सिगार (Cigar) क्यूबा के सिकाडा (Cicada) शब्द से बना समझा जाता है। क्यूबा के आदिवासी तंबाकू के चूरे को तंबाकू के पत्ते से ही ढँककर उसको जलाकर धूम्रपान करते थे। लगभग १७६२ ई. में क्यूबा से अमरीका के अन्य राज्यों में इसका प्रचलन फैला और वहाँ से १९वीं शताब्दी (लगभग १८१० ई.) में यूरोप आया। सिगार में तंबाकू का चूरा तंबाकू के पत्ते में ही लपेटा रहता है जब कि सिगरेट में तंबाकू का चूरा कागज में लपेटा रहता है। क्यूबा में सिगार हाथों से बनता था। अमरीका के अन्य राज्यों में भी सिगार हाथों से बनता है। सस्ते होने की दृष्टि से सिगार मशीनों में बनने लगे हैं। पहली मशीन १९१९ ई. में बनी थी। इस मशीन में अब बहुत अधिक सुधार हुआ है। ऐसी मशीनों में प्रति घंटा हजारों की संख्या में सिगार बन सकते हैं। कुछ मशीनें ऐसी हैं जिनमें चार श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है। साधारणतया ये महिलाएँ होती हैं। एक तंबाकू के चूरे को हॉपर (Hopper) में डालती है। दूसरी लपेटन (Wrapper) काटती है। तीसरी लपेटन में चूरा भरती, लपेटती और साटती है और चौथी सिगार पर छाप लगाती या सेलोफोन कागज में लपेटकर उस पर छाप लगाती है। सिगार कई रंग के होते हैं। कुछ 'क्रैरो' (हल्के पीले), कुछ कोलोरैडो (भूरे), कुछ कोलोरैडो मैडूरी (गाढ़े भूरे) कुछ मैडूरो (गाढ़े भूरे) और कुछ ओसक्यूरो (प्राय: कृष्ण रंग के होते हैं। पहले गाढ़े रंगवाले सिगार पसंद किए जाते थे। पर अब हल्के रंग वाले पसंद किए जाते हैं। आजकल क्लैरो सिगार अधिक पसंद किए जाते हैं। सिगार के धुएँ में सौरभ होना पसंद किया जाता है। सौरभ उत्पन्न करने के अनेक प्रयास हुए हैं। कुछ सिगार एक से आकार के लंबे होते हैं। कुछ बीच में मोटे और दोनों किनारे पर पतले होते हैं। कई आकार और विस्तार के सिगार बने हैं और बाजारों में बिकते हैं। तंबाकू का प्रत्येक भाग सिगार के कारखाने में किसी न किसी काम में आ जाता है। तंबाकू की धूल भी कृमिनाशक औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त होती है। भारत में सिगार का प्रचलन अधिक नहीं है। पाश्चात्य देशों में भी उसके उत्पादन के आँकड़ों से पता लगता है कि उसका प्रचलन कम हो रहा है। (फूलदेव सहाय वर्मा)