सूरति मिश्र का जन्म आगरा में कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ ता। इनके पिता का नाम सिंहमणि मिश्र था। ये बल्लभ संप्रदाय में दीक्षित हुए थे। इनके गुरु का नाम श्री गंगेश था। कविता क्षेत्र में इनका प्रवेश भक्ति विषयक रचनाओं के माध्यम से हुआ। 'श्रीनाथबिलास' इनकी प्रथम कृति है जिसमें इन्होंने कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। श्रीमद्भागवत के आधार पर 'कृष्णचरित्र' के प्रणयन के पश्चात् इन्होंने 'भक्तविनोद' की रचना की। इसमें भक्तों की दिनचर्या वर्णित है। 'भक्तमाल' में इन्होंने बल्लभाचार्य के शिष्यों का प्रशस्तिमान किया। भगवन्नाम स्मरण के लिए 'कामधेनु' नामक चमत्कारी रचना के अनंतर 'नखशिख' का निर्माण किया। मर्मज्ञ शास्त्राभ्यासी होने के कारण काव्य के विविध रूपों की ओर इनका झुकाव हुआ। पिंगल, कविशिक्षा, अलंकार, नायिकाभेद एवं रस से संबंधित क्रमश: 'छंदसार', 'कवि सिद्धांत', 'अलंकार माला', 'रसरत्न' तथा 'शृंगारसार' लिखा। रसरत्नमाला और रसरत्नाकर नामक रचनाएँ भी इनके नाम से संबद्ध बताई जाती है परंतु 'रसरत्न' के अतिरिक्त इनका पृथक् अस्तित्व नहीं है।

काव्य रचना के पश्चात् मिश्र जी पद्मबद्ध टीका की ओर उन्मुख हुए। सर्वप्रथम केशव की 'रसिकप्रिया' और 'कविप्रिया' की टीकाएँ इन्होंने प्रस्तुत कीं। रसिक प्रिया की इस टीका का नाम 'रसगाहक चंद्रिका' है। यह जहानाबाद के नसरुल्लाह खाँ के आश्रय में संवत् १७९१ में संपन्न हुई थी। खाँ साहब स्वयं कवि थे और रसगाहक उनका उपनाम था। जोधपुर के दीवान अमरसिंह के यहाँ इन्होंने बिहारी सतसईं की 'अमर चंद्रिका' टीका सं. १७९४ में पूर्ण की। तदनंतर सं. १८०० में बीकानेर नरेश जोरावर सिंह के आग्रह पर मिश्र जी ने 'जोरावरप्रकाश' प्रस्तुत किया। वस्तुत: यह 'रसगाहक चंद्रिका' का ही परिवर्तित नाम है। इसके अतिरिक्त संस्कृत के प्रसिद्ध प्रबोधचंद्रोदय नाटक तथा 'वैतालपंचर्विशतिका' का भी इन्होंने पद्ममय अनुवाद किया। तत्कालीन कवि समाज में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी।

रीति परंपरा के समर्थ कवि एवं टीकाकार के रूप में मिश्र जी का महत्वपूर्ण स्थान है।

सं.ग्रं. -खोजविवरण १९०६-०८, शिवसिंह सरोज; मिश्रबंधुविनोद; आचार्य रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास। (रामबली पांडेय)