिक विशिष्ट दिखलाई देते हैं।
कणिकायन (Granulations)-कैल्सियम अथवा हाइड्रोजन के प्रकाश में लिए गए फोटोग्राफों में पकाए हुए भात के समान दिखाई देने वाले विकारों को कणिकायन कहते हैं। यह कणिकायन विकार प्रकाशमंडल की अपेक्षा कुछ अधिक दीप्त होते हैं और इनके व्यास ७२०-२०८० किमी तक होते हैं। कीनन के मतानुसार प्रतिरक्षण संपूर्ण सूर्यबिंब पर २५ लाख से अधिक कण विद्यमान होते हैं। अभी तक यह पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सका है कि ये कण क्यों उत्पन्न होते हैं और इनके भौतिक लक्षण क्या हैं। कुछ ज्योतिषियों का मत है कि ये कण प्रकाशमंडल पदार्थ में विद्यमान तरंगों के शिखर हैं जिनका ताप निकट के पदार्थ की अपेक्षा अधिक है।
सूर्य कलंक (Sunspot) कुछ कलंक अकेले प्रगट होते हैं, परंतु अधिकांश कलंक दो या दो से अधिक के समूहों में प्रगट होते हैं। प्रत्येक कलंक को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है: केंद्रीय कृष्ण भाग तथा उसके आसपास का श्यामल (Blackish) भाग। कलंक अनेक परिमाण के होते हैं। सबसे छोटे कलंक का परिमाण जो अब तक देखा गया है कुछ सौ किमी के लगभग होता है और ऐसे ही छोटे कलंकों की संख्या सबसे अधिक होती है। इस कथन का अर्थ यह नहीं कि सूर्यबिंब पर इनसे छोटे परिमाण के कलंक नहीं हैं अथवा नहीं हो सकते हैं। यदि इनसे छोटी माप के कलंक हों, तो भी उनका अवलोकन संभव नहीं क्योंकि एक विशेष परिमाण से छोटे कलंक दूरदर्शी की सहायता से भी नहीं देखे जा सकते। बड़े-बड़े अकेले कलंकों की माप ३२,००० किमी. से भी अधिक हो सकती है और कलंकयुग्म की माप १६,००,००० किमी से भी अधिक हो सकती है। यही नहीं, कलंकों के द्वारा उत्पन्न किए हुए विक्षोभ तो उनके आस-पास बड़े विस्तृत भाग में फैल जाते हैं। सबसे बड़ा सूर्यकलंक सन् १९४७ में दृष्टिगत हुआ था जो सूर्यबिंब के लगभग १ प्रतिशत क्षेत्र में फैला था।
कलंक स्थायी रूप से विद्यमान नहीं रहते। ये उत्पन्न होते हैं और कुछ समय के पश्चात् विलीन हो जाते हैं। उनका जीवनकाल उनकी माप के अनुपात में होता है, अर्थात् छोटे कलंक अल्पजीवी होते हैं और वे कुछ घंटों से अधिक विद्यमान नहीं रहते। इसके विपरीत बड़े कलंकों का जीवनकाल कई सप्ताह तक होता है।
ऐसा देखा गया है कि कलंक, प्रकाशमंडल के विशेष भागों में ही प्रगट होते हैं। (पृथ्वी की भाँति प्रकाशमंडल पर भी विषुवत् वृत्त की कल्पना की गई है) विषुवत् वृत्त के दोनों ओर लगभग ४ अंश तक के प्रदेश में अत्यंतश् कम कलंक देखे गए हैं। इन प्रदेशों से आगे लगभग ४० अक्षांतर तक प्रसारित भाग में कलंक अधिकता से उत्पन्न होते हैं। ४० अंक्षातर से आगे कलंकों की संख्या कम होती जाती है, यहाँ तक कि ध्रुवों पर आज तक कोई कलंक नहीं देखा गया है।
जर्मन ज्योतिषी स्वाबे ने १९वीं शताब्दी के प्रारंभ में लगभग २० वर्ष तक कलंकों का अवलोकन किया। वे प्रति दिन सूर्यबिंब पर दृष्टिगत होने वाले कलंकों की संख्या गिन लेते थे और इस प्रकार तिथि के विचार से उन्होंने वृहत् सारणी तैयार की जिसके आधार पर वे यह बता सके कि कलंकों की संख्या में नियमित रूप से परिवर्तन होता है। कुछ दिनों और कभी-कभी कुछ सप्ताहों तक सूर्यबिंब पर भी कलंक दृष्टिगत नहीं होता। इस काल को कलंक अल्पिष्ट (Spot minimum) कहते हैं। फिर धीरे-धीरे प्रति दिन कलंकों की संख्या बढ़ने लगती हैं, यहाँ तक कि कुछ समय के पश्चात् ऐसा काल आता है जिसमें कोई भी दिन ऐसा नहीं होता जब अनेक कलंक तथा कलंक समूह दृष्टिगत न हो। इस काल को कलंक महत्तम (Spot maximum) कहते हैं। कलंक महत्तम के पश्चात् कलंकों की संख्या धीरे-धीरे घटने लगती है और फिर कलंक न्यूनतम आ जाता है। एक कलंक न्यूनतम से अगले कलंक न्यूनतम तक माध्य रूप से ११ वर्ष लगते हैं। इस अवधि को कलंकचक्र कहते हैं। कुछ कलंक चक्रों में इस माध्य अवधि से ४-५ वर्ष अधिक अथवा न्यून हो सकते हैं।
कलंकों की आंतरिक गति-ऐवरशेड ने सन् १९०९ में कलंकों के स्पेक्ट्रम पट्ट में डाप्लर प्रभाव पाया जिसके अध्ययन ने यह प्रगट किया कि गैस कलंक केंद्र से परिधि की ओर त्रिज्या की दिशा में वहन करती है। इस गति में प्रवेग का परिणाम केंद्र पर शून्य होता है और ज्यों-ज्यों कलंक के कृष्ण भाग की परिधि की ओर किसी भी त्रिज्या की दिशा में जाएं, परिमाण में वृद्धि होती जाती है, यहाँ तक कि परिधि पर वह दो किमी प्रति सेकेंड हो जाता है। श्यामल भाग में प्रवेग परिमाण घटने लगता है और अंत में श्यामल भाग की परिधि पर वह शून्य उर्जा प्राप्त कर लेता है। सन् १९१३ में सेंट जोन के अधिक विस्तृत अध्ययन ने प्रगट किया कि कलंकों के निम्न स्तरों में गैस कलंक के अक्ष से बाहर की ओर बहुन करती है तथा ऊपरी स्तरों में अक्ष की ओर। आगे चलकर अबेट्टी (१९३२) ने यह ज्ञात किया कि कुछ कलंकों में कृष्ण भाग की परिधि पर प्रवेग ६ किमी प्रति सेकंड तक हो जाता है और इस अरीयगति के अतिरिक्त गैस १ किमी प्रति क्षण के लगभग प्रवेग के अक्ष का परिभ्रमण भी करती है। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि गैस अक्ष के समीप निम्न स्तरों से ऊपर उठती है तथा परिधि के समीप निम्न स्तरों की ओर अवतरण करती है और साथ ही साथ वह कलंक के अक्ष का परिभ्रमण भी करती है। अत: गैस की गति के विचार से कलंक को एक प्रकार का भ्रमर कह सकते हैं।
कलंकों का चुंबकत्व क्षेत्र-कलंकों के अधिकांश चुंबकीय लक्षणों का अध्ययन सन् १९०८ और १९२४ के बीच में माउंट विलयन की वेधशाखा में हेल एवं निकोलसन (१९३८) द्वारा किया गया था। इस अध्ययन के आधार पर निम्नलिखित तथ्य ज्ञात किए गए हैं: (१) ऐसा कोई भी अवलोकित कलंक नहीं जिसमें चुंबकत्व क्षेत्र विद्यमान न हो। (२) कलंक केंद्र पर बलरेखाएँ लगभग उदग्र होती हैं और परिधि के निकट वे उदग्र के साथ लगभग २५ अंश का कोण बनाती हैं। (३) चुंबकीय क्षेत्र का परिमाण कलंक के क्षेत्रफल पर निर्भर होता है। सबसे छोटे कलंकों में क्षेत्र परिमाण लगभग १०० गाउस और बड़े-बड़े कलंकों में ४००० गाउस तक पाया जाता है। (४) क्षेत्र परिमाण केंद्र के परिधि की ओर घटता जाता है। (५) चुंबकत्व के विचार से कलंक तीन वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं: (क) एकध्रुवीय, (ख) द्वध्रुिवीय और (ग) बहुध्रुवीय। एकध्रुवीय कलंक के संपूर्ण विस्तार में एक ही प्रकार की ध्रुवता रहती है। द्वध्रुिवीय कलंक एक प्रकार की कलंक शृंखला है जिसके पूर्ववर्ती तथा अनुवर्ती भागों की ध्रुवता एक-दूसरे से विपरीत होती है। 'ग' वर्ग के कलंक समूह में दोनों प्रकार की ध्रुवता इस अनियमित रूप से प्रगट होती है कि वह 'ख' वर्ग में नहीं रखा जा सकता। (६) अवलोकित कलंकों में से अधिकांश द्वध्रुिवीय होते हैं, जैसा निम्न सारणी से प्रगट होगा, जो हेल और निकोलसन के अध्ययन के आधार पर बनाई गई है:
प्रेक्षित कलंकों की संख्या
वर्षश्श् एकध्रुवीय द्वध्रुिवीयश् बहुध्रुवीय अन्य
१९१७ ४४ ५३ १ १७
१९१८ ४७ ५१ १ १६
१९१९ ४६ ५१ २ १८
१९२० ४७ ५० २ १६
१९२१ ४७ ५१ २ २५
१९२२ ४६ ५० ५ २६
१९२३ ३६ ६४ ० २१
१९२४ ४० ५९ १ १८
वास्तव में द्वध्रुिवीय कलंकों की संख्या सारणी में दी गई संख्या से अधिक होती है क्योंकि अधिकांश एकध्रुवीय कलंक पुराने द्वध्रुिवीय कलंक हैं जिनके पूर्ववर्ती भाग नष्ट हो गए हैं।
ध्रुवता नियम-सन् १९१३ में हेल और उनके सहयोगियों ने ज्ञात किया कि नवीन कलंकचक्र में प्रत्येक गोलार्ध में कलंकों की ध्रुवता का क्रम गतिचक्र के क्रम के विपरीत होता है। इस प्रकार एक संपूर्ण चक्र में दो अनुगामी कलंकचक्रों का समावेश होना चाहिए और उसकी अवधि लगभग २२-२३ वर्ष होनी चाहिए।
आठ कलंकों के स्पेक्ट्रम पट्ट का अध्ययन यह प्रगट करता है कि उसमें अणुओं की रेखाएँ उपस्थित होती हैं। धातुओं के अनायनित परमाणुओं की रेखाएँ गहरी हो जाती हैं और वे रेखाएँ, जिनकी उत्पत्ति के लिए अधिक उद्दीपन की आवश्यकता होती है, क्षीण हो जाती हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कलंक का ताप प्रकाशमंडल के ताप से लगभग २००० अंश कम होता है।
काउलिंग ने सन् १९४६ में पहली बार क्षेत्र के उद्विकास का अध्ययन किया। उन्होंने देखा कि कलंक के प्रगट होने के साथ ही साथ चुबकीय क्षेत्र भी प्रगट होता है और उसका परिमाण पहले शीघ्रता से और फिर कलंक के जीवनकाल के अधिकांश भाग में अचल रहकर अंत में शीघ्रता से विलीन हो जाता है। उनका मत है कि चुंबकीय क्षेत्र कलंकों के प्रगट होने के पहले भी निम्न स्तरों में विद्यमान रहता है और कलंक के प्रगट होने के साथ ही साथ वह किसी न किसी प्रकार कलंक के ऊपरी तल तक आ जाता है।
उर्णिका (Flocculus) -सूर्य कलंक प्रचंड क्रियाओं का घटनाक्रम है। कभी-कभी तो ऐसा देखा गया है कि कलंक प्रगट होने के पूर्व उस स्थान की भौतिक अवस्था में कुछ ही मिनटों में अत्यंत गंभीर परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार कलंक के विलीन होने के पश्चात् कई दिनों और कभी-कभी तो कई सप्ताहों तक उस स्थान पर दीप्तिमान नाड़ियाँ (Viens) सी बनी रहती हैं जो उर्णिकाएँ कहलाती हैं। ये उर्णिकाएँ अनेक अनियमित खंडों और बल खाई हुई तंतुओं की बनी हुई होती हैं जो प्रकाशमंडल से लगभग १५ प्रतिशत अधिक दीप्त होती हैं। उर्णिकाएँ सूर्यकलंक के दृष्टिगोचर होने के पश्चात् भी कुछ समय तक बनी रहती हैं। प्रचलित मतों के अनुसार उर्णिकाएँ प्रकाशमंडलीय गैस हैं जो कलंक में होने वाली भीषण क्रियाओं द्वारा आसपास के समतल से ऊपर उठा दी गई है। क्योंकि यह गैस अधिक ताप के प्रवेश से आती है, कुछ समय तक आसपास की गैस से अधिक उष्ण रहती है फलत: अधिक दीप्तिमान होती है। इस प्रकार उर्णिकाएँ को सूर्य के पृष्ठ पर उठी हुई अस्थायी पर्वतश्रेणियाँ कह सकते हैं जिनकी ऊँचाई ८ किमी से कुछ सौ किमी तक होती है।
सूर्य का अक्षीय परिभ्रमण-यदि कुछ दिनों तक भिन्न-भिन्न अक्षांतरों में स्थित कलंकों की गति का प्रेक्षण करें तो देखेंगे कि वे सूर्यबिंब पर पूर्व से पश्चिम की ओर इस प्रकार वहन करते हुए प्रतीत होते हैं जैसे वे एक-दूसरे से दृढ़तापूर्वक बँधे हुए हों। नवीन कलंक पूर्वीय अंग पर प्रगट होते हैं और सूर्यबिंब पर वहन करते हुए पश्चिमी अंग पर अदृश्य हो जाते हैं। वे एक अंग से दूसरे अंग तक जाने में लगभग एक पक्ष लेते हैं। कलंकों की इस सामूहिक गति से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि सूर्य की अपने अक्ष पर, पूर्व से पश्चिम की ओर, पृथ्वी की भाँति परिभ्रमण करता है। परिभ्रमण अक्ष के लंबरूप, सूर्य के केंद्र में होकर जाने वाला, समतल प्रकाशमंडल का एक दीर्घवृत्त में छेदन करता है। यही दीर्घवृत्त विषुवत्वृत्त है। परिभ्रमण का नाक्षत्रिक आवर्तकाल लगभग २५ दिन है। सूर्य दृढ़काय के सदृश परिभ्रमण नहीं करता, भिन्न-भिन्न अक्षांतरों में परिभ्रमण की गति भिन्न होती है। विषुवत् वृत्तीय क्षेत्रों की गति ध्रुवीय क्षेत्रों की गति से अधिक होती है। प्रथम क्षेत्र के परिभ्रमण का नाक्षत्रिक आवर्तकाल लगभग २४� दिन तथा द्वितीय क्षेत्र का नाक्षत्रिक आवर्तकाल लगभग ३४ दिन है। यहाँ यह लिखना आवश्यक है कि ध्रुवीय क्षेत्रों के आवर्तकाल का निश्चय कलंकों की गति से नहीं किया जा सकता क्योंकि उस भाग में वे प्रगट नहीं होते। अत: उसका निश्चय स्पेक्ट्रम में गति से उत्पन्न होने वाले प्रभाव के आधार पर, जिसे डाप्लर प्रभाव कहते हैं, किया जाता है। न्यूटन और नन (१९५१) ने सन् १८७८ से १९४४ तक के सूर्यकलंकों के अध्ययन के आधार पर कोणिक प्रवेग उ और अक्षांतर फ में निम्नांकित संबंध दिया है। उ = 14.38�- २.७७ ज्या२फ।
सूर्य का गैस मंडल-सूर्य का गैस मंडल तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है: (१) प्रतिवर्ती स्तर (Reversing layer), (२) वर्णमंडल (Chromosphere) और (३) सौर किरीट (Corona) । इनका वर्णन यथास्थान किया जाएगा।
सूर्य का स्पेक्ट्रम पट्ट
सूर्य का विपाकी ताप-तारा भौतिकी के प्रकरण में वर्णित साधनों के आधार पर सूर्य का विपाकी ताप लगभग ६००० अंश परम पर स्थिर किया गया है।
सौर स्थिरांक-सौर स्थिरांक ऊर्जा की वह मात्रा है जिससे पृथ्वी तल पर सूर्य किरणों के लंब रूप स्थित १ वर्ग सेमी क्षेत्रफल के फलक पर संपूर्ण तरंग आयामों का विकिरण प्रति मिनट निपात करता है। इसको निश्चित करने का सर्वप्रथम प्रयास लेंगले सन् १८९३ में स्वरचित बोलोमीटर की सहायता से किया। उसने इसका मान २.५४ कैलोरी प्रति मिनट स्थिर किया। तत्पश्चात् अनेक बार उत्तरोत्तर अधिकाधिक शोधित यंत्रों द्वारा इस स्थिरांक को निश्चित करने के प्रयास किए गए। पृथ्वी के वायुमंडल के प्रचूषण के लिए प्रेक्षित सामग्री को शुद्ध करने के लिए उसमें कितनी मात्रा का संशोधन करना चाहिए, इस विषय में बड़ा मतभेद है, परंतु ऐलन द्वारा सन् १९५० के संशोधन के अनुसार इसका मान १.९७ कैलोरी प्रति मिनट है। वायुमंडल के प्रचूषण का निराकरण करने के उद्देश्य से आजकल राकेटों की सहायता ली जाती है। इनमें रखे गए यंत्र पृथ्वी तल से १०० किमी की ऊँचाई पर जाकर आवश्यक प्रेक्षण सामग्री एकत्र करते हैं। इस विधि ने स्थिरांक की माप लगभग २.०० कैलोरी प्रति मिनट निश्चित की है।
सूर्य के गैस मंडल का रासायनिक संघटन-यदि सूर्य को घेरे हुए गैस मंडल न होता तो स्पेक्ट्रम पट्ट संतानी होता और उसमें फॉउनहोफर रेखाएँ अनुपस्थित होतीं। परंतु सूर्य के स्पेक्ट्रम पट्ट में ये रेखाएँ बड़ी संख्या में प्रगट होती हैं। इनके अध्ययन से यह ज्ञात किया गया है कि गैस मंडल में कौन-कौन से तत्व उपस्थित हैं। अब तक यहाँ २१ लाख तत्व पहचाने जा चुके हैं जो उपर्युक्त सारणी में दिए गए हैं। प्रत्येक तत्व के सम्मुख उसकी मात्रा भी तुलना के लिए दी गई है जो यह प्रगट करती है कि वह तत्व किस मात्रा में उपस्थित है। इस सारणी के तृतीय स्तंभ में प्रकाशमंडल के एक वर्ग सेमी क्षेत्रफल पर उदग्र दिशा में खड़े किए गए गैस के स्तंभ में विद्यमान तत्वों की मात्रा दी गई है।
सूर्य के गैस मंडल में तत्वों की उपस्थिति
तत्व आयतन प्रतिशत भार (मिग्रा प्रति
वर्ग सेमी)
हाइड्रोजन ८१.७६० १२००
हीलियम १८.१७० १०००
कार्बन ०.००३००० ०.५
नाइट्रोजन ०.०१०००० २.०
ऑक्सीजन ०.०३०००० १०.०
सोडियम .०००३०० ०.१
मैग्नीशियम .०२०००० १०.०
ऐलूमिनियम .०००२०० ०.१
सिलिकन .००६००० ३.०
गंधक .००३००० १.०
पोटैशियम .०००१० ०.००३
कैल्सियम .०००३०० ०.२०
टाइटेनियम .०००००३ ०.००३
वेनेडियम .०००००१ ०.००१
क्रोमियम .०००००६ ०.००५
मैंगनीज .००००१० ०.०१
लौह .०००८०० ०.६०
कोबाल्ट .०००००४ ०.००४
निकल .०००२०० ०.२०
ताँबा .०००००२ ०.००२
जस्ता .००००३० ०.०३
पृथ्वी के तल में भी ये विद्यमान हैं। कैल्सियम, लौह, टाइटेनियम और निकल जैसे भारी धातुओं की उपस्थिति सूर्य के गैस मंडल और भूपर्पटी (earthcrust) में लगभग एक सा ही है, परंतु हाइड्रोजन, हीलियम, नाइट्रोजन आदि हलके तत्वों की उपस्थिति सूर्य के गैस मंडल में भूपर्पटी की अपेक्षा बहुत अधिक है।
सूर्य का साधारण चुंबकत्व क्षेत्र-स्पेक्ट्रम रेखाओं में विद्यमान जेमान प्रभाव (Zeeman effect) के अध्ययन के आधार पर हेल (१९१३) ने बताया कि सूर्य एक चुंबकीय गोला है जिसके ध्रुवों पर चुंबकत्व क्षेत्र का उदग्र परिमाण लगभग ५० गाउस है। हेल, सीअरस, वान मानन और ऐलरमेन के सन् १९१८ तक के विस्तृत अध्ययन ने प्रगट किया कि हेल द्वारा निश्चित परिमाण वास्तविक परिमाण की अपेक्षा बहुत अधिक है और ध्रुव पर उसका परिमाण लगभग २५ गाउस होना चाहिए। कुछ वर्षों तक सूर्य के चुंबकीय क्षेत्र का परिमाण निश्चित नहीं हो सका। सन् १९४८ में बेबकाक ने अपने माउंट विलयन की वेधशाला में किए गए वर्षों के अध्ययन के आधार पर बतलाया कि सूर्य के चुंबकीय क्षेत्र का परिमाण शून्य से ६० गाउस तक कुछ भी हो सकता है। उनका मत है कि सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र परिवर्तनशील हो सकता है। (प्रभुलाल भटनागर)