सिनिक पंथ यूनान में एंटिस्थिनीज़ द्वारा प्रस्थापित एक दार्शनिक पंथ। एंटिस्थिनीज का जन्म ई. पू. ४४४ में हुआ और मृत्यु ई. पू. ३६८ में। वह एथेंस का निवासी था तथा सुकरात के प्रमुख साथियों में उसकी गणना की जाती थी। 'सिनिक' पंथियों ने आगे चलकर यह दावा किया कि सुकरात के जीवन दर्शन का यथार्थ प्रतिबिंब एंटिस्थिनीज के आचारशास्त्र में ही मिलता है न कि प्लेटोवाद में। 'सिनिक' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कदाचित् इस शब्द का संबंध 'सिनोसार्गस' नामक स्थान से है जहाँ एंटिस्थिनीज ने अपना आश्रम बनाया था।

सिनिसवाद का दृष्टिकोण सुखवाद विरोधी है। उसके अनुसार वास्तविक संतोष 'सुख' से पूर्णतया भिन्न है। संतोष का आधार सदाचार है जो सात्विक जीवन से ही संभव है। सात्विकता लाभ करने के लिए यह आवश्यक है कि बाह्य परिस्थितियों तथा घटनाओं के दबाव से व्यक्तिमात्र को मुक्ति मिले। इस प्रकार की मुक्ति के साधन हैं संयम और आत्म नियंत्रण।

इच्छाओं और शारीरिक आवश्यकताओं को न्यूनतम सीमा तक घटा देना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। चूँकि सभ्यता का विकास इस आदर्श के विपरीत जाता है, इसलिए 'सिनिक' पंथ ने भौतिक साधनों की उन्नति का, और अप्रत्यय रूप से भौतिक विज्ञानों का विरोध किया।

इस विचारधारा का विकृत रूप डायोजिनीस के अतिव्यक्तिवाद में मिलता है। नगर में रहकर नागरिक बंधनों से पूर्णतया मुक्त रहने की कल्पना अंतत: समाज विरोधी बन जाती है। 'संयम' की परिणति 'दमन' में होकर 'सिनिकवाद' का जीवन दर्शन आगे चलकर बिल्कुल ही एकांगी हो गया।

फिर भी 'सिनिक' पंथियों के उपदेशों में विशुद्ध आदर्शवाद के बीज अवश्य थे। एंटिस्थिनीज ने कहा. 'सिक्कों' से 'शुभ' को नहीं खरीदा जा सकता। परंतु गरीब आदमी भी आध्यात्मिक दृष्टि से धनी हो सकता है। 'स्टोइक्' दार्शनिकों ने एंटिस्थिनीज के प्रति आदर व्यक्त किया है और चूँकि 'सिनिक' पंथ ने भी अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण कार्य किया। इस पंथ की बड़ी सफलता यह थी कि एक ऐसे युग में जब सुखवाद की स्वार्थपरता से सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को आघात पहुँच रहा था, उसने आंतरिक संतोष की महत्ता पर जोर दिया।

सं. ग्रं. -डेविडसन्: द स्टोइक् क्रीड। (डा. वि. एस. नखणे)