सूदन सूदन ने अपनी रचना 'सुजानचरित्र' में अपना परिचय देते हुए कहा है 'मथुरापुर सुभ धाम, माथुरकुल उतपत्ति बर। पिता बसंत सुनाम, सूदन जानहू सकल कवि।' इससे स्पष्ट है कि सूदन मथुरावासी माथुर ब्राह्मण थे और उनके पिता का नाम बसंत था। कोई मकरंद कवि सूदन के गुरु कहे जाते हैं जो मथुरा के निवासी थे। कुछ लोग प्रसिद्ध कवि सोमनाथ को उनका गुरु मानते हैं। सूदन की पत्नी का नाम सुंदर देवी था जिनसे उन्हें तीन पुत्र हुए थे। भरतपुर नरेश बदनसिंह के पुत्र सुजानसिंह उपनाम सूरजमल ही इनके आश्रयदाता थे। वहीं के राजपुरोहित घमंडीराम से सूदन की घनिष्ठ मित्रता थी। अभी कुछ दिनों पूर्व तक उक्त राज्य से कविवंशजों को २५ रु. मासिक वृत्ति बराबर मिल रही थी। कृतित्व से सूदन बहुज्ञ और साहित्यमर्मज्ञ जान पड़ते हैं।

सूदन की एकमात्र वीररस प्रधान कृति 'सुजानचरित्र' जिसकी रचना उन्होंने अपने आश्रयदाता सुजानसिंह के प्रीत्यर्थ की थी। इस प्रबंध काव्य में संवत् १८०२ से लेकर संवत् १८१० वि. के बीच सुजानसिंह द्वारा किए गए ऐतिहासिक युद्धों का विशद वर्णन किया गया है। 'सुजानचरित्र' में अध्यायों का नाम 'जंग' दिया गया है। यह ग्रंथ सात जंगों में समाप्त हुआ है। किन्हीं कारणों से सातवाँ जंग अपूर्ण रह गया है। कवि का उपस्थितिकाल (१८०२-१८१० वि.) ही ग्रंथ-रचना-काल का निश्चय करने में सहायक हो सकता है। नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से जो 'सुजानचरित्र' प्रकाशित हुआ है उसमें उसकी दो प्रतियाँ बताई गई हैं-एक हस्तलिखित और दूसरी मुद्रित। इसमें हस्तलिखित प्रति को और भी खंडित कहा गया है। मंगलाचरण के बाद इसमें कवि ने बंदना के रूप में १७५ संस्कृत तथा भाषाकवियों की नामावली दी है। केशव की 'रामचंद्रिका' की भाँति ही इसमें भी लगभग १०० वर्णिक और मात्रिक छंदों का प्रयोग कर छंदवैविध्य लाने की कोशिश की गई है। ब्रजभाषा के अतिरिक्त अन्य अनेक भाषाओं का प्रयोग भी इसमें किया गया है।

कवित्व की दृष्टि से कवि की वर्णन-विस्तार-प्रियता और रूढ़ वस्तु-परिगणन-प्रणाली उसकी कविता को नीरस बना देती है। घोड़ों, अस्त्रों और वस्त्रों आदि के बहुज्ञता प्रदर्शनकारी वर्णन पाठकों को उबा देते हैं और सरसता में निश्चित रूप से व्याघात उपस्थित करते हैं। हिंदी में वस्तुओं की इतनी लंबी सूची किसी कवि ने नहीं प्रस्तुत की है। युद्ध वर्णन में भीतरी उमंग की अपेक्षा बाह्य तड़क-भड़क का ही प्राधान्य है। ' धड़धद्धरं धड़धद्धर।' भड़भभ्भरं भड़भभ्भर। तड़तत्तर तड़तत्तरं। कड़कक्करं कड़कक्करं।। जैसे उदाहरण से स्पष्ट है कि डिंगल के अनुकरण पर काव्य में ओज लाने के लिए कवि ने शब्दनाद पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है जिससे शब्दों के रूप बिगड़ गए हैं और भाषा कृत्रिम हो उठी है। भिन्न-भिन्न भाषाओं एवं बोलियों के प्रयोग रचना सौंदर्य को बढ़ाने के बजाय घटाते ही हैं। अप्रस्तुत योजना भी उसकी अनाकर्षक है। यद्यपि उसके युद्ध वर्णन सुंदर और सफल हुए हैं और वीररस से इतर शृंगारादि रसों पर भी उसका अधिकार है तथापि निष्कर्ष रूप में यही कहना पड़ता है कि 'सुजानचरित्र' का महत्व जितना ऐतिहासिक दृष्टि से है उतना साहित्यिक दृष्टि से नहीं।

सं.ग्रं. -आचार्य रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास, ना. प्र. सभा, वाराणसी; डॉ. उदयनारायण तिवारी: वीर काव्य; डॉ. टीकमसिंह तोमर: हिंदी वीर काव्य। (रामफेर त्रिपाठी)