सिंधु घाटी की संस्कृति भारतीय अनुसंधान में सन् १९२०-२२ का एक विशेष महत्व है। इसी समय भारत पाकिस्तान उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिमी भाग में कांस्ययुग की एक महान् संस्कृति के अवशेषों की उपलब्धि हुई, जिसे सिंधु घाटी की संस्कृति के नाम से जाना जाता है। इस संस्कृति के विशद स्थल सिंधु के लरकाना जिला स्थित मोहनजोदड़ो तथा पंजाब के मोंटगुमरी जिला स्थित हड़प्पा में पाए गए। इनके अतिरिक्त, माकरान में, अरब सागर के तट पर सुतकेनजेनडोर और सोक्ताखोह, बलूचिस्तान में डाबरकोट, नोकजोशाहदिनजाय तथा समस्त सिंधु की घाटी में इस संस्कृति के अनेकानेक स्थल मिले हैं, जिनमें चन्हूदड़ी, लाहेम्जोदड़ो आमरी, पंडीवाही, अलीमुराद, गाजीशाह आदि उल्लेखनीय हैं, तत्कालीन अनुसंधान की दृष्टि से यह संस्कृति सिंधु घाटी ही सीमित थी। परंतु जब सन् १९४७ में देश का विभाजन हुआ तो उस समय इस संस्कृति के सभी स्थल पाकिस्तान के अंतर्गत आ गए, तत्पश्चात् भारतीय पुरातत्ववेत्ताओं के सतत प्रयास, अन्वेषण और उत्खनन के परिणामस्वरूप यह सिद्ध हो गया कि इस संस्कृति का क्षेत्र न केवल सिंधु घाटी तक ही सीमित था वरन् पूर्व में उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना-घाटी में जिला मेरठ स्थित आलमगीरपुर तक, उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों के नीचे जिला अंबाला में स्थित रूपड़ तथा दक्षिण में नर्मदा ताप्ती के बीच के क्षेत्र में बहने वाली किम नदी के किनारे स्थित भगतराव पर्यंत था। इसके विस्तार क्षेत्र में उत्तर पश्चिमी राजस्थान में घग्गर (प्राचीन सरस्वती) का क्षेत्र तथा समस्त कच्छ और सौराष्ट्र सम्मिलित थे। इस संस्कृति का क्षेत्र अब २,१७,५५७ वर्ग किलोमीटर ज्ञात होता है, कतिपय विद्वानों का मत है कि इतना विस्तृत क्षेत्र हो जाने के नाते इसको संकुचित रूप से सिंधु संस्कृति न कहकर 'हड़प्पा संस्कृति' कहना अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि इस संस्कृति के सभी सांस्कृतिक उपकरण हड़प्पा में ही सर्वप्रथम उपलब्ध हुए। कदाचित् हड़प्पा संस्कृति को आद्य-इतिहास-युग की एक महान् सभ्यता कहना अनुपयुक्त न होगा क्योंकि भारत पाक उपमहाद्वीप में इसका विस्तार मिस्र की नील घाटी की सभ्यता अथवा ईराक की दजला-फरात-घाटी की समकालीन सभ्यता के क्षेत्र से कहीं अधिक विशाल था।
ईसा पूर्व तृतीय सहस्राब्द में हड़प्पा संस्कृति सिंधु घाटी में संपूर्ण रूप से परिपक्व एवं विकसित उपलब्ध होती है। परंतु इसकी उत्पत्ति एवं शैशव का ज्ञान अभी तक पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है। पुरातत्ववेत्ता इस जटिल समस्या को सुलझाने के लिए अनवरत प्रयत्नशील हैं। कुल्ली तथा नाल सभ्यता के कुछ उपकरण, मोहनजोदड़ो के उत्खनन में कुछ गहरी पत्तों से मिले, क्वेटा आर्द्र मृत्पात्र जिनमें लाल रंग के ऊपर चौड़ी काली पट्टी बनी है जिनका साम्य पैरियानों घुडाई के मृतपात्रों से होता है, कोटडीजी (सिंध) से प्राक् हड़प्पा युग की परतों के मिट्टी के पात्र तथा राजस्थान में गंगानगर में कालीबंगन के हड़प्पा पूर्व के अवशेषों से प्राप्त मिट्टी के पात्र तथा तत्साम्य के सोठी से प्राप्त मृत्पात्र, इस संस्कृति के कतिपय सांस्कृतिक उपकरणों के उद्गम एवं उत्पत्ति की ओर अवश्य संकेत करते हैं परंतु निश्चित रूप से सर्वांगरूपेण इस महान संस्कृति की उत्पत्ति के विषय में अभी अधिक अन्वेषण और उत्खनन की आवश्यकता है।
हड़प्पा सभ्यता की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। जहाँ कहीं भी इस संस्कृति के अवशेष मिले हैं वहाँ कुछ आधारभूत सांस्कृतिक उपकरणों का अधिक या कम मात्रा में सामंजस्य है जिससे इस सभ्यता की सार्वभौम प्रकृति का पता चलता है परंतु कतिपय क्षेत्र रूपांतर भी पाया गया है जिससे ज्ञात होता है कि सिंधु संस्कृति रूढ़िगत होते हुए भी जब अन्य प्रदेशों में फैली तो इसमें उन क्षेत्रों के सांस्कृतिक उपकरणों का समावेश हो गया जिससे इसके गतिशील होने का परिचय मिलता है, हड़प्पा संस्कृति के आधारभूत सांस्कृतिक उपकरण निम्न हैं:
१. ����� मुद्राएँ और मुद्रा छापें, जिनमें पशुओं की आकृति और चित्र-संकेत-लिपि है,
२. ����� बिलौर (चर्ट) के लंबे फाल (ब्लेड), पत्थर के तौल।
३. ����� मिट्टी के लाल रंग के पात्र जिनमें काले रंग से नैसर्गिक एवं ज्यामितिक चित्र बने हैं। इनके मुख्य मिट्टी के बर्तनों के प्रकार में डिश-ऑन-स्टैंड, गोबलेट, बीकर, परफोरेटेड जार हैं।
४. ����� ताम्र और काँसे का प्रयोग।
५. ����� विशद नगर नियोजन, कोट प्रकार तथा प्रमाप परिमाण की ईटें।
६. ����� पकी मिट्टी के खिलौने, मृच्छकटिकों के चोरवटें तथा मातृदेवी का प्रतिमाएँ।
७. ����� पकी मिट्टी के तिकोने केक।
८. ����� इंद्रगोप (कारनेलियन) के लंबे मनके, फेंस, स्टीरोटाइप के मनके।
९. ����� घान्यागार।
१०. ��� गेहूँ और कपास का प्रयोग।
११. ��� मृतकों को गाड़ने की विशेष प्रथा तथा श्मशान भूमियाँ।
अब प्रश्न उठता है कि इस सभ्यता का विशद विस्तार क्यों हुआ? यह संस्कृति सिंधु घाटी में ही सीमित न रहकर पूर्व में और दक्षिण पश्चिम की ओर क्यों फैली? कदाचित् इसका कारण आर्थिक, प्राकृतिक एवं आक्रमण हो सकते हैं परंतु अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है। किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस संस्कृति का विस्तार मुख्यत: दो दिशाओं में हुआ, एक तो हड़प्पा की ओर से उत्तर, पूर्व, दक्षिण से समुद्री मार्ग द्वारा कच्छ और सौराष्ट्र की ओर। हाल में उत्तरी कच्छ में हड़प्पा संस्कृति के अनेक अवशेषों के उपलब्ध हो जाने से इस संस्कृति के लोगों के सिंध से कच्छ की ओर स्थल-देशांतर-गमन की संभावना पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है।
इस संस्कृति के कुछ मुख्य केंद्र ये हैं-सिंध में मोहनजोदड़ो, पंजाब में हड़प्पा और रूपड़, कच्छ में देसलपुर और सूरकोटडा, सौराष्ट्र में लोथल, रोजडी तथा प्रभासपट्टन, राजस्थान में कालीबंगन और उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर। इनमें भी मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगन और लोथल विशेष वर्णनीय हैं। प्रथम तीन तो प्रादेशिक राजधानियाँ सी लगती हैं और लोथल एक बहुत बड़ा व्यापारिक लगता है।
१. ����� मोहनजोदड़ो-सिंध के लरकाना जिले में स्थित मोहनजोदड़ो का अर्थ 'मृतकों का स्थान' होता है। इस विशाल टीले की उपलब्धि और उत्खनन का कार्य आर.डी. बनर्जी ने १९२१-२२ में करवाया। इसके बाद मार्शल के निर्देशन में दीक्षित, वत्स, हारग्रीव्ज तथा मैके आदि ने किया। उत्खनन के फलस्वरूप मोहनजोदड़ो में कृत्रिम पहाड़ी के ऊपर लगभग १५.२४ मीटर की ऊँचाई पर एक प्राकारवेष्ठित दुर्ग मिला है जिसके दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम में पक्की ईटों और लकड़ी के बने बुर्जों के ध्वंसावशेष हैं। इस दुर्ग के भीतर सबसे महत्वपूर्ण वास्तु चतुर्दिक बरामदों से घिरा हुआ एक स्नानकुंड मिला है जिसी माप ११.८८-२.४३ मीटर है। इस कुंड की बाहरी दीवार पर गिरिपुष्पक की एक इंच मोटी पलस्तर लगी मिली। इसके पश्चिम में एक धान्यागार या भांडागार मिला है जिसके निर्माण में सदृढ़ लकड़ी के लट्ठों का प्रयोग किया गया है और चढ़ाने के लिए एक पक्की ईटं का चबूतरा भी मिला है।
इसके अतिरिक्त व्हीलर के मतानुसार एक सभामंडप, विद्यालय तथा लंबे भवन (७०.१०-२३.७७ मीटर) के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं जो कदाचित् धर्माध्यक्ष या उच्च अधिकारी का हो। दुर्ग के नीचे सिंधु नदी की ओर, जो अब इस स्थान से दो मील दूर पूर्व हटकर बहती है, मोहनजोदड़ो का विशाल नगर बसा हुआ था जिसके ध्वंसावशेष बताते हैं कि यह विभिन्न खंडों में विभाजित था जिसमें से ६ खंडों का पता चला है। सड़कें सीधी, उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम दिशाओं को जाती हुई एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। कहीं-कहीं सड़कें १०.०५८ मीटर चौड़ी भी मिली हैं।
मकानों से नालियाँ आकर सड़क के किनारे बहने वाली बंद नाली में मिल जाती थीं, और नालियों के बीच में सोक पिट की व्यवस्था थी। मकान बड़े और छोटे मिले हैं। छोटे मकानों में आँगन के चारों ओर ४ या ६ कमरे होते थे। ऊपर दुमंजिले या छत पर जाने के लिए सीढ़ी होती थी और प्रत्येक मकान में स्नानगृह (बाथरूम) होता था जिसका पानी जाने के लिए ढँकी हुई नाली का प्रबंध था। किसी भी मंदिर के अवशेष नहीं मिले हैं तथापि एक चपटे भवन को कुछ लोगों ने मंदिर समझा है। इतनी सुव्यवस्थित नगर-निर्माण-कला की तुलना उस समय के सभ्य संसार के अन्य भागों से नहीं की जा सकती।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन में जो अनर्घ कोष मिला है उसमें मुद्रा, मुद्रा छापें, पत्थर के तौल, बिल्लौर के फाल, ताँबे और काँसे के शस्त्रोपकरण और बर्तन, मनुष्यों एवं जानवरों की मिट्टी की मूर्तियाँ, मातृदेवी की प्रतिमाएँ, सोने, चाँदी के मनके, कंगन, गलहार, अनेक चित्रित मृत्भांड, हाथी दाँत, फेयंस और शंख की वस्तुएँ हैं। इसके अतिरिक्त उत्कृष्ट शिल्प में 'कांस्य की नर्तकी' और 'दाढ़ीवाला मनुष्य' महत्वपूर्ण हैं। अनेकानेक पत्थर के लिंग और योनियाँ मिली हैं, जो प्रकृति और पुरुष की पूजा के द्योतक हो सकते हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त 'शिव पशुपति' मुद्रा मार्शल के मतानुसार शिव की उपासना का द्योतक है। ये लोग कपास से रूई बनाकर सूती कपड़ा पहनते थे और गेहूँ इनका खाद्यान्न था।
२. �� हड़प्पा-इस सभ्यता का दूसरा बड़ा स्थल पंजाब के मोंटगुमरी जिला स्थित हड़प्पा था जो किसी समय रावी नदी के किनारे पर था। इस स्थान को मेसन और बर्न ने १९वीं सदी के पहले चरण में पहली बार देखा था। बाद को कनिंघम ने खुदाई भी कराई थी। १९२० से ४६ तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने यहाँ पर उत्खनन कराया। हड़प्पा को रेल के ठेकेदारों ने बड़ी क्षति पहुँचाई है और यहाँ की ईटें ले जाकर १६० किलो मीटर लंबी पटरी पर डाला गया जिससे यहाँ के अवशेषों को बहुत क्षति पहुँची है और कुछ ही वास्तुखंड मिल पाए हैं। परंतु जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
मोहनजोदड़ो की तरह हड़प्पा में भी एक प्राकारवेष्ठित दुर्ग और उसके सामने नगर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस दुर्ग का आकार लगभग समानांतर चतुर्भुज का है। इस दुर्ग का प्राकार जिसकी ऊँचाई लगभग १५.२४ मीटर निकली, तीन भिन्न-भिन्न समयों में बनाया गया दृष्टिगत होता है। दुर्ग प्राकार के बाहर कच्ची मिट्टी की ईटों के बाह्य भाग में पक्की ईटें भी लगा दी गई हैं। प्राकार में स्थान-स्थान पर बुर्ज और वृत्ताकार प्रवेशद्वार थे हड़प्पा में एक धान्यागार भी मिला है। प्राकारवेष्ठित दुर्ग से नदी तक के बीच श्रमजीवियों के निवास स्थान और अनाज कूटने के लिए वृत्ताकार चबूतरे बने मिले हैं, जिनके समीप ही ६-६ की दो पंक्तियों में निर्मित धान्यागार के अवशेष मिले हैं जिसके बीच में ७.०१ मीटर चौड़ा रास्ता था। इस धान्यागार का क्षेत्र ८३६.१३ वर्ग मीटर है। नदी द्वारा अनाज लाकर इस भंडार में सुरक्षित रखा जाता होगा।
१९४६ की खुदाई में व्हीलर को हड़प्पा में एक बड़ा श्मशान मिला जिससे शवोत्सर्ग के बारे में ज्ञान होता है। शवों को कब्र बनाकर उत्तर पश्चिम दिशा में रखकर गाड़ा जाता था। कभी ईटों से पक्की कब्र बनाई जाती थी। मृतक के उपयोग के लिए आभूषण, पात्रादि भी रख दिए जाते थे। एक शव को लकड़ी के संदूक में रखकर गाड़ने का साक्ष्य भी है। कदाचित् यह किसी विदेशी का शव हो।
यहाँ की खुदाई में जो अनर्ध वस्तुकोष मिला है, उसमें डेढ़ हजार के लगभग पत्थर, मिट्टी, फेयंस इत्यादि की मुद्राएँ, मिट्टी के खिलौने, चाँदी, पत्थर आदि के मनके, नाना प्रकार के मिट्टी के बरतन, (जिनमें बहुत से चित्रित भी हैं). हाथी दाँत और शंख की वस्तुएँ हैं। सांस्कृतिक उपकरणों में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो का भारी साम्य है।
सुमेर में पाई गई अनेकानेक सैंधव मुद्राओं से इस संस्कृति का तत्कालीन पश्चिमी एशिया की संस्कृतियों से व्यापारिक संबंध ज्ञात होता है। क्रेमर के मतानुसार सुमेरिया के साहित्य में 'बाढ़ कथा' में जो दिलमन का वर्णन आता है उससे सिंधु घाटी का अधिक साम्य प्रतीत होता है।
इस क्रांतिप्रिय एवं व्यापारिक संस्कृति का अंत एकाएक कैसे हुआ? कैसे इतनी बड़ी जनसंख्या का लोप हो गया? क्या यह अनायास ही अवरुद्ध हो गई? इसका उत्तरदायित्व या तो नदियों की बाढ़ों का हो सकता है या आक्रमणकारियों के दुर्दांत आक्रमणों का। डेल्स ने बतलाया है कि सहसा ई.पू. द्वितीय सहस्राब्दी के लगभग मध्य में इस भाग में अरब सागर का तट ऊँचा हो गया। इसके अतिरिक्त अधिकाधिक बाढ़ों से लाई गई मिट्टी से सिंधु का मुहाना अवरुद्ध हो गया। नदी का जल स्तर भी बढ़ गया और धरती की क्षारता भी अधिक हो गई जिसके कारण इस संस्कृति का सिंध में अंत हो गया। हड़प्पा में श्मशान 'ह' की खुदाई से जिस शवोत्सर्ग प्रथा और कुंभ कला का ज्ञान हुआ है उससे पता चलता है कि ये एक नई सभ्यता के लोग अवश्य थे जो हड़प्पा में आए परंतु लाल के मतानुसार यह श्मशान हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों के ऊपर १.५२ मी.-१.८२ मीटर मलबे के एकत्रित होने के पश्चात् बना हुआ पाया गया। अत: श्मशान 'हृ' की सभ्यता का हड़प्पा संस्कृति के काफी बाद में उस स्थान में आगमन मानना चाहिए, श्मशान 'ह' की कुंभकला और उसमें चित्रित परलोकदाद को लेकर या इन्हें आर्यों से संबंधित करके 'पुरंदर' को पूजने वाले आर्यों द्वारा हड़प्पा संस्कृति का अंत मानना युक्तिसंगत नहीं लगता है।
पूर्वी पंजाब में सतलुज की सहायक सिरसा तथा अन्य नदियों के किनारों में हड़प्पा संस्कृति के अवशेष निक्कुम या ढेर माजरा, बाढ़ा, कोटलतापुर, चमकोर, डांगमरहनवाला, राजा सीकाक, ढांगरी और माधोपुर, कोटला निहंग नामक स्थानों में प्राप्त हुए। शर्मा को रूपड़ नामक स्थान पर हड़प्पा संस्कृति के विशद उल्लेखनीय अवशेष उपलब्ध हुए हैं। यहाँ हड़प्पा संस्कृति के लगभग सभी सांस्कृतिक उपकरण उपलब्ध होते हैं और एक तत्कालीन श्मशान भी मिला है। रूपड़ में हड़प्पा संस्कृति की ऊपर की परतों में कुछ सांस्कृतिक उपकरण, जैसे पकाई मिट्टी के केक तथा सैंधव गोबलेट कम मात्रा में मिलते हैं जिससे कुछ ्ह्रास का आभास अवश्य होता है। बाढ़ की स्थिति कुछ भिन्न ज्ञात होती है। हाल में देशपांडे को मुदयाला कालान और काटू पालन में हड़प्पा संस्कृति के अवशेष मिले हैं। इनका बाढ़ा और रूपड़ से संबंध रोचक हो सकता है।
उत्तर प्रदेश के मेरठ जिला स्थित हिंडन के किनारे आलमगीरपुर नाम स्थान पर शर्मा को जो हड़प्पा संस्कृति के अल्प अवशेष प्राप्त हुए हैं उनसे पता चलता है कि हड़प्पा संस्कृति के लोग इस भाग तक अवश्य पहुँचे, परंतु यहाँ नगर निर्माण एवं श्मशान का कोई अवशेष प्राप्त नहीं हुआ है। केवल हड़प्पा संस्कृति के मृत्पात्र तथा चित्र संकेतलिपि के कुछ उदाहरण पात्रों में तथा पक्की मिट्टी के तिकोने केक, मनके आदि मिलते हैं। हो सकता है, यहाँ पहुँचते-पहुँचते हड़प्पा सभ्यता के कतिपय सांस्कृतिक उपकरण ही रह गए हों। जो कुछ भी हो, आलमगीरपुर इस संस्कृति की नि:संदेह पूर्वी सीमा अवश्य बतलाता है। देशपांडे को सहारनपुर की नकुर तहसील स्थित पिलखानी और बड़गाँव में हड़प्पा संस्कृति के अवनतिकाल के अवशेष मिले हैं तथा उसी जिले में अंबाखेड़ी में इस संस्कृति के कुछ हासोन्मुख अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि गंगा-यमुना-घाटी तक हड़प्पा संस्कृति का विस्तार था, कालक्रम में भले ही यह अंतिम चरण में हो।
३. ����� कालीबंगन-१९५२-५३ में घोष को राजस्थान में भारत पाक सीमा से लेकर हनुमानगढ़ पर्यंत प्राचीन सरस्वती और दृशद्वती नदियों के किनारे हड़प्पा संस्कृति के २५ स्थल प्राप्त हुए जिनमें गंगानगर स्थित कालीबंगन के दो टीले उल्लेखनीय हैं। इन टीलों का उत्खनन लाल और थापड़ ने सन् १९६१ से सतत रूप से प्रारंभ किया और उत्खनन कार्य अभी भी चल रहा है।
इन दोनों टीलों में पूर्व का टीला पश्चिमी टीले की अपेक्षा अधिक बड़ा है। इन पाँच वर्षों की खुदाई के परिणामस्वरूप पश्चिमी टीले में प्राकारावेष्ठित दुर्ग मिला है जिसके प्राकार को कच्ची ईटों से बनाया गया। इसका विशद भाग दक्षिण की तरफ उपलब्ध होता है। इस दुर्ग के अंदर मिट्टी और कच्ची मिट्टी की ईटों के कई चबूतरे हैं और अलग-अलग समय की पक्की ईटों की नालियाँ बनी हैं। प्राकार के उत्तर पश्चिम में एक बुर्ज के अवशेष का आभास होता है। दक्षिण की तरफ इस प्राकार में एक द्वार (२.६५ मीटर चौड़ाई) के भग्नावशेष भी दृष्टिगत हुए हैं। यद्यपि यह पक्की ईटों का बना था, तथापि ईटं के चोरों ने इसे काफी क्षति पहुँचाई है। इसमें दुर्ग के ऊपर चढ़ने के हेतु सीढ़ियाँ बनी रही होंगी जैसा अवशेषों से आभास होता है। एक स्थान पर एक लकीर में राख से भरी कुछ अग्निवेदियाँ मिली हैं। कदाचित् इनका कुछ धार्मिक अर्थ हो ऐसा संभव हो सकता है। प्राकार, दुर्ग और चबूतरों की स्थिति का ठीक ज्ञान अधिक उत्खनन होने के पश्चात् ही होगा।
दूसरे पूर्वी टीले की खुदाई के फलस्वरूप आदर्श सिंधु सभ्यता की शतरंज की बिसात के नमूने का नगर मिला है जो प्राकारवेष्ठित है और जिसमें सड़कें और गलियाँ एक-दूसरे से समकोण में मिलती हैं, जिनके दोनों तरफ मकान बने हैं। यहाँ पर सड़कें पहले सादी मिट्टी की होती थीं परंतु कालांतर में उनके ऊपर पकाई मिट्टी के केक डालकर पाट दिया जाता था। सड़कों में नालियाँ अभी तक प्राप्त नहीं हुई हैं। एक मकान में से अलग-अलग समय की दो-तीन नालियाँ निकलती हुई सड़क की तरफ डाली गई हैं। मकानों के सामने कच्ची मिट्टी का फर्श बना हुआ दिखाई देता है। सड़कों में मकानों के सामने आयताकार स्थान है। हो सकता है, यह बिकाऊ सामान रखने के लिए हो या पशुओं को चारा खिलाने या पानी पिलाने के लिए हो। मकानों की छतें बेत में मिट्टी का गारा लगाकर बनाई जाती थीं।
यहाँ पर एक हड़प्पाकालीन श्मशान भी उपलबध हुआ है जिसकी अभी तक १४ समाधियाँ खोली गईं, जिनमें से ५ कब्रों में ग्रंथियुक्त कंकाल मृत्पात्रों समेत पाए गए। इनमें से एक में हड़प्पा शवोत्सर्ग प्रथा के बिल्कुल विपरीत कंकाल झुका, हाथ-पाँव मोड़े, पेट के बल, अधोमुख, दक्षिण शीर्ष पाया गया और जो कब्र के उत्तरी भाग में सात मृत्पात्रों के साथ समाविष्ट था और दक्षिण भाग करीब-करीब खाली था। एक-दूसरी जो आयताकार कब्र निकली है (५.२ मी.) जिसमें चारों तरफ कच्ची मिट्टी की ईटें लगाई गई थीं और अंदर की तरफ मिट्टी का पलस्तर लगा था, उसमें ७० मृत्भांड मिले, जिनमें ३७ उत्तर की तरफ थे और बाकी मध्य में थे। मृतक का शरीर इनके ऊपर पड़ा था। इसके अतिरिक्त इसमें तीन और भी कंकाल मिले हैं जो कालक्रम से बाद को डाले गए हैं। सभी का सिर उत्तर की ओर रखा गया था। चार-पाँच और समाधियाँ मिली हैं, जिनमें सिर्फ मृत्पात्र मिले हैं और अस्थियाँ प्राप्त नहीं हुई हैं। एक और प्रकार की कब्र मिली है, जो चपटी या आयताकार है और उत्तर-दक्षिणवर्ती है, जिसमें केवल मृत्पात्र रखे गए हैं। कालीबंगन की हड़प्पा शवोत्सर्ग क्रिया में कुछ अंतर आ गया, सामाजिक दृष्टिकोण से इसका क्या अर्थ था, अभी कहना कठिन है।
रानर्ध वस्तुकोष में मुद्राएँ, मुद्रा छापें, मनके और मिट्टी के खिलौने, बैल की प्रतिमाएँ, मृच्छकटिकों के चौखटे, तिकोने केक, बिल्लौर के फाल, ताँबे के हथियार, मछली मारने के काँटे तथा हड़प्पा शैली के चित्रित मृत्पात्र मिले हैं। यहाँ पर हड़प्पा संस्कृति की आदर्शभूत कोई भी 'मातृदेवी' की प्रतिमा अभी तक नहीं प्राप्त हुई है। लाल के मतानुसार कालीबंगन में हड़प्पा चित्र-संकेत-लिपि जो एक मृत्पात्र खंड में लिखित उपलब्ध है, इसकी साक्षी है। यह लिपि दाहिने से बाएँ को लिखी जाती थीं। हड़प्पा संकेत-चित्र-लिपि के अनुसंधान में यह एक महत्वपूर्ण चरण है। लाल ने लिखा है कि कदाचित् यह संस्कृति की तीसरी प्रादेशिक राजधानी हो।
४. ����� लोथल-राव को अहमदाबाद के घोलका तालुका में, सरगवाला ग्राम में, लोथल नामक टीले की उपलब्धि हुई जिसके उत्खनन के परिणामस्वरूप पता चला है कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने यहाँ पर आकर भोगाऊ और साबरमती की बाढ़ से बचने के हेतु बड़ी-बड़ी कच्ची मिट्टी की ईटों के चबूतरे बनाए जिनके ऊपर फिर मकान बने मिले हैं। इस मिट्टी की कच्ची ईटं के चबूतरे (जो ३.६५८ से ४.५७२ मीटर ऊँचा था) के ऊपर ऊँचे स्थान पर पक्की ईटं के मकान बनाए गए जो कदाचित् धनिकों या वहाँ के प्रमुख के हेतु थे। निचले भाग में सामान्य नागरिक मकानों में रहते थे जो १३.७१६ मीटर ऊँचे चबूतरे के ऊपर बने हैं। सारा नगर कई खंडों में विभक्त था। चार मुख्य मार्ग मिले हैं जिनमें से दो एक-दूसरे को समकोण में काटते हैं। मकान सीधी लकीड़ में सड़कों के दोनों ओर बनाए गए हैं। प्रत्येक मकान में एक स्नानगृह मिला है जिसकी नाली बड़ी नाली से मिलती थी। ऊपर के भाग में एक पक्की ईटं का कुआँ भी मिलता है।
नगर के निचले भाग में ताम्रकार, मनके बनाने वालों और शंख की चूड़ियाँ बनाने वालों की दुकानें थी। मनके बनाने की भट्ठी, तथा मनके बनाने के स्थान आदि मिले हैं। यहाँ पर एक नावघाट २१८ मीटर लंबा और ३७ मीटर चौड़ा और ७ मीटर लंबी एक नगर से निकटवर्ती बहने वाली भोगाव नदी से जुड़ा था, जो खंभात की खाड़ी में गिरती है और जिसमें ज्वार भाटे के समय नार्वे आ जा सकती थीं। लोथल से प्राप्त 'बेहराइन प्रकार की मुद्रा' से ज्ञात होता है कि नि:संदेह ३०००-२००० ईसा पूर्व पश्चिमी एशिया से व्यापारिक संबंध था और छोटी नावों में कपास और अन्य वस्तुएँ फारस की खाड़ी से होते हुए पश्चिमी एशिया में जाती थीं। पश्चिमी एशिया में भी सिंधु संस्कृति की अनेक मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। लोथल से उपलब्ध मिस्र की ममी के सदृश एक पकाई मिट्टी का खिलौना तथा एक दाढ़ीवाले की आकृति के मनुष्य के खिलौने का सिर, पश्चिमी एशिया के व्यापारिक संबंधों की ओर अधिक ध्यान आकर्षित करते हैं।
लोथल में एक धान्यागार भी मिला है जिसमें बारह घनाकार इष्टकाएँ (ब्लाक) हैं और जो एक चबूतरे के ऊपर बनी हैं जिसका क्षेत्र ४१.१४८.४४.१९६ मीटर है। उसके बाहर एक और चबूतरा भी है। यहाँ पर ७० मुद्राएँ और मुद्रा छापें राख के साथ मिली हैं। इन मुद्राओं में बेत और कपड़े आदि के निशान मिले हैं। इस वास्तु को विद्वानों ने धान्यागार या भट्ठा कहा है।
लोथल की खुदाई से पता चलता है कि यहाँ पर मृतकों को उत्तर-दक्षिण में रखकर गाड़ा जाता था। एक कब्र में चारों तरफ ईटं लगाई हुई पाई गई। इसके अतिरिक्त कुछ कब्रों में दो कंकाल भी मिले हैं जैसा अन्यत्र हड़प्पा संस्कृति में नहीं पाया गया है। यह एक क्षेत्र रूपांतर प्रतीत होता है।
यहाँ मातृदेवी की प्रतिमा नहीं मिली है, तथापि कुछ नारी मूर्तियाँ मिली हैं। खिलौने, मृच्छकटिकों के चौखटें, मनके, मुद्राएँ, मुद्रा छापें, ताँबे के खिलौने और हथियार, बिल्लौर के फाल, सोने के गहने तथा छोटे-छोटे मनके मिले हैं। हाथी दाँत के बने ज्यामिति के उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ पर हड़प्पा संस्कृति के मिट्टी के पात्र बहुतायत से मिले हैं। परंतु लाल और काले रंग के पात्र जिनमें सफेद चित्र बने हैं, उपलब्ध होते हैं। यह कुंभकला भी क्षेत्र रूपांतर की प्रतीक है। लोथल में भी ऐसा लगता है कि १९०० ई. पू. में बाढ़ आ गई और इस हड़प्पा संस्कृति के वाणिज्य केंद्र को काफी क्षति पहुँची, फिर भी लोग रहते रहे परंतु इसकी अवनति होती गई, जैसा लोथल 'ब' से प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है।
वर्तमान गुजरात में हड़प्पा संस्कृति का क्रमिक संक्रमण या परिवर्तन रंगपुर की खुदाई के अवशेषों से प्राप्त होता है। हड़प्पा संस्कृति प्रकार के मिट्टी के बर्तन धीरे-धीरे नए मिट्टी के बर्तनों को स्थान देने लगते हैं। रंगपुर दो 'अ' में हड़प्पा के अवशेष मिलते हैं। इसके पश्चात् संक्रमण का युग दो 'ब' में मिलता है। यह लोथल 'ब' के समकक्ष है। रंगपुर दो 'स' में छोटे फाल, चमकीली लाल मिट्टी के बर्तन आ जाते हैं और हड़प्पा के बर्तनों का लोप हो जाता है तथा रंगपुर तीन में सभ्यता बिल्कुल बदल जाती है। बीच में दो मध्यवर्ती काल होने से रंगपुर तीन के निवासी हड़प्पा के ही अवशिष्ट ज्ञात होते हैं। रोजड़ी और प्रभासपट्टन में भी इस प्रकार का क्रम मिलता है। गुजरात में हड़प्पा संस्कृति में धीरे-धीरे परिवर्तन और अवनति होती गई।
सुंदरराजन के द्वारा करवाए गए कच्छ में देसलपुर के उत्खनन से ज्ञात होता है कि देसलपुर एक 'अ' में हड़प्पा संस्कृति के पत्थर के प्राकारावेष्ठित अवशेष हैं परंतु एक 'ब' में कुछ परिवर्तन आ जाता है और छोटे फालों तथा पीलापन लिए सफेद मिट्टी के बर्तन आ जाते हैं। देसलपुर 'दो' में एक नई सभ्यता का उद्गम होता है। देसलपुर के अतिरिक्त उत्तरी कक्ष में अभी हाल में जे.पी. जोशी को सूरकोटडा, पाबू मठ, कोटडा, कोटडा भडली, लाखापर, परिवाडा खेतर, खारी का खाडा और कैरासी नामक स्थानों में हड़प्पा संस्कृति के अवशेष मिले हैं। इन सब टीलों में खदिर क्षेत्र में स्थित कोटडी का टीला बहुत बड़ा है। यहाँ पर प्राकारावेष्ठित दुर्ग और नगर दोनों का होना संभव है। लाखापार, कोटडा और पाबू मठ काफी बड़े टीले हैं। सिंध के पास होने के कारण हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों का उत्तरी कच्छ में प्राप्त होना इस संस्कृति की विस्तार योजना में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इन टीलों का उत्खनन इस क्षेत्र की तत्कालीन स्थिति पर अधिक प्रकाश डालेगा।
इस महान संस्कृति के लोग किस प्रजाति के थे? मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोथल से प्राप्त कंकालों की कापालिक देशना के आधार पर नृतत्ववेत्ताओं ने सिंध, पंजाब और गुजरात के आधुनिक लोगों से ही इनका साम्य बताया है। फिर भी स्थिति स्पष्ट नहीं है। इस दिशा में अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।
अब यह देखना है कि इस संस्कृति का जीवनकाल क्या रहा होगा? ह्वीलर ने पश्चिमी एशिया में प्राप्त सैंधव मुद्राओं के आधार पर इसका काल २५०० ई. पू. से १५०० ई. पू. तक निर्धारित किया है। परंतु अग्रवाल के मतानुसार कार्बन १४ की तिथियों के आधार पर इस संस्कृति का जीवनकाल २३०० ई. पू से १७५० ई. पू. तक ही निर्दिष्ट होता है।
जैसा पहले लिखा जा चुका है, इस संस्कृति का अंत कुछ क्षेत्रों में बाढ़ों से और अन्य में संक्रमण एवं परिवर्तन से हुआ। जो कुछ भी हो, भारतीय संस्कृति क निर्माण में इस संस्कृति का योगदान रहा तथा इसकी छाप बहुत ही महत्वपूर्ण दृष्टिगत होती है। नियोजित नगर निर्माण कला, प्राकारावेष्ठित दुर्ग, नाप तौल तथा ज्यामिति के उपकरण, नाव घाटों का निर्माण, कपास और गेहूँ का उत्पादन, अतिरिक्त अर्थव्यवस्था, श्रमिक कल्याण, शिवशक्ति की उपासना, नृत्य और उत्कृष्ट शिल्प की देन, शांति तथा वाणिज्य का अमर संदेश सर्वदा के लिए भारतीय संस्कृति के अंग बन गए। (ज.जो.)
सं. ग्रं. -अग्रवाल, डी.पी.: हड़प्पन क्रोनोलोजी: ए रीएग्जामिनेशन ऑफ दी एवीडेंस, स्टडीज इन प्रीहिस्ट्री रोबर्ट ब्रूस फुट मेमोरियल वोल्यूम (कलकत्ता, १९६४); घोष, ए.: द इंडस सिविलिजेशन, इट्स ओरिजिंस, ऑथर्स इक्सटेंट ऐंड क्रोनोलोजी, इंडियन प्रीहिस्ट्री (पूना, १९६४); घोष: इंडियन आर्केयोलाजी ए रीव्यू, सन् १९५३ से १९६५ तक; मार्शल, सर जे.: मोहनजोदड़ो ऐंड इंडस सिविलिजेशन, भाग १,२ (१९३७); मैके, ई.जे.एच. फरदर एक्सकेवेशन ऐट मोहनजोदड़ो, भाग १,२ (१९३७-३८);
लाल, बी.बी.: स्वाधीनता के बाद खोज और खुदाई, पुरातत्व विशेषांक, 'संस्कृति', पृ. १४ से १७; वत्स, एम.एस.: एक्सकेवेशन ऐट हड़प्पा भाग ३,२ (दिल्ली १९४०); ह्वीलर, आर.ई.एम. अर्ली इंडिया ऐंड पाकिस्तान (लंदन, १९५९)।