सिपाही विद्रोह (१८५७) आधुनिक भारत के इतिहास में सन् १८५७ का सिपाही विद्रोह सबसे बड़ा विप्लव था। वेलोर और बैरकपुर के सिपाही विद्रोहों से इसके आधार और क्षेत्र अधिक व्यापक थे। इसमें बंगाल की सेना के देशी सिपाहियों ने महत्वपूर्ण भाग लिया था। उनमें अधिकांश अवध तथा उत्तर पश्चिम प्रांत के निवासी थे। वे प्राय: उच्च जाति के सनातनी थे। उत्तर भारत में जहाँ कहीं उनकी पल्टनें थीं सभी जगह विद्रोह हुए अथवा उसके लक्षण दिखाई पड़े। बंबई प्रेसिडेंसी में मराठा सेना ने केवल छुटपुट विद्रोह किए जिनका विस्तार अधिक न था। मद्रास की सेना शांत रही।
सिपाही विद्रोह के प्रमुख कारण थे देशी सेना में असंतोष तथा देश में ब्रिटिश नीति तथा शासन के प्रति अविश्वास। ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों के वेतन, भत्ते, अवकाश, उन्नति के अवसर, रहने की व्यवस्था और सुविधाओं में बहुत विषमता थी। समुद्र पार करने तथा विदेशों में जाने से उन्हें धर्म तथा जाति से बहिष्कृत होने का भय था। इन बातों से उत्पन्न असंतोष का प्रदर्शन बर्मा के प्रथम युद्ध के समय से प्राय: होता रहा। लार्ड हार्डिज और डलहौजी के शासन काल में ही चार बार सिपाहियों ने विद्रोह किया। देशी सेना में अनुशासन दिनोंदिन बिगड़ता गया। अवध की स्वतंत्रता के अपहरण से सिपाहियों में क्षोभ बढ़ा। जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट ऐक्ट, एनफील्ड राइफल में चर्बी लगे कारतूसों के प्रयोग, सेना के पश्चिमीकरण तथा ईसाई धर्म प्रचार को उन्होंने संदेह की दृष्टि से देखा। उसी समय बहुत-सी अंग्रेजी पल्टनें तथा पुराने योग्य अफसर क्रीमिया, फ्रांस या चीन भेज दिए गए। नए अफसरों में सहानुभूति का अभाव था। ऐसे उपयुक्त अवसर पर अनेक असंतुष्ट असैनिक नेताओं तथा उनके अनुयाइयों ने अपने ब्रिटिश विरोधी गुप्त प्रचार द्वारा सिपाहियों को उनकी सैनिक शक्ति का आभास कराकर उनके असंतोष को उभार दिया। उनके मस्तिष्क में यह बात जम गई कि कंपनी का साम्राज्य हमारे सहयोग से ही बना और टिका है। फिर भी सेना में हमारा स्थान निम्न है। गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को दाँत से काटकर राइफल में लगाने तथा हड्डी मिले आटे के प्रयोग से हमारा धर्म नष्ट हो जाएगा। कंपनी का राज्य केवल सौ वर्ष चलेगा। भारत में ब्रिटिश सेना कम है। कंपनी की अधीनता दूर करने का अब उत्तम अवसर है। इस प्रचार ने बंगाल की देशी सेना के असंतोष में चिनगारी लगा दी। फलत: १८५७ का विद्रोह बंगाल की देशी सेना द्वारा प्रारंभ किया गया। महाराष्ट्र में उच्च वर्ग के मराठा सिपाहियों में इसी प्रकार का प्रचार हुआ। मद्रास की सेना में भाषा की कठिनाइयों के कारण कोई प्रचार न हो सका।
विद्रोह के कारण केवल सेना संबंधी ही न थे, और न यह केवल सैनिक विद्रोह ही था। इसके प्रारंभ होने के पूर्व अंग्रेजों की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों से सारे देश में असंतोष फैल चुका था। १७५७ से अंग्रेजों की साम्राज्य-विस्तार-नीति, डलहौजी के साम्राज्य-संयोजन-कार्य, अनुचित तरीकों से देशी राज्यों की स्वतंत्रता का अपहरण, अधिकारच्युत राजकुलों, उनके अनुचरों एवं आश्रितों में बढ़ती हुई बेकारी, सहानुभूतिशून्य शासन व्यवस्था, असंतोषजनक न्याय व्यवस्था, उच्च पद भारतीयों को न मिलने तथा जमींदारियों, ताल्लुकेदारियों, नाममात्र के राजाओं की पेंशनों तथा पदवियों के छिनने से देश में राजनीतिक असंतोष था। उद्योग-धंधों के ्ह्रास, दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था, कृषि की अवनति, बड़े व्यापार पर अंग्रेजों के एकाधिकार, बढ़ती हुई गरीबी और बेकारी तथा अकालों के कारण देश की आर्थिक स्थिति दु:सह बन गई थी। सभी संभव साधनों द्वारा ईसाई धर्म प्रचार तथा भारतीय धर्मों की आलोचना, भारतीय शिक्षण संस्थाओं के पतन तथा नई संस्थाओं द्वारा पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति के प्रसार, रिलिजस डिसेबिलिटीज़ ऐक्ट तथा हिंदू विधवा पुनर्विवाह, कानून द्वारा सामाजिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप, जेलों में सार्वजनिक रसोई व्यवस्था, अंग्रेजी स्कूलों, अस्पतालों, जेलों तथा रेलगाड़ियों में छुआछूत का विचार न होने से तथा दत्तक पुत्रों के अधिकारों की अवहेलना से सरकार के उद्देश्यों के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया। वर्षों से चले आए इस असंतोष का आभास अंग्रेजों के विरुद्ध हुए बुंदेला, मोपला, संताल आदि अनेक विद्रोहों से होता है। पर इनका क्षेत्र सीमित था। १८५७ का विद्रोह व्यापक था।
विद्रोह का नेतृत्व 'असंतुष्ट असैनिक सामंतों ने किया। उन्होंने अपनी खोई हुई सत्ता को वापस लेने के लिए असंतुष्ट सिपाहियों का प्रयोग किया। इसलिए यह विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन था जिसके प्रति प्रारंभ में सभी असंतुष्ट लोग सहानुभूति रखते थे पर बाद में लुटेरों द्वारा शांति भंग होने के कारण उन्हें अश्रद्धा पैदा हो गई। अवध में यह विद्रोह राष्ट्रीय प्रतीत हुआ। विद्रोह के कुछ समय पूर्व अनेक लोगों की गतिविधियाँ संदेहजनक दिखाई पड़ीं। अजीमुल्ला खाँ, मौलवी अहमदउल्ला तथा नाना साहा ने कुछ महत्वपूर्ण स्थानों का भ्रमण किया तथा चपातियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजी गईं। तत्कालीन परिस्थितियों से अनुमान होता है कि विद्रोह के पूर्व अंग्रेजों के विरुद्ध गुप्त रीति से षड्यंत्र चल रहे थे।'
सैनिक विद्रोह के प्रथम लक्षण बरहामपुर और बैरकपुर की छावनियों में फरवरी-मार्च, १८५७ में दिखाई पड़े। वहाँ सिपाहियों ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। बैरकपुर में मंगल पांडे ने अपने अंग्रेज अफसर की हत्या कर दी। इसके लिए उसे फाँसी दी गई। विद्रोह का वास्तविक प्रारंभ १० मई को मेरठ छावनी में हुआ। वहाँ विद्रोही सिपाहियों ने अपने अफसरों का वध कर डाला। जेल से बंदियों को मुक्त किया और दूसरे दिन दिल्ली में अंग्रेजों को मारकर नाम मात्र के शासन बहादुरशाह को वास्तविक सम्राट घोषित किया। सम्राट ने हिंदुओं का सहयोग पाने के लिए गाय की कुर्बानी बंद करा दी और देश को स्वतंत्र बनाने के उद्देश्य से राजपूतों को आमंत्रित किया तथा उनके परामर्श से शासन करने का वचन दिया। पर वे तटस्थ रहे। यहीं से विद्रोह का असली रूप दिखाई पड़ता है। जून के अंत तक विद्रोह उन सभी छावनियों में फैल गया जहाँ ब्रिटिश सेना न थी।
विद्रोह का मुख्य क्षेत्र नर्मदा नदी से नेपाल की तराई तक तथा पश्चिमी बिहार से दिल्ली तक था। इस क्षेत्र में बड़े छोटे सैकड़ों केंद्र थे जिनमें स्थानीय नेता थे, जैसे दिल्ली में सम्राट बहादुरशाह, रुहेलखंड में बरेली के खान बहादुर खाँ, कानपुर में नाना साहब और उनके सहयोगी, झाँसी में रानी लक्ष्मी, लखनऊ में बेगम हजरत महल और उसका पुत्र विरजिसड्ढद्र, फैजाबाद में मौलवी अहमदउल्ला, फर्रुखाबाद में नवाब तफज्जुल हुसेन, मैनपुरी के राजा तेजसिंह, रामनगर के राजा गुरुबख्श, अवध के अनेक भागों के ताल्लुकेदार, बिहार तथा पूर्वी उत्तर-पश्चिम प्रांत में कुँवरसिंह, इलाहाबाद में लियाकतअली, मंदसौर में शाहजादा, फिरोजशाह, कालपी और ग्वालियर में ताँत्या तोपे और रावसाहब, सागर और नर्मदा के प्रदेश में शाहगढ़ के बखतबली, बानपुर के मर्दनसिंह, गोंड राजा शंकरशाह, कोटा में मेहराब खाँ, इंदौर में सआदत खाँ, राहतगढ़ में अमापानी के नवाब और अन्य स्थानों में सैकड़ों अन्य हिंदू तथा मुसलमान नेता। सैकड़ों स्थानों से अल्प काल के लिए ब्रिटिश सत्ता हटा दी गई। नाना साहब कानपुर में पेशवा घोषित किए गए। बिरजिसड्ढद्र अवध का नवाब घोषित हुआ और फीरोजशाह मंदसौर में बादशाह बन बैठा। सिपाहियों का विद्रोह और भी अधिक व्यापक था। यह ढाका से पेशावर तक और बरेली से सतारा तक फैला था।
विद्रोह को फैलने से रोकने के लिए सैनिक कानून लागू किया गया तथा प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिए गए। खजानों और शस्त्रागारों की रक्षा का भार देशी सिपाहियों से ले लिया गया और उनकी गतिविधियों पर नजर रखी गई। फिर भी केवल मद्रास को छोड़कर सभी प्रेसिडेंसियों में सैनिक विद्रोह हुए। पंजाब में अनेक स्थानों पर देशी पल्टनों ने विद्रोही भावना दिखाई, पर सिक्खों और अफगानों के सहयोग से अंग्रेजों ने उन्हें नि:शस्त्र कर दिया। बंबई प्रेसिडेंसी में सतारा, कोल्हापुर, नरगुंड तथा सावंतवाड़ी में सिपाही विद्रोह हुए। वे तुरत दबा दिए गए। बंगाल और बिहार में अनेक छावनियों में सिपाहियों ने विद्रोह किया, पर प्रभावशाली जमींदारों की वफादारी के कारण उन्हें जन सहयोग न मिल सका।
विद्रोहों को दबाने के लिए साधन जुटाए गए। स्वामिभक्त रजवाड़ों से सैनिक सहायता माँगी गई। विदेशों सो भेजी गई सेना लौटा ली गई। इंग्लैंड से चुने हुए सैनिक बुलाए गए। मद्रास और बंबई से सेनाएँ माँगी गईं। कूटनीति द्वारा हिंदू तथा मुसलमानों को पृथक् करने के प्रयत्न किए गए। युद्ध प्रिय गोरखा, सिक्ख और डोगरा जातियों को मित्र बना लिया गया। दिल्ली पर आक्रमण करने तथा ब्रिटिश प्रतिष्ठा के पुन:स्थापन के लिए पंजाब में सेना तैयार की गई। अंत में कई घमासान युद्धों के पश्चात् निकल्सन, विल्सन, बेयर्ड स्मिथ, चेंबरलेन आदि ने २० सितंबर को दिल्ली पर फिर से अधिकार कर लिया। नगर में भयंकर लूटमार हुई। हजारों निर्दोष व्यक्ति संगीनों से मार डाले गए। मुगल शाहजादों को हॉब्सन ने निर्दयतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया। बहादुरशाह को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया गया। इस सफलता से अंग्रेजों में आत्मविश्वास बढ़ा तथा विद्रोहियों के हौसले कुंठित हुए।
विलियम टेलर और विंसेंट आयर ने बिहार के विद्रोहों को दबा दिया। नील के नेतृत्व में मद्रास की सेना ने बनारस तथा इलाहाबाद के विद्रोहियों को निर्दयतापूर्वक दबाया। इसका बदला विद्रोहियों ने कानपुर के हत्याकांड से लिया। जार्ज लारेंस ने बड़ी सतर्कता से राजपूताने में शांति स्थापित की। सर ह्यू रोज के नेतृत्व में सेंट्रल इंडिया फील्ड फोर्स ने मध्य भारत, मध्य प्रदेश तथा बुंदेलखंड के विद्रोहों को दबाया। कानपुर में नील और कालिन कैंपबेल ने भीषण नरसंहार द्वारा विद्रोह समाप्त किया। गोरखों की सहायता से अवध और रुहेखंड पर ब्रिटिश सत्ता की पुन:स्थापना हुई। ताँत्या तोपे, रावसाहब तथा रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर में डटकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया जिसमें रानी मारी गईं। ताँत्या तोपे, रावसाहब तथा फीरोजशाह लगभग एक वर्ष तक भारत की आधी अंग्रेजी सेना को परेशानी में डाले रहे। अंत में ताँत्या तोपे और रावसाहब आतिथ्यकारियों के विश्वासघात द्वारा पकड़े गए और उन्हें फाँसी दी गई। फीरोजशाह भारत छोड़कर पश्चिमी एशिया के देशों में घूमता फिरा। मक्का में उसकी मृत्यु हो गई। बहुत से मुस्लिम विद्रोहियों ने भागकर तुर्की में शरण ली। कई हजार विद्रोही नेपाल के जंगलों में चले गए। लगभग २००० को पकड़कर नेपाल की सरकार ने अंग्रेजों को दे दिया। उनमें से खानबहादुर खाँ तथा ज्वालाप्रासाद को फाँसी दी गई। नाना साहब, बेगम हज़रत महल, बिरजिसड्ढद्र तथा कुछ अन्य विद्रोही नेता नेपाल में ही रहे पर उनका पता न चला। बूढ़े कुँवरसिंह ने अद्भुत वीरता दिखाई, पर उनका देहांत हो गया। अहमदउल्ला धोखा देकर मार डाले गए। अजीमुल्ला खाँ, बालाशाह तथा हजारों विद्रोहियों की मृत्यु तराई के जंगलों में हो गई। बहुत से छोटे-मोटे विद्रोही राजाओं और जमींदारों ने सुरक्षा की घोषणा सुनकर आत्मसमर्पण कर दिया। उन्हें बंदी बना लिया गया। जेल कैदियों से भर गए। हजारों को पेड़ों से लटकाकर फाँसी दे दी गई।
विद्रोह की असफलता के अनेक कारण थे, यथा सिपाहियों में राष्ट्रीय चेतना, उद्देश्य की एकता तथा संगठित योजना का अभाव; उनके सीमित सैनिक एवं आर्थिक साधन; उनमें योग्य नेतृत्वहीनता, उनकी भूलें, असावधानियाँ, अदूरदर्शिता तथा अराजकता दूर करने की असमर्थता; तथा विद्रोह का देशव्यापी क्षेत्र न होना। अंग्रेजों के असीमित साधन, कुशल नेतृत्व, सफल कूटनीति, चरित्र, तार, डाक और प्रेस पर नियंत्रण तथा देशी राज्यों और प्रभावशाली लोगों के सहयोग आदि विद्रोह के दबाने में उनके सहायक बने।
विद्रोह के परिणामस्वरूप ईस्ट इंडिया कंपनी का अंत कर दिया गया। भारत का शासन इंग्लैंड की महारानी के नाम से होने लगा। उसने भारतीयों का हृदय जीतने के लिए नई नीति की घोषणा की। विद्रोह से भारत में जन और धन की भीषण हानि हुई। परिणामत: प्रजा पर करों का बोझ बढ़ गया। भविष्य में विद्रोहों की संभावना को नष्ट करने के लिए शासन में आवश्यक परिवर्तन किए गए जिससे भारतीयों और अंग्रेजों के बीच सदा के लिए खाई बन गई और कुछ समय बाद ही विद्रोह की राख से भारत में राष्ट्रीय भावना जाग्रत हुई। श्श् (हीरा लाल गुप्त)