सीमा (limit) यह एक महत्वपूर्ण गणितीय विचारधारा है जिसका अभ्युदय अनेक ऐतिहासिक अवस्थाओं को पार करके हो सका। प्राचीन काल में नि:शेषण प्रणाली का वही स्थान था जो आजकल सीमा प्रणाली ने ग्रहण कर लिया है। उक्त प्रणाली इस प्रकार व्यक्त की जा सकती है: यदि किसी परिमाण में से आधी से अधिक मात्रा निकाल ली जाए तो अंत में अवशिष्ट परिमाण किसी पूर्व निर्दिष्ट राशि से कम हो जाएगा। इस सिद्धांत को यूक्लिड ने अपनी 'एलीमेंट्स' नामक रचना में बहुधा क्षेत्रफल और आयतन ज्ञात करने के लिए प्रयुक्त किया है।
'सीमा' की धारणा चलन कलन और चलराशि कलन में अत्यंत महत्वपूर्ण है, वास्तव में यह उच्चतर गणित शास्त्र का आधार सीमा ही है। जॉन वालिस (१६१६-१७०३), ऑगस्टिन कोशी (१७८९-१८५७) आदि गणितज्ञों ने इस विचारधारा को विकसित किया है।
यदि कोई निश्चित वास्तविक संख्या Xn (सं. 'संख्या') प्रत्येक घनात्मक पूर्णांक १,२,३,. . . से संबद्ध हो तो संख्याएँ एक अनुक्रम बनाती हैं। यदि N-1 के लिए Xn-Xu-1 हो तो यह अनुक्रम एकस्वन वृद्धिमय कहा जाता है और यदि Xa-Xa+1 हो तो वह एकस्वन ्ह्रासमय कहा जाता है। n के अंत की ओर अग्रसर होने पर अनुक्रम (Xn) एक सीमा १ की ओर अग्रसर होता हुआ कहा जाएगा यदि किसी अविहित लघु राशि � के लिए ऐसी संख्या no (�) का अस्तित्व हो कि n-no (E) होने पर। Xa-1k E हो, अर्थात् समस्त n-no (E) के लिए l-e-Xa-1+E हो। इसी प्रकार एक कुलक के सीमाबिंदु की व्याख्या की जा सकती है। वास्तविक संख्याओं अथवा किसी सरल रेखा पर अवस्थित किसी भी भाँति व्यक्त तत्संबंधी बिंदुओं की व्यवस्था उन संख्याओं अथवा बिंदुओं का पुंज अथवा कुलक कहा जाता है। अनक्रम एक प्रगणनशील कुलक होता है, अर्थात् एक ऐसा कुलक जिसके सदस्य घनात्मक पूर्णांकों के साथ एकैकी संवादिता रखते हैं। यदि एक कुलक E अनंत संख्यक बिंदुओं (जो E के तत्व कहे जाते हैं) से बना हो तो बिंदु a E का सीमाबिंदु कहा जाएगा यदि, E-o चाहे कितना भी लघु हो, कुलक E का a के अतिरिक्त एक ऐसा बिंदु अस्तित्वमय हो जिसकी a से E कम हो। एक कुलक या अनुक्रम में एक या अधिक सीमाबिंदु हो सकते हैं। यदि एक अनुक्रम (Xa) में केवल एक सीमाबिंदु l हो तो n के अनंत की ओर अग्रसर होने पर {Xn} सीमा l की ओर अग्रसर होगा, अर्थात् वह अनुक्रम सीमा l की ओर अग्रसर होगा, अर्थात् वह अनुक्रम सीमा l की ओर संसृत होगा और हम lim-Xn = l लिखेंगे। वीर्स्ट्रास ने सिद्ध किया है कि प्रत्येक परिमित अनंत कुलक में कम से कम एक सीमाबिंदु होता है।
एकरूप वृद्धिमय अनुक्रम, जो उपरिबद्ध हो, संसृत होता है। इसी प्रकार एकरूप ्ह्रासमय अनुक्रम, जो अधोबद्ध हो, संसृत होता है। किसी अनुक्रम {au} की संसृति के लिए आवश्यक एवं पर्याप्त अनुबंध यह है कि प्रत्येक अविहित लघु E-o के लिए एक ऐसा पूर्णांक no (E) अस्तित्वमय होगा कि समस्त n-no (E) के लिए |an+p - an| < � हो जिसमें p = 1,2,3,.... है। यदि limn��= a,= limn�� bn = b� हो तो limn�� (an �bn) = a � b, limn�� an bn = a b और के h � o लिए होगा।
यदि f (x) x का एक फलन हो तो x के a की ओर अग्रसर होने पर f(x) सीमा l की ओर अग्रसर होता कहा जाता है जब कि प्रविहित लघु � > o के लिए एक ऐसा d = d (�) अस्तित्वमय हो कि हो। |x - a|� � d होने पर ही |f (x) - 1| < � हो।
सीमा या सीमाबिंदु की उपरिलिखित परिभाषाएँ दूरी की धारणा पर निर्भर है। हम किसी बिंदु a के E- पड़ोस की व्याख्या (x-a < E जैसे संबंध की तुष्टि करने वाले बिंदुओं x से करते हैं। बिंदु a किसी कुलक E का सीमाबिंदु तभी होता है जब कि a के प्रत्येक E का एक अन्य बिंदु भी हो। अब दूरी की धारणा से मुक्त सीमाबिंदु की व्याख्या की जाएगी। माना कि A कोई कुलक है; {U} A के उपकुलकों की ऐसी व्यवस्था है कि A का प्रत्येक बिंदु उस व्यवस्था के कम से कम एक उपकुलक में अवस्थित है और निम्नलिखित अनुबंधों की तुष्टि होती है: (१) मोघकुलक और स्वयं A {U} में हो (२) {U} के दो सदस्यों का छेदन {U} में स्थित हो; और (३) {U} के सदस्यों की कितनी भी संख्या {U} में हो। उपकुलकों की ऐसी कोई व्यवस्था {U} A का स्थानत्व (Topology) और स्थानत्व {U} संयुक्त कुलक A का स्थानावकाश (Topological space) T कहा जाता है। A के तत्व T के बिंदु, व्यवस्था {U} के सदस्य T के खुले कुलक और A के उपकुलक T के उपकुलक कहलाते हैं। बिंदु x E T किसी उपकुलक E c T का सीमाबिंदु कहा जाएगा यदि प्रत्येक खुले कुलक में जो X को धारण करता है x के अतिरिक्त E का एक अन्य बिंदु भी हो। यदि हम समस्त वास्तविक संख्याओं के कुलक को A द्वारा और खुले अंतरालों {U} द्वारा निरूपित करें तो A एक स्थानावकाश हो जाएगा और हमें कुलक के सीमाबिंदु की पूर्व व्याख्या प्राप्त हो जाएगी।
सं. ग्रं.- बर्ट्रेड रसल: इंट्रोडक्शन टु मैथमैटिकल फिलोसफी (१९१९); जी.एच. हार्डी, प्योर मैथमैटिक्स (१९३५); ई. डब्ल्यू. हॉबसन: दि थ्यॉरी ऑव फंक्शंस ऑव ए रियल वैरिएबिल (प्रथम खंड, १९२७); हॉल एवं स्पेसर, ऐलीमैंटरी टॉरोलोजी (१९५५)। (स्वरूप चंद्र मोहनलाल शाह)