सुब्बाराव, यल्ला प्रगडा (सन् १८९६-१९४८) इस मौन तपस्वी के बारे में लोग अधिक नहीं जानते। अमेरिका ने उसे 'चमत्कारी पुरुष' कहा है। इस मौन भारतीय प्रतिभा का जन्म मद्रास में एक क्लर्क के घर हुआ। सन् १९१८ में सुब्बाराव के भाई बहुत बीमार थे, उन्हें संग्रहणी हो गई थी। चिकित्सक असहाय थे, उनके पास दवा न थी। बाईस वर्षों के सुब्बाराव ने भाई को असहाय मरते देखा और वहीं शपथ ली कि मैं मानवता को इस हत्यारी स्प्रू से त्राण दिलाऊँगा।

उन्होंने मद्रास मेडिकल कालेज में प्रवेश लिया। चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त कर, वह इंग्लैंड गए। वहाँ डॉक्टर रिचार्ड स्ट्रांग को सुब्बाराव ने अपनी जिज्ञासा से इतना प्रभावित किया कि उन्हें अमरीका आने का नियंत्रण मिला। स्ट्रांग ने लिखा है, 'प्रश्नों की ऐसी बौछार कि उत्तर देना संभव न था, भाग्य में ऐसा विश्वास, ऐसी प्रबल जिज्ञासा मैंने कभी नहीं देखी-उनका उत्साह पागलपन की सीमा पर था।'

जेब में ७० रुपए लिए सुब्बाराव ने अमरीका की भूमि पर पैर रखा। यहाँ उन्होंने छोटे मोटे कार्य किए-पर लक्ष्य की ओर बढ़ते चले। हॉर्वर्ड और रॉकफेलर छात्रवृत्तियों ने उनकी सहायता की। सन् १९२५ से अगले तेईस वर्षों में उन्होंने रक्त में फास्फोरस की मात्रा निर्णय करने का 'रंग मापक' तरीका निकाला, मांसपेशियों की आकुंचन क्रिया पर नया प्रकाश डाला। इनके वैज्ञानिक लेखों ने पशुओं और जीवाणुओं के पोषण पर बहुमूल्य तथ्य प्रस्तुत किए, तथा इन्होंने पैलाग्रा की औषधि निकोटिनिक अम्ल (विटामिन बी का अंश) की पहचान, पृथक्करण और तैयारी में योग दिया। १९४० में सुब्बाराव को साइनामाइड कंपनी की लेडरली अनुसंधानशाला में सहकारी डाइरेक्टर का पद प्राप्त हुआ और दो वर्ष बाद वे प्रधान निदेशक हो गए। इनके अंतर्गत ३०० वैज्ञानिक कार्य करते थे। यहाँ उन्होंने अपनी शपथ पूरी की और 'स्प्रू' की अमोघ औषधि 'फोलिक एसिड' का आविष्कार किया। इनके नेतृत्व में 'टैरापटेरीन', 'सल्फामेथाज़ीन', 'आरोमायसीन' सी चमत्कारी औषधियों का आविष्कार हुआ। इनकी शोध ने कैंसर पर नया प्रकाश डाला तथा लीवर के रासायनिक तत्व पृथक् किए। श्लीपद रोग की अमोघ औषधि 'हेट्राजान' का आविष्कार भी इनके दल ने ही किया। सीरमअल्बुमेन का उत्पादन, टिटनस तथा गैस गैंग्रीन के टाक्सायड उत्पादन के नए संशोधित तरीके और लेडरली द्वारा पेनिसिलीन उत्पादन को संभव करने का श्रेय ख्याति से दूर भागने वाली इसी प्रतिभा को है।

डॉ. सुब्बाराव ने अपना जीवन मानवता के लिए अर्पित कर दिया था। वे प्रतिदिन औसत १८ घंटे कार्य करते थे। वह व्यक्तिगत श्रेय के विरुद्ध थे और तकनीकी युग में अन्वेषकों की टोली को श्रेय देते थे। वे उदार हृदय के और गुप्त रूप से दीन-दुखियों की सहायता करते थे। कड़े परिश्रम ने संसार से केवल ५२ वर्ष की अल्पायु में वह प्रतिभा छीन ली।

लेडरली प्रयोगशाला ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा है-'जो औषधियाँ अभी बरसों तक अज्ञात रहतीं उनकी खोज में जीवन अर्पित कर उन्होंने जिस नाम को छिपाना चाहा, वह इन औषधियों द्वारा हजारों की रक्षा कर प्रकाशमान होता जा रहा है।'

लेडरली अनुसंधानशाला ने अपने पुस्तकालय को 'सुब्बाराव मेमोरियल' बनाया है और बंबई के पास बुलसार में स्थापित लेडरली प्रयोगशाला उन्हीं को अर्पित है। श् (भानुंशकर मेहता)