सिंपसन, जेम्स यंग, सर (Simpson, Games Young, Sir) सन् १८११-१८७०) का जन्म लिनलिथगो प्रदेश (स्काटलैंड) के बाथगेट नामक ग्राम में हुआ था। इनका परिवार गरीब था, फिर भी चेष्टा कर इन्हें एडिनबरा विश्वविद्यालय में भरती कराया गया। यहाँ इन्होंने आयुर्विज्ञान का अध्ययन किया और २१ वर्ष की आयु में डाक्टरी की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। 'शोथ से मृत्यु' शीर्षक इनके शोध प्रबंध से प्रसन्न होकर रोग विज्ञान के प्रोफेसर, डॉक्टर जान टामसन ने इनको अपना सहायक नियुक्त किया।

सन् १८३७ में डॉक्टर टामसन के स्थान पर एक वर्ष के लिए इन्होंने काम किया। इस प्रकार प्राप्त रोग विज्ञान के अनुभव से इनके विशेष विषय, प्रसूति विद्या, के अध्ययन में इन्हें बहुत सहायता मिली। सन् १८३९ में विवाह होने के पश्चात्, ये एडिनबरा विश्वविद्यालय में प्रसूति विद्या के प्रोफेसर नियुक्त हुए। दूसरों की पीड़ा और क्लेश से डॉक्टर सिंपसन बचपन में ही मर्माहत हुए थे। डॉक्टर हो जाने पर अपने रोगियों, विशेषकर प्रसूता स्त्रियों को वेदना से बचाने के उपायों की खोज में वे लगे। सन् १८४६ में यह ज्ञात हुआ कि मॉर्टन नामक अमरीकन दंत चिकित्सक ने दाँत निकालते समय वेदना से बचाने के लिए संवेदनाहारी, ईथर, का प्रयोग सफलता से किया।

डॉ. सिंपसन ने भी प्रसूति के समय ईथर के प्रयोग का निश्चय किया, किंतु इसमें उन्हें अनेक डॉक्टरों और विशेषकर पादरियों के विरोध का सामना करना पड़ा। पादरी प्रसूति में संवेदनाहारी के प्रयोग को ईश्वरीय क्रिया में हस्तक्षेप मानते थे। जब डॉक्टार सिंपसन ने दिखाया कि बाइबिल के अनुसार ईश्वर ने भी आदम की पसली की हड्डी निकालते समय संवेदनहारी का प्रयोग किया था, तब, यह विरोध शांत हो गया।

अनुभव से सिंपसन ने पाया कि ईथर का प्रयोग संतोषदायक नहीं था। उसके स्थान पर वे अन्य उपयुक्त द्रव्य की खोज में लगे। अपने दो डॉक्टर मित्रों के साथ प्रत्येक संध्या को वे अनेक पदार्थों के वाष्पों में साँस लेकर उनकी जाँच करने लगे। दीर्घ काल तक उन्हें सफलता नहीं मिली। एक दिन डॉक्टर सिंपसन को क्लोरोफॉर्म नामक पदार्थ की जाँच करने की बात सूझी। तीनों मित्रों ने गिलासों में इस द्रव को उलटकर सूँघना आरंभ किया। थोड़ी ही देर में तीनों मूर्च्छित हो गिर पड़े। इस प्रयोग से निश्चित हो गया कि संज्ञाहरण के लिए क्लोरोफॉर्म उपयुक्त द्रव्य है। डॉक्टर सिंपसन ने इसे प्रसूति के समय काम में लाना प्रारंभ किया। महारानी विक्टोरिया ने भी अपने बच्चों को जन्म देते समय इसके प्रयोग की स्वीकृति दी। शीघ्र ही सब प्रकार की शल्य चिकित्साओं में क्लोरोफ़ॉर्म का प्रयोग किया जाने लगा। अनेक देशों ने डॉक्टर सिंपसन को मनुष्य जाति की उपकारी इस खोज के लिए सम्मानित किया। पेरिस की आयुर्विज्ञान अकादमी ने अपने नियमों की अवहेलना कर इन्हें अपना सहकारी सदस्य मनोनीत किया तथा सन् १८५६ में मनुष्य जाति को महान् लाभ पहुँचाने के लिए मांथ्यों (Monthyon) पुरस्कार दिया। यूरोप और अमरीका की प्राय: प्रत्येक आयुर्वैज्ञानिक सोसायटी ने इन्हें अपना सदस्य चुना।

डॉ. सिंपसन ने स्त्री-रोग-विज्ञान (Gynaecology) में भी महत्व की खोज और उन्नति की। इनकी चेष्टाओं से स्त्रियों की परिचर्या के लिए अनेक अस्पताल खोले गए। धात्रीविद्या में भी इन्होंने यथार्थता और सुव्यवस्था स्थापित की। दोनों विद्याओं से संबंधित इनके लेख महत्व के हैं। इन्होंने शल्य चिकित्सा में धमनियों को बाँधने की एक नई विधि का सूत्रपात किया। सन् १८६६ में इन्हें 'सर' की उपाधि मिली, किंतु इसी वर्ष पुत्र और पुत्री की असामयिक मृत्यु से इन्हें ऐसा धक्का लगा कि इनका स्वास्थ्य नष्ट हो गया और ये अधिक दिन जीवित न रह सके। (भगवान दास वर्मा)