सिक्ख युद्ध वास्तव में, अपरोक्ष रूप से, आंग्ल सिक्ख संघर्ष का बीजारोपण तभी हो गया जब सतलज पर अंग्रेजी सीमांत रेखा के निर्धारण के साथ पूर्वी सिक्ख रियासतों पर अंग्रेजी अभिभावकत्व की स्थापना हुई। सिक्ख राजधानी, लाहौर, के निकट फिरोजपुर का अंग्रेजी छावनी में परिवर्तित होना (१८३८) भी सिक्खों के लिए भावी आशंका का कारण बना। गवर्नर जनरल एलनबरा और उसके उत्तराधिकारी हार्डिंज अनुगामी नीति के समर्थक थे। २३ अक्टूबर, १८४५ को हार्डिज ने एलेनबरा को लिखा था कि पंजाब या तो सिक्खों का होगा, या अंग्रेजों का; तथा, विलंब केवल इसलिए था कि अभी तक युद्ध का कारण अप्राप्त था। वह कारण भी उपलब्ध हो गया जब प्रबल किंतु अनियंत्रित सिक्ख सेना, अंग्रेजों के उत्तेजनात्मक कार्यों से उद्वेलित हो, तथा पारस्परिक वैमनस्य और षड्यंत्रों से अव्यवस्थित लाहौर दरबार के स्वार्थ लोलुप प्रमुख अधिकारियों द्वारा भड़काए जाने पर, संघर्ष के लिए उद्यत हो गई। सिक्ख सेना के सतलुज पार करते ही (१३ दिसंबर, १८४५) हार्डिज ने युद्ध की घोषणा कर दी।
प्रथम सिक्ख युद्ध का प्रथम रण (१८ दिसंबर, १८४५) मुदकी में हुआ। प्रधानमंत्री लालसिंह के रणक्षेत्र से पलायन के कारण सिक्ख सेना की पराजय निश्चित हो गई। दूसरा मोर्चा (२१ दिसंबर) फिरोजशाह में हुआ। अंग्रेजी सेना की भारी क्षति के बावजूद, रात में लालसिंह, तथा प्रात: प्रधान सेनापति तेजासिंह के पलायन के कारण सिक्ख सेना पुन: पराजित हुई। तीसरा मोर्चा (२१ जनवरी, १८४६) बद्दोवाल में हुआ। रणजीधसिंह तथा अजीतसिंह के नायकत्व में सिक्ख सेना ने हैरी स्मिथ को पराजित किया; यद्यपि ब्रिगेडियर क्योरेटन द्वारा सामयिक सहायता पहुँचने के कारण अंग्रेजी सेना की परिस्थिति कुछ सँभल गई। चौथा मोर्चा (२८ जनवरी) अलीवाल में हुआ, जहाँ अंग्रेजों का सिक्खों से अव्यवस्थित संघर्ष (Skirmish) हुआ। अंतिम रण (१० फरवरी) स्व्रोााओं में हुआ। तीन घंटे की गोलाबारी के बाद, प्रधान अंग्रेजी सेनापति लार्ड गफ ने सतलुज के बाएँ तट पर स्थित सुदृढ़ सिक्ख मोर्चे पर आक्रमण कर दिया। प्रथमत: गुलाब सिंह ने सिक्ख सेना को रसद पहुँचाने में जान-बूझकर ढील दी। दूसरे, लाल सिंह ने युद्ध में सामयिक सहायता प्रदान नहीं की। तीसरे, प्रधान सेनापति तेजासिंह ने युद्ध के चरम बिंदु पर पहुँचने के समय मैदान ही नहीं छोड़ा, बल्कि सिक्ख सेना की पीठ की ओर स्थित नाव के पुल को भी तोड़ दिया। चतुर्दिक घिरकर भी सिक्ख सिपाहियों ने अंतिम मोर्चे तक युद्ध किया, किंतु, अंतत:, उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा।
२० फरवरी, १८४६, को विजयी अंग्रेज सेना लाहौर पहुँची। लाहौर (९ मार्च) तथा भैरोवाल (१६ दिसंबर) की संधियों के अनुसार पंजाब पर अंग्रेजी प्रभुत्व की स्थापना हो गई। लारेंस को ब्रिटिश रेजिडेंट नियुक्त कर विस्तृत प्रशासकीय अधिकार सौंप दिए गए। अल्प वयस्क महाराजा दिलीप सिंह की माता तथा अभिभावक रानी जिंदाँ को पेंशन बाँध दी गई। अब पंजाब का अधिकृत होना शेष रहा जो डलहौजी द्वारा संपन्न हुआ।
मुल्तान के गवर्नर मूलराज ने, उत्तराधिकार दंड माँगे जाने पर त्यागपत्र दे दिया। परिस्थिति सँभालने, लाहौर दरबार द्वारा खान सिंह के साथ दो अंग्रेज अधिकारी भेजे गए, जिनकी हत्या हो गई। तदंतर मूलराज ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह द्वितीय सिक्ख युद्ध का एक आधार बना। राजमाता रानी जिंदाँ को सिक्खों को उत्तेजित करने के संदेह पर शेखपुरा में बंदी बना दिया था। अब, विद्रोह में सहयोग देने के अभियोग पर उसे पंजाब से निष्कासित कर दिया गया। इससे सिक्खों में तीव्र असंतोष फैलना अनिवार्य था। अंतत: कैप्टन ऐबट की साजिशों के फलस्वरूप, महाराजा के भावी श्वसुर, वयोवृद्ध छतर सिंह अटारीवाला ने भी बगावत कर दी। शेर सिंह ने भी अपने विद्रोही पिता का साथ दिया। यही विद्रोह सिक्ख युद्ध में परिवर्तित हो गया।
प्रथम संग्राम (१३ जनवरी, १८४९) चिलियाँवाला में हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों की सर्वाधिक क्षति हुई। संघर्ष इतना तीव्र था कि दोनों पक्षों ने अपने विजयी होने का दावा किया। द्वितीय मोर्चा (२१ फरवरी) गुजरात में हुआ। सिक्ख पूर्णतया पराजित हुए; तथा १२ मार्च को यह कहकर कि आज रणजीत सिंह मर गए, सिक्ख सिपाहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। २९ मार्च को पंजाब अंग्रेजी साम्राज्य का अंग घोषित हो गया।
सं. ग्रं. -कर्निंघम: हिस्ट्री ऑव द सिक्ख, एडिटेड बाई गैरेट; मेक्ग्रेगर: हिस्ट्री ऑव सिख्स; गफ़ ऐंड इन्स: सिक्खस ऐंड द सिक्ख वार्स; डॉ. गंडा सिंह: ब्रिटिश ऑक्यूपेशन ऑव द पंजाब; डॉ. हरीराम गुप्त: हिस्ट्री ऑव द सिक्खस; अनिलचंद्र बनर्जी: ऐंग्लो सिक्ख रिलेशंस; केंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, खंड ५।
पंजाबी में-डॉ. गंडा सिंह: सिक्ख इतिहास, अंग्रेजाँ तें सिंधाँ दी लड़ाई (संपादित), पंजाब उत्ते अंग्रेजाँ दा कब्जा। (राजेंद्र नागर)