सूक्ष्मदर्शी (Microscope) सूक्ष्मदर्शी एक प्रकाशकीय व्यवस्था (Optical System) है जिसके द्वारा सूक्ष्म आकार की वस्तुओं के विस्तारित और आवर्धित प्रतिबिंब प्राप्त किए जाते हैं। कुछ वर्ष हुए एक नवीन प्रकार के सूक्ष्मदर्शी का निर्माण हुआ जिसमें प्रकाश किरणावलि के स्थान पर इलैक्ट्रान किरणावलि का उपयोग किया जाता है। इस सूक्ष्मदर्शी को इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी (Electron Microscope) कहते हैं। साधारण बोलचाल में सूक्ष्मदर्शी को खुर्दबीन भी कहते हैं।

सूक्ष्मदर्शी का आविष्कार हालैंड निवासी जोनीडेस (Joannides) ने किया था। सूक्ष्मदर्शी ने मनुष्य को सूक्ष्म विश्व में प्रवेश करने की अभूतपूर्व क्षमता दी है। सैद्धांतिक अन्वेषणों में उपयोगी होने के अलावा सूक्ष्मदर्शी व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। प्राणिविज्ञान सूक्ष्मदर्शी (Biology), कीटाणु विज्ञान (Bactereology) और चिकित्सा विज्ञान के विकास के सूक्ष्मदर्शी का महत्वपूर्ण योग है। कारखानों में भी रेशों इत्यादि की परीक्षा में सूक्ष्मदर्शी का उपयोग होता है। सूक्ष्मदर्शी चार प्रकार के होते हैं-

-सरल सूक्ष्मदर्शी (simple microscope) अथवा आवर्धक।

-यौगिक सूक्ष्मदर्शी (compound microscope)

- अति सूक्ष्मदर्शी (ultramicroscope)

4-इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी (electron microscope)

सरल सूक्ष्मदर्शी- यह एक एकाकी उत्तल लेंस होता है अथवा इसमें ऐसी लेंस व्यवस्था होती है जो एकाकी उत्तल लेंस की तरह आचरण करती है। इसकी आवर्धक भी कहा जाता है।

सरल सूक्ष्मदर्शी द्वारा आवर्धित प्रतिबिंब निर्माण प्रदर्शित करता है जिस वस्तु का आवर्धित प्रतिबिंब प्राप्त करना होता है उसे आवर्धक लेंस के फोकस के निकट किंतु लेंस की ओर हटाकर रखा जाता है।

सरल सूक्ष्मदर्शी द्वारा प्राप्त आवर्धन M निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त किया जाता है।

M = 10/f + 1

अंक १० स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी सूक्ष्मदर्शी (least distance of distinct vision) को इंचों में व्यक्त करता है तथा fइंचों में आवर्धक लेंस का फोकस अंतर है।

गोलीय विपथन (Spherical aberration), वर्ण विपथन (Chromatic aberration), आर्बिंदुकता (Astigmatism), विकृति (Distortion) और वक्रता (Curvature) प्राय: प्रतिबिंबों के दोष होते हैं जो उनकी विशुद्धता में कमी लाते हैं। अच्छे आवर्धक में उक्त दोष न्यूनतम मात्रा में होने चाहिएँ। कुछ अच्छे आवर्धकों के नाम नीचे दिए जाते हैं;

१. ����� काडिंगटन आवर्धक (Coddington magnifier) -यह उभयोत्तल (double convex) लेंस होता है। इसकी पर्याप्त मोटाई होती है, जिसके मध्य में एक खाँच सूक्ष्मदर्शी (Groove) होती है। इस आवर्धक द्वारा निर्मित प्रतिबिंब अविंदुकता और वर्णपिपथन से दोषमुक्त होता है।

२. ����� हेस्टिंग्स का त्रिक लेंस (Hastings triplet) -इसमें तीन घटक (Component) लेंस होती है। द प्लिंट लेंसों के मध्य में एक युगलोत्तल लेंस सीमेंट किया हुआ होता है। यह आवर्धक वर्णविपथन, अबिंदुकता और वक्रता के दोष से रहित होता है।

यौगिक सूक्ष्मदर्शी-योगिक सूक्ष्मदर्शी की प्रकाशकीय व्यवस्था के निम्न प्रधान अंग हैं:

१. ����� अभिदृश्य लेंस या अभिदृश्य लेंस व्यवस्था।

२. ����� उपनेत्र (Eyepiece)

यौगिक सूक्ष्मदर्शी दो प्रकार के होते हैं, (१) एकाकी अभिदृश्य सूक्ष्मदर्शी (Single objective microscope), (२) द्वि अभिदृश्य सूक्ष्मदर्शी (Double objective microscope)। द्वितीय प्रकार का सूक्ष्मदर्शी दो एकाकी सूक्ष्मदर्शियों का युग्म होता है।

सूक्ष्मदर्शी अभिदृश्य-अच्छे सूक्ष्मदर्शी अभिदृश्य (Objective) का साधारणतया गोलीय विपथन और वर्णविपथन के दोष से रहित होना आवश्यक है। प्रथम दोष प्रतिबिंब की स्फुटता में कमी करता है; दूसरा दोष प्रतिबिंब को रंगीन बना देता है। गोलीय विपथन दूर करने के लिए एक दीर्घ अपवर्तक अवतल लेंस और एक लघु अपवर्तक उत्तललेंस का युग्म बनाया जाता है। वर्णविपथन हटाने के लिए एक दीर्घ वर्णविक्षेपण (High Dispersion) के अवतल लेंस को लघु वर्णविक्षेपण (Low Dispersion) के उत्तल लेंस के साथ मिलाया जाता है। दीर्घ अपवर्तनांक (High Refractive index) के लेंसों का वर्णविक्षेपण अधिक और लघु अपरवर्तनांक के लेंसों का वर्ण विक्षेपण कम होता है। इस प्रकार एक ही लेंस व्यवस्था को वर्ण विपथन और गोलीय विपथन के दोषों से रहित बनाया जा सकता है। कभी-कभी अधिक अवर्णकता और अगोलीयता प्राप्त करने के लिए सूक्ष्मदर्शी अभिदृश्य को १० लेंसों तक की व्यवस्था के रूप में बनाया जाता है। इस प्रकार की एक अभिदृश्यक व्यवस्था को अंग्रेजी में अति अवर्णी अभिदृश्यक (Apochromatic objective) कहते हैं। श्रेष्ठ प्रकार के सूक्ष्मदर्शी अभिदृश्य तैल निमज्जन (Oil immersion) किस्म के होते हैं। इस प्रकार के अभिदृश्य काफी अंश तक विपथन और अन्य दोषों से रहित होते हैं।

सूक्ष्मदर्शी का उपनेत्र (Eyepiece)- उपनेत्र का मुख्य काम अभिदृश्यक द्वारा निर्मित वास्तविक प्रतिबिंब का आवर्धन करना होता है। एक साधारण उपनेत्र दो लेंसों का युग्म होता है; पहला लेंस क्षेत्रलेंस (fieldlens) और दूसरा लेंस अभिनेत्र लेंस कहलाता है। क्षेत्रलेंस का काम होता है अभिदृश्यक से आने वाली किरणशलाका (Pencil of rays) को, उसकी अभिबिंदुकता अथवा अपबिंदुकता को कायम रखते हुए, उपनेत्र अक्ष (Eyepiece Axis) की ओर झुकाना। अभिनेत्रलेंस क्षेत्र लेंस से कुछ दूरी पर स्थित होता है और इसका काम क्षेत्रलेंस से आने वाली किरणों को समांतर या लगभग समांतर बनाना होता है, जिससे सूक्ष्मदर्शी में बनने वाला अंतिम प्रतिबिंब नेत्रों पर जोर डाले बिना देखा जा सके। साधारणतया सूक्ष्मदर्शियों में हाइगंस उपनेत्र (Huygens Eyepiece) का उपयोग होता है; किंतु जहाँ प्रेक्ष्य वस्तु का माप संबंधी विवरण प्राप्त करने की जरूरत होती है वहाँ रैम्सडन उपनेत्र (Ramsdens Eyepiece) काम में लाया जाता है।

प्रकाश संघारित्र (Condenser) -सूक्ष्मदर्शी से देखे जाने वाली वस्तुएँ सूक्ष्म आकार की होती हैं और उन पर पड़ने वाली सूर्य का लैंप की रोशनी काफी नहीं होती। वस्तु की प्रदीप्ति बढ़ाने के लिए उसके नीचे और लेंस व्यवस्था लगाई जाती है। इसका काम पदार्थ पर रोशनी संग्रह करना होता है। इस लेंस व्यवस्था को संघारित्र कहते हैं। यह संघारित्र दो प्रकार के होते हैं, (१) दीप्त नेत्र संघारित्र (Bright field condenser), (२) अतीप्त क्षेत्र संघारित्र (Dark field condenser)। प्रथम प्रकार के संघारित्र सूक्ष्मदर्शी में बनने वाले अंतिम प्रतिबिंब को दीप्त पृष्ठभूमि में दिखाते हैं। दूसरे प्रकार के संघारित्र प्रतिबिंब को चमकीली बनाकर उसे अदीप्त पृष्ठभूमि में दिखाते हैं। जीवविज्ञान संबंधी अध्ययन और गवेषणाओं में प्रयुक्त सूक्ष्मदर्शियों में प्राय: अदीप्त क्षेत्र संघारित्र का उपयोग होता है।

सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता (Magnifying power) और विभेदन क्षमता (Resolving power) -एक अच्छे सूक्ष्मदर्शी का उद्देश्य सूक्ष्म वस्तु के आकार का आवर्धन करके उसके अवयवों को अलग-अलग करके दिखाना होता है। आवर्धन का परिमाण सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता पर निर्भर करता है जब कि उसके अवयवों को अलग-अलग करने का संबंध सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्यक की विभेदन क्षमता पर निर्भर करता है।

सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता `M` निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त की जाती है:

M = LD/Ff

L = सूक्ष्मदर्शी नलिका की लंबाई, D = स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी। F और f क्रमश: अभिदृश्यक और उपनेत्र के फोकस अंतर है। अच्छे यौगिक सूक्ष्मदर्शी में बने हुए प्रतिबिंब का आकार प्रेक्ष्य वस्तु के आकार से ६००-१००० गुना बड़ा होता है। श्रेष्ठ सूक्ष्मदर्शियों का आवर्धन २५००-३००० तक होता है। सूक्ष्मदर्शी की विभेदन क्षमता वस्तु के प्रतिबिंब में अलग-अलग दिखाई देने वाले दो अवयवों की न्यूनतम दूरी के रूप में मापी जाती है। यदि यह दूरी S हो तो आबे (Abbe) के अनुसार-

S = 0.5)./usin q

Y = सूक्ष्मदर्शी में प्रवेश करने वाले प्रकाश का हवा में औसत तरंग दैर्ध्य। U = वस्तु दूरी का अपवर्तनांक।

q उसका अपवर्तनांक तथा अभिदृश्यक के अक्ष और उसमें प्रवेश करने वाली किरणों के बीच का महत्तम कोण

u sin q को सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्यक का आंकिक द्वारक (Numerical Aperture) कहते हैं।

तुल्यता सिद्धांत (Equivalence Theory) के अनुसार स्वत:दीप्त (self luminous) और परप्रदीप्त पदार्थों का आचरण सूक्ष्मदर्शी में प्रतिबिंब निर्माण की दृष्टि से एक सा होता है। इसके अनुसार,

S = 0.6ly/usin q

S की मात्रा जितनी कम होती है विभेदन क्षमता उतनी ही अधिक मानी जाती है।

अतिसूक्ष्मदर्शी (Ultramicroscope)-कभी-कभी जिन अत्यंत वस्तुओं के रूप और आकार का निरीक्षण करना असंभव होता है उनके अस्तित्व का पता लगाना ही उपयोगी होता है। यदि कोई प्रदीप्त कण, चाहे वह कितना ही छोटा हो, प्रचुर मात्रा में सूक्ष्मदर्शी की ओर प्रकाश का प्रकीर्णन (Scattering) करता हो तो एक चमकीले बिंदु के रूप में उसका प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। हैनरी सीडेंटाफ तथा रिचर्ड जिगमंडी (Henry Siedentopf and Richard Zsigmondy) ने सन् १९०५ में उपर्युक्त तथ्य लेकर एक व्यवस्था निर्माण की जिसमें एर आर्कलैंप (Arclamp) द्वारा प्रेक्ष्य कण पर सूक्ष्मदर्शी के अक्ष से समकोण की दिशा में प्रकाश डाला जाता है। कण द्वारा परावर्तित (Reflected) और विवर्तित (diffracted) प्रकाश सूक्ष्मदर्शी में प्रवेश करता है और एक चमकीले बिंदु के रूप में उसका परिवर्तित बन जाता है। इस व्यवस्था द्वारा .००००००८ सेंमी व्यास तक के पदार्थ दिखाई पड़ जाते हैं। इस सारी व्यवस्था को प्रतिसूक्ष्मदर्शी (Ultra microscope) कहते हैं।

इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी (Electron microscope) -यह अत्यंत सूक्ष्म पदार्थों के आवर्धित प्रतिबिंब निर्मित करने की इलेक्ट्रानीय (Electronic) व्यवस्था है। इसमें प्रकाश किरणों के स्थान में इलेक्ट्रान किरणों का उपयोग होता है। इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी का मूल आधार दे-ब्रोगली (de-Broglie) का द्रव्य तरंगों (Matter waves) का आविष्कार है। दे-ब्रोगली के अनुसार इलेक्ट्रान तथा अन्य सूक्ष्म द्रव्यकण तरंगों के समान आचरण करते हैं। इस तरंग की लंबाई,

Y = h/mv

जहाँ h प्लांक (Planck) का नियतांक है और mv इलेक्ट्रान या द्रव्यकण का संवेग (momentum) है।

सन् १९२६ में बुश (Busch) ने बतलाया कि अक्षीय समिति (Axial symmetry) युक्त विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र (Electric and magnetic fields) इलेक्ट्रान किरणों के लिए लेंस का काम करते हैं। उक्त तथ्यों को लेकर सन् १९३२ में इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी के निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ। सन् १९४०-४५ में इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी विश्वसनीय रूप से सूक्ष्मातिसूक्ष्म कीटाणुओं और द्रव्य कणों के अध्ययन का साधन बन गया। इस सूक्ष्मदर्शी द्वारा प्राप्त आवर्धन १०६ के लगभग तक हो सकता है। इसकी विभेदकता इलेक्ट्रान के तरंग दैर्ध्य पर निर्भर करती है। अभी कुछ दिन हुए, एक हीलियम आयन सूक्ष्मदर्शी का भी निर्माण हुआ है। हीलियम आयन की तरंगें इलेक्ट्रान की तरंगों से बहुत छोटी होती है। इस नए सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन एवं विभेदन क्षमता इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी से अधिक है। (बसंत लाल जैन)