सुधाकर द्विवेदी महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी अपने समय के गणित और ज्योतिष के उद्भट विद्वान थे। इनका जन्म वाराणसी के खजुरी मुहल्ले में अनुमानत: २६ मार्च, सन् १८६० (सोमवार संवत् १९१२ विक्रमीय चैत्र शुक्ल चतुर्थी) को हुआ। इनके पिता का नाम कृपालुदत्त द्विवेदी और माता का नाम लाची था।

आठ वर्ष की आयु में, इनके यज्ञोपवीत के दो मास पूर्व, एक शुभ मुहूर्त (फाल्गुन शुक्ल पंचमी) में इनका अक्षरारंभ कराया गया। प्रारंभ से ही इनमें अद्वितीय प्रतिभा देखी गई। बड़े थोड़े समय में (अर्थात् फाल्गुन शुक्ल दशमी तक) इन्हें हिंदी मात्राओं का पूर्ण ज्ञान हो गया। जब इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तो वे भली-भाँति हिंदी लिखने-पढ़ने लगे थे। संस्कृत का अध्ययन प्रारंभ करने पर वे 'अमरकोश' के लगभग पचास से भी अधिक श्लोक एक दिन में याद कर लेते थे। इन्होंने वाराणसी संस्कृत कालेज के पं. दुर्गादत्त से व्याकरण और पं. देवकृष्ण से गणित एवं ज्योतिष का अध्ययन किया। गणित और ज्योतिष में इनकी अद्भुत प्रतिभा से महामहोपाध्याय बापूदेव शास्त्री बड़े प्रभावित हुए। कई अवसरों पर बापूदेव जी ने एक अवसर पर लिखा, 'श्री सुधाकर शास्त्री गणिते बृहस्पतिसम:।'

सुधाकर जी ने गणित का गहन अध्ययन किया और भिन्न-भिन्न ग्रंथों पर अपना 'शोध' प्रस्तुत किया। गणित के पाश्चात्य ग्रंथों का भी अध्ययन इन्होंने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाओं को पढ़कर किया। बापूदेव जी ने अपने 'सिद्धांत शिरोमणि' ग्रंथ की टिप्पणी में पाश्चात्य विद्वान डलहोस के सिद्धांत का अनुवाद किया था। द्विवेदी जी ने उक्त सिद्धांत की अशुद्धि बतलाते हुए बापूदेव जी से उस पर पुनर्विचार के लिए अनुरोध किया। इस प्रकार बाईस वर्ष की ही आयु में सुधाकर जी प्रकांड विद्वान हो गए और उनके निवास स्थान खजुरी में भारत के कोने-कोने से विद्यार्थी पढ़ने आने लगे।

सन् १८८३ में द्विवेदी जी सरस्वती भवन के पुस्तकालयाध्यक्ष हुए। विश्व के हस्तलिखित पुस्तकालयों में इसका विशिष्ट स्थान है। १६ फरवरी, १८८७ को महारानी विक्टोरिया की जुबिली के अवसर पर इन्हें 'महामहोपाध्याय' की उपाधि से विभूषित किया गया।

द्विवेदी जी ने 'ग्रीनिच' (Greenwich) में प्रकाशित होने वाले 'नाटिकल ऑल्मैनक' (Nautical Almanac) में अशुद्धि निकाली। 'नाटिकल ऑल्मैनक' के संपादकों एवं प्रकाशकों ने इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस घटना से इनका प्रभाव देश-विदेश में बहुत बढ़ गया। तत्कालीन राजकीय संस्कृत कालेज (काशी) के प्रिंसिपल डॉ. वेनिस के विरोध करने पर भी गवर्नर ने इन्हें गणित और ज्योतिष विभाग का प्रधानाध्यापक नियुक्त किया।

सुधाकर जी गणित के प्रश्नों और सिद्धांतों पर बराबर मनन किया करते थे। बग्गी पर नगर में घूमते हुए भी वे कागज पेंसिल लेकर गणित के किसी जटिल प्रश्न को हल करने में लगे रहते। द्विवेदी जी की गणित और ज्योतिष संबंधी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

(१) ��� वास्तव विचित्र प्रश्नानि, (२) वास्तव चंद्रशृंगोन्नति;, (३) दीर्घवृत्तलक्षणम्, (४) भ्रमरेखानिरूपणम्, (५) ग्रहणेछादक निर्णय;, (६) यंत्रराज, (७) प्रतिभाबोधक;, (८) धराभ्रमे प्राचीननवीनयोर्विचार;, (९) पिंडप्रभाकर, (१०) सशल्यबाण निर्णय;, (११) वृत्तांतर्गत सप्तदश भुजरचना, (१२) गणकतरंगिणी (१३) दिड्.मीमांसा, (१४) द्यु चर चार:, (१५) फ्रेंच भाषा से संस्कृत में बनाई चंद्रसारणी तथा भौमादि ग्रहों की सारणी (सात खंडों में), (१६) १.१००००० की लघुरिक्य की सारणी तथा एक-एक कला की ज्यादा सारणी, (१७) समीकरण मीमांसा (Theory of Equations) दो भागों में, (१८) गणित कौमुदी, (१९) वराहमिहिरकृत पंचसिद्धांतिका, (२०) कमलाकर भट्ट विरचित सिद्धांत तत्व विवेक;, (२१) लल्लाचार्यकृत शिष्यधिवृद्धितंत्रम्, (२२) करण कुतूहल; वासनाविभूषण सहित; (२३) भास्करीय लीलावती, टिप्पणीसंहिता, (२४) भास्करीय बीजगणितं टिप्पणीसहितम्, (२५) वृहत्संहिता भट्टोत्पल टीका संहिता, (२६) ब्रह्मास्फुट सिद्धांत: स्वकृततिलका (भाष्य) सहित;, (२७) ग्रहलाधव: स्वकृत टीकासहित;, (२८) पायुष ज्योतिषं सीमाकर भाष्यसहितम्, (२९) श्रीधराचार्यकृत स्वकृत टीका सहिताच त्रिशतिका, (३०) करणप्रकाश: सुधाकरकृत सुधावर्षिणी सहित:, (३१) सूर्यसिद्धांत: सुधाकरकृत सुधावर्षिणी सहित:, (३२) सूर्यसिद्धांतस्य एका बृहत्सारणी तिथिनक्षत्रयोगकरणानां घटिज्ञापिका आदि।

हिंदी में रचित गणित एवं ज्योतिष संबंधी प्रमुख ग्रंथ ये हैं-

(१) ��� चलन कलन (Differential Calculus), (२) चलराशिकलन (Integral Calculus), (३) ग्रहण करण, (४) गणित का इतिहास, (५) पंचांगविचार, (६) पंचांगप्रपंच तथा काशी की समय-समय पर की अनेक शास्त्रीय व्यवस्था, (७) वर्गचक्र में अंक भरने की रीति, (८) गतिविद्या, (९) त्रिशतिका श्रीपति भट्ट का पाटीगणित (संपादित) आदि।

द्विवेदी जी उच्च कोटि के साहित्यिक एवं कवि भी थे। हिंदी और संस्कृत में उनकी साहित्य संबंधी कई रचनाएँ हैं। हिंदी की जितनी सेवा उन्होंने की उतनी किसी गणित, ज्योतिष और संस्कृत के विद्वान् ने नहीं की। द्विवेदी जी और भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र में बड़ी मित्रता थी। दोनों हिंदी के अनन्य भक्त थे और हिंदी का उत्थान चाहते थे। द्विवेदी जी आशु रचना में भी पटु थे। काशी स्थित राजघाट के पुल का निर्माण देखने के पश्चात् ही उन्होंने भारतेंदु बाबू को यह दोहा सुनाया-

राजघाट पर बनत पुल, जहँ कुलीन को ढेर।
आज गए कल देखिके, आजहि लौटे फेर।।

भारतेंदु बाबू इस दोहे से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने द्विवेदी जी को जो दो बीड़ा पान घर खाने को दिया उसमें दो स्वर्ण मुद्राएँ रख दीं।

द्विवेदी जी ने मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' के पच्चीस खंडों की टीका ग्रयर्सन के साथ की। यह ग्रंथ उस समय तक दुरूह माना जाता था, किंतु इस टीका से उसकी सुंदरता में चार चाँद लग गए। 'पद्मावत' की 'सुधाकरचंद्रिका टीका' की भूमिका में द्विवेदी जी ने लिखा है:-

लखि जननी की गोद बीच, मोद करत रघुराज।
होत मनोरथ सुफल सब, धनि रघुकुल सिरताज।।
जनकराज-तनया-सहित, रतन सिंहासन आज।
राजत कोशलराज लखि, सुफल करहू सब काज।।
का दुसाधु का साधु जन, का विमान सम्मान।
लखहू सुधाकर चंद्रिका, करत प्रकाश समान।
मलिक मुहम्मद मतिलता, कविता कनेक बितान।
जोरि जोरि सुबरन बरन, धरत सुधाकर सान।।

द्विवेदी जी राम के अनन्य भक्त थे और उनकी कविताएँ प्राय: रामभक्ति से ओतप्रोत होती थीं। अपनी सभी पुस्तकों के प्रारंभ में उन्होंने राम की स्तुति की है।

द्विवेदी जी व्यंगात्मक (Satirical) कविताएँ भी यदाकदा लिखते थे। अंग्रेजियत से उन्हें बड़ी अरुचि थी और भारत की गिरी दशा पर बड़ा क्लेश था। राजा शिवप्रसाद गुप्त सितारे हिंद की हिंदी के प्रति अनुदार नीति और अंग्रेजीपन का अंधानुकरण न तो द्विवेदी जी को पसंद था और न भारतेंदु बाबू को ही।

द्विवेदी जी के समय में भारत में उर्दू, फारसी एवं अरबी का बोलबाला था। हिंदी भाषा का न तो कोई निश्चित स्वरूप बन सका था, और न उसे उचित स्थान प्राप्त था। हिंदी और नागरी लिपि को संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के न्यायालयों में स्थान दिलाने के लिए नागरीप्रचारिणी सभा ने जो आंदोलन चलाया उसमें द्विवेदी जी का सक्रिय योगदान था। इस संबंध में संयुक्त प्रांत के तत्कालीन अस्थायी राज्यपाल सर जेम्स लाटूश से (१ जुलाई, सन् १८९८ को) काशी में द्विवेदी जी के साथ नागरीप्रचारिणी सभा के अन्य पाँच सदस्य मिले थे। द्विवेदी जी ने एक उर्दू लिपिक के साथ प्रतियोगिता में स्वयं भाग लेकर और निर्धारित समय से दो मिनट पूर्व ही लेख सुंदर और स्पष्ट नागरी लिपि में लिखकर यह सिद्ध कर दिया कि नागरी लिपि शीघ्रता से लिखी जा सकती है। इस प्रकार हिंदी और नागरी लिपि को भी न्यायालयों में स्थान मिला।

द्विवेदी जी का मत था कि हिंदी को ऐसा रूप दिया जाए कि वह स्वत: व्यापक रूप में जनसाधारण के प्रयोग की भाषा बन जाए और कोई वर्ग यह न समझे कि हिंदी उस पर थोपी जा रही है। उन्होंने पंडिताऊ हिंदी का विरोध किया और उनके प्रभाव से मुहावरेदार सरल हिंदी का प्रयोग पंडितों के भी समाज में होने लगा। उन्होंने अपनी 'राम कहानी' के द्वारा अपील की कि हिंदी उसी प्रकार लिखी जाए जैसे उसे लोग घरों में बोलते हैं। जो विदेशी शब्द हिंदी में अपना एक रूप लेकर प्रचलित हो गए थे, उन्हें बदलने के पक्ष में वे न थे।

वे नागरीप्रचारिणी ग्रंथमाला के संपादक और बाद में सभा के उपसभापति और सभापति भी रहे। वे कुछ इन-गिने व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में सोचने और लिखने का प्रशंसनीय कार्य पिछली शताब्दी में ही बड़ी सफलता से किया।

भाषा एवं साहित्य संबंधी उनकी रचनाएँ ये हैं-

(१) ��� भाषाबोधक प्रथम भाग, (२) भाषाबोधक द्वितीय भाग, (३) हिंदी भाषा का व्याकरण (पूर्वार्ध) (४) तुलसी सुधाकर (तुलसी सतसई पर कुंडलियाँ, (५) महाराजा माणधीश श्री रुद्रसिंहकृत रामायण का संपादन, (६) जायसी की 'पद्मावत' की टीका (ग्रियर्सन के साथ), (७) माधन पंचक, (८) राधाकृष्ण रासलीला, (९) तुलसीदास की विनय पत्रिका संस्कृतानुवाद, (१०) तुलसीकृत रामायण बालकांड संस्कृतानुवाद, (११) रानी केतकी की कहानी (संपादन), (१२) रामचरितमानस पत्रिका संपादन, (१३) रामकहानी, (१४) भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की जन्मपत्री, आदि।

द्विवेदी जी आधुनिक विचारधारा के उदार व्यक्ति थे। काशी के पंडितों में उस समय जो संकीर्णता व्याप्त थी उसका लेश मात्र भी उनमें न था। उन्होंने सिद्ध किया कि विदेश यात्रा से कोई धर्महानि नहीं। ३० अगस्त, १९१० को काशी की एक विराट् सभाका सभापतित्व करते हुए उन्होंने ओजस्वी स्वर में अपील की कि विलायत गमन के कारण जिन्हें जातिच्युत किया गया है उन्हें पुन: जाति में ले लेना चाहिए। अस्पृश्यता, नीच, ऊँच एवं जातिगत भेदभाव से इन्हें बड़ी अरुचि थी। इनका निधन एक साधारण बीमारी से २८ नवंबर, १९१० ई. मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी सोमवार सं. १९६७ को हुआ। (गुरुनारायण दुबे)