सुधारांदोलन इंग्लैंड में संसदीय निर्वाचन संबंधी सुधारों के लिए होने वाले आंदोलन के तीन विभिन्न प्रेरणास्रोत थे: प्रथम, यह भावना कि निर्वाचन के लिए मतदान नागरिक का ऐसा अधिकार है जिसके बिना नागरिक स्वतंत्र नहीं माना जा सकता; द्वितीय, १८वीं शताब्दी के अंत में होने वाली आर्थिक क्रांति जिसने इंग्लैंड के सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया था; तृतीय, तत्कालीन निर्वाचन व्यवस्था की नित्य बढ़ती हुई अनियमितता। औद्योगिक क्रांति के प्रतिफलों ने जनतंत्र की भावना प्रसारित कर सुधार के लिए जनसहयोग की मात्रा में यथेष्ट वृद्धि कर दी थी। निर्वाचन संबंधी व्यवस्था में १५वीं शताब्दी से कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। हाउस ऑव कॉमंस के सदस्यों के निर्वाचन में अब भी काउंटी में मताधिकार केवल उन व्यक्तियों को प्राप्त था जिनके पास ४० शिलिंग वार्षिक मूल्य की भूमि थी। जनसंख्या की दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व में अद्भुद असमानता प्रचलित थी। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप बरमिंघम तथा मैनचेस्टर जैसे बहुत से नए नगरों का निर्माण हो गया था, परंतु उन्हें कोई प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त था। इतना ही नहीं, बरों में भूमिपति या तो अपने स्वामित्व द्वारा वहाँ का निर्वाचन नियंत्रित करते थे या फिर मतदाताओं को धन देकर आवश्यक मत क्रय कर लेते थे। फलत: सदन की लगभग आधी सदस्यता केवल व्यक्तिगत स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करती थी।

संसदीय सुधार संबंधी इस आंदोलन का प्रथम महत्वपूर्ण चरण सन् १७८० ई. में 'सोसाइटी फ़ॉर कांस्टिट्यूशनल इनफ़ारमेशन,' (Society for Constitutional Information) की स्थापना द्वारा प्रारंभ हुआ। इसके संरक्षक एवं प्रमुख नेता कार्टराइट (Cartwright) तथा हॉर्नटुक (Horntooke) थे। इसने वार्षिक संसद, सार्वभौम मताधिकार, सम निर्वाचन क्षेत्र, संसद सदस्यों के लिए संपत्ति की योग्यता का उन्मूलन, सदस्यों के वेतन, तथा गुप्त परिपत्र द्वारा मतदान की व्यवस्थाकी माँग की। इन माँगों को विधेयक के रूप में ड्यूक ऑव रिचमंड (Duke of Richmond) ने सन् १७८० ई. में सदन में प्रस्तावित किया, परंतु वह विधेयक स्वीकृत न हो सका। सन् १७९२ ई. में 'द फ्रेंड्स ऑव द पीप्लू' नामक दूसरी संस्था की स्थापना भी इसी उद्देश्य से हुई और ग्रे (Grey), बरडेट (Burdett) आदि नेताओं ने सदन से तत्संबंधी प्रस्ताव स्वीकृत कराने के कई प्रयत्न किए। परंतु फ्रांस की क्रांति तथा नैपोलियन के युद्धों के कारण राष्ट्र का ध्यान अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को और अधिक था। सन् १८१५ से सन् १८३० तक यदाकदा संसदीय सुधार का प्रश्न सदन के सम्मुख आता रहा। सन् १८३० ई. में सरकार से टोरी दल का आधिपत्य समाप्त होने पर, लार्ड ग्रे के नेतृत्व में संगठित नई व्हिग सरकार ने संसदीय सुधार का बीड़ा उठाया। फलत: सन् १८३२ में संसदीय सुधार विषयक विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत हो विधान के रूप में घोषित हुआ। इस विधान के तीन भाग थे: प्रतिनिधि भेजने के अधिकार के हरण से संबंधित, प्रतिनिधि भेजने के अधिकार से संबंधित, तथा मताधिकार के लिए आवश्यक योग्यताओं के प्रसार से संबंधित। पहले भाग के अंतर्गत एक बरो जो अपना एक सदस्य तथा ५५ छोटे-छोटे बरो जो अपने दो सदस्य सदन में भेजते थे, इस अधिकार से वंचित किए गए। इस प्रकार सदन के १४३ स्थान रिक्त हुए जिन्हें नए बरों में वितरित किया गया। ऐसे २२ बरों में जिन्हें अभी तक कोई प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त था, प्रत्येक को दो सदस्य प्राप्त हुए तथा अन्य २१ बरों में प्रत्येक को एक सदस्य मिला। इंग्लिश काउंटियों, स्कॉटलैंड, तथा आयरलैंड को क्रमश: ६५,८ तथा ५ अधिक सदस्य प्राप्त हुए। इस प्रकार सदन की समग्र सदस्य संख्या अपरिवर्तित रही। मताधिकार के लिए आवश्यक योग्यताओं को इस प्रकार प्रसारित किया गया कि लगभग ४,५५,००० व्यक्तियों को मताधिकार प्राप्त हुआ।

परंतु यह आंदोलन श्रमिक वर्ग को संतुष्ट करने में पूर्ण रूप से असफल रहा। वस्तुत: इसका प्रभाव श्रमिक वर्ग की पृष्ठभूमि में छोड़, मध्य वर्ग को राजनीतिक दृष्टि से सर्वोपरि बनाने में प्रतिफलित हुआ। श्रमिक वर्ग का असंतोष सन् १८३१-३८ के चार्टिस्ट आंदोलन (The Chartist movement) के रूप में व्यक्त हुआ। कालांतर में सन् १८३२, १८६७, १८८४, १८८५, १९१८, १९२८ तथा १९४८ ई. में निर्मित विधानों द्वारा हाउस ऑव कॉमंस पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया; राजनीतिक सत्ता बहुतों पर केंद्रीभूत हुई और कुलीनतंत्र के स्थान पर जनतंत्रात्मक सिद्धांत को प्रश्रय मिला।

सं.ग्रं. -एडम्स, जी.बी.: कॉन्स्टिट्यूशनल हिस्टरी ऑव इंग्लैंड, लंदन, १९५१; ऐन्सन, डब्ल्यू.आर.: द लॉ ऐंड कस्टम ऑव द कांस्टिट्यूशनल, लंदन १९०९; कियर, डी.एल.: द कॉन्स्टिट्यूशनल हिस्टरी ऑव माडर्न ब्रिटेन, लंदन, १९५३; बीच, जी.एस.: दि जेनेसिस ऑव पार्लमेंटरी रिफ़ॉर्म, लंदन, १९१२।

(राजेंद्र अवस्थी.)