सुकरात (४६९-३९९ ई. पू.) से पहले यूनानी दर्शन यूनानियों का विवेचन था, यूनान का दर्शन नहीं था। सुकरात के साथ यह यूनान का दर्शन बना, और रायंज को दार्शनिक विवेचन की राजधानी बनने का गौरव प्राप्त हुआ। सुकरात का विशेष महत्व यह है कि उसके विचारों ने प्लेटो और अरस्तू की महान् कृतियों के लिए मार्ग साफ किया। इन तीनों विचारकों ने पश्चिम की संस्कृति पर ऐसी छाप लगा दी जो शताब्दियाँ बीतने पर भी तनिक मंद नहीं हुई। स्वयं सुकरात का विवेचन सोफिस्ट विचारों की प्रतिक्रिया था। इस विवाद ने पश्चिमी दर्शन को एक नए मार्ग पर डाल दिया।

पूर्व के विचारकों के लिए दार्शनिक विवेचन का प्रमुख विषय सृष्टि रचना था। सोफिस्टों और सुकरात ने मनुष्य को इस विवेचन में केंद्रीय विषय बना दिया। सोफिस्ट मत प्रोटैगोरस के एक कथन में समाविष्ट है-

मनुष्य सभी वस्तुओं की माप है, ऐसी कसौटी है जो निर्णय करती है कि किसी वस्तु का अस्तित्व है या नहीं।

कौन मनुष्य? मानव जाति, बुद्धिमान वर्ग, या व्यक्ति? प्रोटोगोरस ने यह गौरव का पद व्यक्ति को दिया। मेरे लिए वह सत्य है, जो मुझे सत्य प्रतीत होता है, मेरे साथी के लिए वह सत्य है जो उसे सत्य प्रतीत होता है। इसी प्रकार की स्थिति शुभ और अशुभ की है। जो कुछ किसी मनुष्य को सुखद प्रतीत होता है, वह उसके लिए शुभ है। सुकरात ने कहा कि इस विचार के अनुसार तो सत्य और शुभ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। उसने विशेष के मुकाबले में सामान्य का महत्व बताया, आत्मपरकता के मुकाबले में वस्तुपरकता को प्रथम पद दिया। सुकरात ने विचार को दर्शन का मूल आधार बनाया, उसने यूनान को विचार करना सिखाया। सत्य ज्ञान इंद्रियों के प्रयोग से प्राप्त नहीं होता, यह सामान्य प्रत्ययों पर आधारित है।

नीति के संबंध में उसने सदाचार और ज्ञान को एक वस्तु बताया। इसका अर्थ यह था कि कोई कर्म शुभ नहीं होता, जब तक उसके करने वाले को उसके शुभ होने का ज्ञान न हो, यह भी कि ऐसा ज्ञान होने पर व्यक्ति के लिए यह संभव ही नहीं होता कि वह शुभ कार्य न करे। बुरा कर्म सदा अज्ञान का फल होता है। राजनीति में इस नियम को लागू करने का अर्थ यह था कि बुद्धिमान मनुष्यों को ही शासन करने का अधिकार है। धर्म के क्षेत्र में भी बुद्धि का उचित भाग है; कोई धारणा केवल इसलिए मान्य नहीं हो जाती कि वह जनसाधारण में मानी जाती है या मानी जाती रही है।

सुकरात ने कोई लिखित रचना अपने पीछे नहीं छोड़ी। उसकी सारी शिक्षा मौखिस होती थी। युवकों का उस पर अनुराग था। नागरिकों में बहुत से लोग उसे एक उत्पात समझते थे। ७० वर्ष की उम्र में उसके ऊपर निम्न आरोपों के आधार पर मुकदमा चला-

-वह जातीय देवताओं को नहीं मानता।

-उसने नए देवता प्रस्तुत कर दिए हैं।

-वह युवकों के आचार को भ्रष्ट करता है।

सुकरात ने अपनी वकालत आप की। यूनान में वकीलों की प्रथा नहीं थी। ५०० से अधिक नागरिक न्यायाधीश थे। बहुमत ने उसे दोषी ठहराया और मृत्यु का दंड दिया। जीवन का अंतिम दिन उसने आत्मा के अमरत्व की व्याख्या में व्यतीत किया। सुनने वाले रोते थे पर सुकरात का मन पूर्णत: शांत था। जीवन का यह अंतिम दिन उसके सारे जीवन का नमूना था। ऐसे शानदार जीवन और ऐसी शानदार मृत्यु के उदाहरण इतिहास में बहुत कम मिलते हैं।

सुकरात की शिक्षा की बाबत हमें तीन समकालीन लेखकों की रचनाओं से पता लगता है-प्लेटो के संवाद सुकरात का आदर्शीकरण है; जीनोफन ने उसकी प्रशंसा की है, परंतु वह उसके दार्शनिक विचारों को समझता नहीं था; अरिस्टोफेनीज ने उसे हँसी मजाक का विषय बनाने का यत्न किया है। पीछे अरस्तू ने जो कुछ कहा, उसका विशेष ऐतिहासिक महत्व समझा जाता है। (दीवान चंद)