सिमॉन्सेन, जॉन लायनेल (Simonsen, John Lionel, सन् १८८४-१९५७) का जन्म मैंचेस्टर के लेवेनशुल्म नामक कस्बे में हुआ था। सन् १९०१ से आपने मैंचेस्टर विश्वविद्यालय में अध्ययन प्रारंभ किया तथा सन् १९०९ में डॉक्टर ऑव सायंस की उपाधि प्राप्त की। इस विश्वविद्यालय के आप रसायन शास्त्र में प्रथम शूंक (Schunck) रिसर्च फेलो थे।

सन् १९१० में आप मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए। यहाँ आपने अपना बहुत समय अनुसंधान कार्य में लगाया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ये इंडियन म्युनिशंस बोर्ड के रासायनिक सलाहकार थे तथा सन् १९१९ से १९२५ तक देहरादून के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट तथा कॉलेज के प्रधान रसायनज्ञ रहे। सन् १९२५ में आप बैंगलूर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑव सायंस में जैव रसायन के प्रोफेसर नियुक्त हुए। देहरादून में भारतीय वाष्पशील तेलों का जो अध्ययन आपने आरंभ किया था, उसे जारी रखा। सन् १९२८ में ये इंग्लैंड वापस गए और सन् १९३० में वेल्स विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर का पद सँभाला। कई अन्य महत्वपूर्ण पदों पर रहने के पश्चात् आप सन् १९४५ में कृषि अनुसंधान परिषद् के सदस्य तथा सन् १९४७ में एफ.ए.ओ. की विशेषज्ञ कमिटी में यूनाइटेड किंगडम के प्रतिनिधि निर्वाचित हुए।

टर्पीनों पर आपने अन्य लोगों के सहयोग से पाँच खंडों में एक विशाल ग्रंथ लिखा है, जो इस विषय का प्रामाणिक ग्रंथ समझा जाता है। लंदन की केमिकल सोसायटी के आप अवैतनिक मंत्री सन् १९४५ से १९४९ तक, और सन् १९४२ से १९४४ तक रॉयल सोसायटी की परिषद् में सेवारत रहे। सन् १९३२ में आप रॉयल सोसायटी के फेलो निर्वाचित हुए थे तथा सन् १९५० में सोसायटी ने आपको डेवी पदक प्रदान किया। बर्मिंघम और मलाया के विश्वविद्यालयों ने डी. एस-सी. की तथा सेंट ऐंड्रयूज विश्वविद्यालय ने एल-एल.डी. की सम्मानसूचक उपाधियाँ आपको प्रदान कीं। सन् १९२१ में आपको कैंसर-ए-हिंद का रजत पदक मिला था। आप सन् १९२८ की इंडियन सायंस कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। (भगवान दास वर्मा)