सीता प्राचीन मिथिला के राजा जनक (सीरध्वज) की कन्या जो दाशरथि श्रीराम की सहधर्मिणी थीं। 'सीता' का शाब्दिक अर्थ 'हल के फाल से खींची हुई रेखा' है। कहते हैं, मिथिला का विदेह राज्य में एक बार घोर अकाल पड़ा और ज्योतिर्विदों ने यह मत प्रकट किया कि यदि राजा स्वयं हल चलाना स्वीकार करें तो प्रभूत वर्षा होने की संभावना है। बाल्मीकि के मतानुसार यज्ञभूमि तैयार करने के लिए राजा जब हल चला रहे थे तब पृथ्वी के विदीर्ण होने पर एक छोटी सी कन्या उसमें से निकली जिसे जनक ने पुत्री के रूप में ग्रहण किया। हल चलाने से बनी हुई रेखा से उत्पन्न होने के कारण कन्या का नाम सीता रखा गया।
जनक के पास परशुराम का दिया हुआ एक शिव धनुष था जो वजन में बहुत भारी था। सीता ने एक दिन उसे अनायास ही उठा लिया और हटाकर दूसरे स्थान पर रख दिया। जनक को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने घोषणा की कि जो राजा इस धनुष को तोड़ देगा उसी के साथ सीता का विवाह कर दिया जाएगा। स्वयंवर में बड़े-बड़े प्रतापी और बली राजा उपस्थित हुए किंतु कोई भी धनुष को उठा न सका। इस सभा में उपस्थित होकर राम ने शिव धनुष को भंग कर दिया और 'त्रिभुवन जय समेत' सीता का वरण किया।
वनवास-पिता की आज्ञा से राम जब वनवास के लिए जाने लगे तब उन्होंने सीता को अयोध्या में ही रहने के लिए बहुत समझाया पर वे न मानीं। उनका तर्क था 'जिय बिन देह, नदी बिन बारी। तैसिय नाथ पुरुष बिन नारी', 'चंद्र को त्याग कर चंद्रिका कैसे रह सकती है, इसलिए मुझे यहाँ न छोड़िए, साथ में ले चलिए।' सीता ने यह भी कहा कि 'जब दिन भर की यात्रा के बाद आप थक जाएँगे, तब मैं सम धरती पर पेड़ के कोमल पत्ते बिछाकर रात्रि भर आपके चरण दाबकर सारी थकावट दूर कर दूँगी। सुकुमारता के तर्क को उलटे राम पर ही डालते हुए उन्होंने कहा 'मैं सुकुमारी नाथ बन जोगू। तुम्हहिं उचित तप मो कहँ भोगू।' इस व्यंग्योक्ति का उत्तर राम न दे सके और उन्होंने सीता को साथ में चलने की अनुमति दे दी।
अयोध्या और मिथिला का सारा वैभव तथा सुख सुविधाएं छोड़कर वे पति के साथ जंगल-जंगल भटकती रहीं और उन्होंने अपनी सेवा परायणता से राम को वन्य जीवन के कष्टों की अनुभूति न होने दी। पंचवटी में निवास करते समय रावण द्वारा प्रेषित कपटमृग का पीछा करते हुए जब दूर निकल गए और सीता के आग्रह करने पर लक्ष्मण भी जब उनकी सहायता के लिए चल पड़े, तब मौका पाकर रावण ने सीता का अपहरण किया और उन्हें लंका ले जाकर अशोक वाटिका में राक्षसियो के पहरे में रख दिया। सीता के वियोग से राम अत्यंत व्याकुल हो उठे और उन्हें ढूँढ़ते हुए किष्किंधा जा पहुँचे, जहाँ सुग्रीव की सहायता से उन्होंने वानरों की एक बड़ी सेना इकट्ठी की और दैत्यराज रावण पर चढ़ाई कर दी।
रावण के मारे जाने पर सीता जब राम के पास लौट आई तो लोकापवाद के भय से उन्होंने सीता की अग्निपरीक्षा लेनी चाही। सीता इसके लिए तुरंत तैयार हो गई और वे इस परीक्षा में पूर्णत: उत्तीर्णं हुई। राम का राज्याभिषेक होने के बाद कुछ वर्ष ही वे सुखपूर्वक बिता पाई थीं कि लोकचर्चा से राजकुल के कलंकित होने की आशंका देखकर राम ने उनके परित्याग का निश्चय किया। राम के आदेश से लक्ष्मण उन्हें बाल्मीकि आश्रम के निकट छोड़ आए। ऋषि ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया और यहीं लव और कुश नाम के दो उज्ज्वल पुत्रों को सीता ने जन्म दिया।
राम ने छाती पर वज्र रखकर राजा के कठोर कर्तव्य का पालन तो किया किंतु इस घटना ने उनके जीवन को अत्यंत दु:खपूर्ण तथा नीरस बना दिया। निदान लव और कुश के बड़े होने पर जब वाल्मीकि ऋषि ने सीता की पवित्रता और निर्दोषता की दुहाई देते हुए राम से उन्हें पुन: अंगीकार करने का आग्रह किया तो लोक-लांछन के परिमार्जन का विश्वास हो जाने पर राम ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किंतु सीता अपमान और मिथ्यापवाद के इस दूसरे प्रसंग से इतनी मर्माहत हो चुकी थीं कि उन्होंने लव और कुश को पिता का सामीप्य प्राप्त होने पर इस नश्वर शरीर को त्याग देने का निश्चय किया। उन्होंने पृथ्वी माता से प्रार्थना की:
मनसा कर्मणा वाचा यदि रामं समर्चथे।
तदा मे माधवी देवी विवरं दातुमहंति।।
'यदि मन से, कर्म से और वाणी से मैंने राम के सिवा अन्य किसी पुरुष का चिंतन न किया हो तो पृथ्वी माता तुम फटकर मुझे स्थान दो।' सीता के जीवन का यह अंत देखकर सहसा यही कहना पड़ता है- अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। (मुकुदी लाल श्रीवास्तव)