सूरदास हिंदी साहित्य के लोकप्रिय महाकवि हैं, जिन्हें भारतीय जन 'भाषा-साहित्य-सूर्य' की उपाधि से विभूषित कर नित्य नमन करता आ रहा है। आपकी जीवनी पर सत्य रूप से प्रकाश डालने वाले कितने ही समसामयिक पूर्वापर के 'सांप्रदायिक' अर्थात् 'पुष्टिमार्गीय' तथा इतर 'भक्त-गुण-गायक' ग्रंथ हैं। इनमें प्रमुख हैं-चौरासी वैष्णवन की वार्ता: श्री गोकुलनाथ (स. १६०८ वि.); वार्ता टीका-'भावप्रकाश': श्री हरिराय (सं. १६६० वि.); वल्लभ दिग्विजय: श्री यदुनाथ (सं. १६५८ वि.); संस्कृत वार्ता मणिमाला: श्रीनाथ भट्ट (सं. अज्ञात); संप्रदायकल्पद्रुम: विट्ठल भट्ट (सं. १७२९ वि.); भाव संग्रह: श्रीद्वारकेश (सं. १७६० वि.); अष्टसखामृत: प्राणनाथ कवि (सं. १७६७ वि.); धौल संग्रह: जमुनादास (सं. अज्ञात); वैष्णव आह्निक पद: श्री गोपिकालंकार (सं. १८७९ वि.) और इतर ग्रंथ-भक्तमाल: नाभादास (सं. १६६० वि.); भक्तमाल टीका: प्रियादास (सं. १७६९ वि.); भक्तनामावली: ध्रुवदास (सं. १६६८ वि.); भक्तविनोद: कवि मियाँसिंह (सं. अज्ञात); नारायण भट्ट चरितामृत: जानकी भट्ट, (सं. १७२२ वि.); राम रसिकावली: रघुराजसिंह रीवाँ नरेश (सं. १९३३ वि.); मूल गुसांईं चरित: वेणीमाधव दास (सं. अज्ञात)। इनके सिवा अन्य भावाग्रंथों में आईने अकबरी, मुतखिब उल् तवारीख़, मुंशियात अबुल फ़जल आदि आदि. . .। इधर नई खोज में प्राप्त सूर जीवनी पर प्रकाश डालने वाली एक कृति विशेष 'भक्तविहार' और मिली है, जिसे सं. १८०७ वि. में कवि 'चंद्रदास' ने लिखा है। उसमें अनेक भक्त कवियों के इतिवृत्त के साथ 'सूरदास जी' के जीवन पर भी एक तरंग-'सूर सागर: अनुराग' नाम से लिखी है। इनसब संदर्भ ग्रंथों के आधार पर कहा जाता है कि श्रीसूरदास जी का जन्म वैशाख शुक्ला पंचमी या दशमी, सं. १५३५ वि.को दिल्ली के पास 'सीही' ग्राम में पं. रामदास सारस्वत ब्राह्मण के यहाँ हुआ। वे जन्मांध थे (श्री हरिराय कृत वार्ता टीका भावप्रकाश के अनुसार सिलपट्ट अंधे, बरोनियों से रहित पलक जुड़े हुए) बाद में आप पुराण प्रसिद्ध गोघाट, रेणुका क्षेत्र (रुनक्ता), आगरा के पास आकर रहने लगे। यहीं आप सं. १५६५ वि. में श्रीवल्लभाचार्य जी (सं. १५३५ वि.) की शरण यह कहने पर हुए, 'सूर हैं कैं काहे घिघियात हो' और तभी भगवल्लीला संबंधी प्रथम यह पद गाया-'ब्रज भयौ मैहैर कें पूत, जब यै बात सूँनी।'श् तदुपरि आप श्रीवल्लभाचार्य जी के साथ गोघाट से गोवर्धन आ गए और 'श्रीनाथजी'-गोवर्धननाथ जी की कीर्तन सेवा करते हुए चंद्रशेखर, परासौली गाँव में, जो गोवर्धन से निकट हैं, रहने लगे। सं. १६४० वि. में आपका निधन-'श्री गोस्वामी विट्ठलनाथ जी (सं. १५७२ वि.), कुंभनदास (सं. १५२५ वि.), गोविंदस्वामी (सं. १५६२ वि. के पास), चतुर्भुजदास (सं. १५८७ वि. के पास) अष्टछाप के कवि और प्रसिद्ध गायक रामदास (सं. अज्ञात) के सम्मुख'-'खजन नैन रूप रस माँते' पद को गाते-गाते हुआ। इस संप्रदाय-ग्रंथ-अनुमोदित प्रामाणिककल्प आपके चारु चरित्र के अपवाद में कुछ दूर की कौड़ी लाने वाले मनमौजी सूर जीवनी लेखकों ने आपको 'जाट, भाट और ढाँढ़ी' भी बताया है, जो सत्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
पुष्टि संप्रदाय में सूर-जीवन-संबंधी कुछ जनश्रुतियाँ भी बड़ी मधुर हैं। तदनुसार आप देह रूप में 'उद्धव अवतार', भगवल्लीला रूप में 'सुबल वा कृष्णसखा' और नित्यरसपूरित निकुंजलीला में 'चंपकलता' सखी थे। पद रचनाओं में प्रयुक्त आपके छापों (नामों) 'सूर, सूरदास, सूरज, सूरजदास और सूरस्याँम' के प्रति भी एक वार्ता विशेष कही सुनी जाती है, जिसके अनुसार आपको 'सूर' नाम से श्रीवल्लभाचार्य जी पुकारा करते थे तथा कहते थे-'जैसे सूर (वीर पुरुष) होई सो रन (रण) में पाँव पाछौ नाहीं देइ (और) सब सौं आगें चले। तैसे ई सूरदास की भक्ति (में) दिन दिन बढ़ती दसा भई, तासों आचार्य जी सूरदास को 'सूर' (वीर) कहते, तापें आपने या छाप के पद किए। गो. विट्ठलनाथ जी सूरदास को 'सूरदास' ही कहते, कारण आप (सूरदास) में ते 'दास भाव' कभू गयो नाँही, नित-नित बढ़तो भयौ और ज्यों ज्यों लीला को अनुभव अधिक भयौ त्यों-त्यों सूरदास जी को दीनता अधिक भई। सो सूरदास जी को कबहू अहंकार मद भयौ नाँहीं, ताते आप-श्री गो. विट्ठलनाथ जी 'सूरदास' कहि बोलते। श्री स्वामिनी जी (श्री कृष्णप्रिये) आपको 'सूरज' और 'सूरदास' कहि पुकारते, कारन सूरदास जी ने 'श्रीस्वामिनी जी' के सात हजार पद किए, तामें सूरदास जी ने आपके अलौकिक भाव बरनन किए, तातें श्री कृष्णप्रिये ब्रजाधीश्वरी सूरदास को कहते 'जो ए सूरज (सूर्य) हैं, जैसे सूरज सों जगत में प्रकाश होइ, सो या प्रकार इन में (हमारे) सरूप को प्रकाश कियौ, सो आपने सूरदास के 'सूरज' और 'सूरजदास' नाम धरे। आपकी पद प्रयुक्त 'सूर स्याँम' छाप के प्रति कहा जाता है-'सूरजदास जी ने भगवल्लीला के सवा लाख पद रचिये कौ प्रन कियौ हो, सो सरीर छोड़ते समैं वौ प्रन पूरौ होत न देखि के आपको क्लेश भयौ, तब स्या वा लीलाबिहारी ने' प्रतच्छ है के सूरदास सों कही कि 'मैं' उन्हें पूरौ करौंगो, तुम चिंता मत करो, सो ठाकुर जी ने 'सूरस्याँमा' नाम सों पचीस हजार पदन की रचना करी सोऊ सूरदास जी के कहाए, तातें आपकौ 'सूरस्याँम' नाम हू कह्यौ सुन्यौं गया है। संप्रदाय में सूरदास जी के संबंध में एक और भी किंवदंती कही जाती है; उसके अनुसार आपके 'सेव्यनिधि' (पूजा की मूर्ति) 'श्याममनोहर जी' थे, जो आजकल चाँपासेनौ जोधपुर (राजस्थान) में विराज रहे हैं। यहीं नहीं, वहाँ आपके समय की पूर्ण 'सूरसागर' की प्रति भी विराजी हुई कही सुनी जाती है।
हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों, खोज विवरणों एवं जी. फिल् तथा डी. लिट् के लिए लिखे गए निबंध ग्रंथों और कुछ इतर ग्रंथों में श्री सूरदासरचित निम्नलिखित ग्रंथ माने गए हैं-'गोवर्धन लीला (छोटी बड़ी), दशमस्कंध भागवत: टीका, दानलीला, दीनता आश्रय के पद, नामलीला, पदसंग्रह, प्रानप्यारी (श्याम सगाई), बाँसुरी लीला, बाहरमासा वा मासी, बाललीला के पद, ब्याहुलौ, भगवच्चरण-चिन्ह-वर्णन, भागवत, मानलीला, मान सारंग, राधा-नख-सिख, राधा-रस-केलि-कौतुक, रामजन्म के पद, रामायण, रामलीला के पद, वैराग्यसत्तक, सूर छत्तीसी, सूर पच्चीसी, सूर बहोत्तरी-सूरसागर, सार, सूर साठी-इत्यादि। इन सब कृतियों में 'सूरसागर' प्रधान और सर्वमान्य है। इतर ग्रंथ, उनके विशाल सागर-'सबालच्छ पदबंद'-की ही लोल लहरियाँ हैं, पृथक् ग्रंथ नहीं। नई खोज में श्री सूरदास जी के कुछ स्वतंत्र ग्रंथ भी हमें मिले हैं, यथा: 'गोपालगारी, चीरहरण लीला, रुक्मिणीमंगल, सुदामा-चरित्र, सूर गीता, सूर सहस्रनामावली, सेवाफल'-आदि। हो सकता है-'गोपालगारी' से लेकर 'सुदामाचरित्र' तक के ग्रंथ भी आपके सागर के ही रत्न हैं; कारण, सूर के सागर का अभी तक पूर्ण अनुसंधान नहीं हुआ है। नागरीप्रचारिणी सभा, काशी ने सूरसागर के प्रति उल्लेखनीय कार्य किया है, किंतु उसे पूर्ण नहीं कहा जा सकता। सागर की अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ तब तक उसे उपलब्ध नहीं हो सकी थीं। सूरगीतादि आपके स्वतंत्र ग्रंथ हैं, और संप्रदाय की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। कुछ आपके सिर मढ़ी जाने वाली भी ग्रंथरूपेण कृतियाँ हैं। कुछ आपके सिर मढ़ी जाने वाली भी ग्रंथरूपेण कृतियां हैं। उनके नाम हैं-'एकादशी महात्म्य, नलदमन (नलदमयंती-काव्य), रामजन्म, साहित्यलहरी, सूरसावली, और हरिवंशपुराण। अस्तु, ये सब कृतियाँ भाव, भाषा और उनके अहर्निश 'कृष्ण-लीला-गान' में व्यस्त भक्तजीवन के विपरीत हैं, जिससे ये रचनाएँ आपकी जान नहीं पड़तीं, फिर भी आपके नाम की 'स्वर्णांकित' छाप के साथ चल रही हैं।
श्रीसूर का काव्यकाल सं. १५५० वि. से सं. १६० वि. तक कहा जा सकता है। इस नब्बे (९०) वर्षों के दीर्घ, पर सुनिश्चित समय में श्री गोवर्धननाथ जी के सान्निध्य में बैठकर श्रीसुर की वाणी ने भगवल्लीला का जो यशोद्घाटन विस्तार के साथ किया, वह अवर्णनीय है, अकथनीय है। साहित्य शास्त्रोक्त वे सभी मान्य गुण-रस, ध्वनि, अलंकार-के सच्चे आगार हैं। सच तो यह है कि इस हिंदी भाषा के मुकुटमणि कवि ने जिस विषय को भी छू दिया, वही साहित्य का उज्ज्वल चमकता रत्न बन गया। अथ से इति तक के सभी सूर-ग्रंथ-लेखकों ने आपकी रचनाओं के नाना भाँति से गुण गाए हैं।
सं. ग्रं. -खोज विवरण: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, १९०९ ई. से १९४० ई. तक। हिंदी साहित्य का इतिहास: डॉ. जार्ज ग्रियर्सन। शिवसिंह: करोज। मिश्रविनोद। हिंदी साहित्य का इतिहास: आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल। हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास: डॉ. रामकुमार वर्मा। सूर: एक अध्ययन: शिखरचंद्र जैन। सूर साहित्य: सूर साहित्य: पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी। सूरदास: आचार्य रामचंद्र शुक्ल; महाकवि सूरदास: डॉ. नंददुलारे वाजपेयी; सूरदास: नलिनीमोहन सान्याल; सूरदास: एक अध्ययन: रामरत्न भटनागर एम.ए.। सूर साहित्य की भूमिका: रामरत्न भटनागर एम.ए.। सूर निर्णय: द्वारिका पारीख। सूरसमीक्षा: नरोत्तम स्वामी एम.ए.। सूर की झाँकी: डॉ. सत्येंद्र। अष्टछाल और वल्लभ संप्रदाय: डॉ. दीनदयाल गुप्त। सूरदास का धार्मिक काव्य: डॉ. जनार्दन मिश्र। सूरदास-जीवनी और कृतियों का अध्ययन: डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा। सूरसौरभ: डॉ. मुंशीराम शर्मा। सूरदास और उसका साहित्य: डॉ. हरवंशलाल शर्मा। सूरदास: अध्ययन सामग्री: जवाहरलाल चतुर्वेदी, त्रिलोकी नाथ आदि।श्श् (जवाहरलाल चतुर्वेदी)