सिंधी भाषा सिंध प्रदेश की आधुनिक भारतीय आर्य भाषा जिसका संबंध पैशाची [दे.] नाम की प्राकृत और व्राचड [दे.] नाम की अपभ्रंश से जोड़ा जाता है। इन दोनों नामों से विदित होता है कि सिंधी के मूल में अनार्थ तत्व पहले से विद्यमान थे, भले ही वे आर्य प्रभावों के कारण गौण हो गए हों। सिंधी के पश्चिम में बलोची, उत्तर में लहँदी, पूर्व में मारवाड़ी, और दक्षिण में गुजराती का क्षेत्र है। यह बात उल्लेखनीय है कि इस्लामी शासनकाल में सिंध और मुलतान (लहँदीभाषी) एक प्रांत रहा है, और १८४३ से १९३६ ई. तक सिंध बंबई प्रांत का एक भाग होने के नाते गुजराती के विशेष संपर्क में रहा है।

सिंध के तीन भौगोलिक भाग माने जाते हैं-१. सिरो (शिरो भाग), २. विचोली (बीच का) और ३. लाड़ (सं. लाट प्रदेश, नीचे का)। सिरो की बोली सिराइकी कहलाती है जो उत्तरी सिंध में खैरपुर, दादू, लाड़कावा और जेकबाबाद के जिलों में बोली जाती है। यहाँ बलोच और जाट जातियों की अधिकता है, इसलिए इसको बरीचिकी और जतिकी भी कहा जाता है। दक्षिण में हैदराबाद और कराची जिलों की बोली लाड़ी है और इन दोनों के बीच में विचोली का क्षेत्र है जो मीरपुर खास और उसके आसपास फैला हुआ है। विचोली सिंध की सामान्य और साहित्यिक भाषा है। सिंध के बाहर पूर्वी सीमा के आसपास थड़ेली, दक्षिणी सीमा पर कच्छी, और पश्चिमी सीमा पर लासी नाम की सम्मिश्रित बोलियाँ हैं। धड़ेली (धर = थल = मरुभूमि) जिला नवाबशाह और जोधपुर की सीमा तक व्याप्त है जिसमें मारवाड़ी और सिंधी का सम्मिश्रण है। कच्छी (कच्छ, काठियावाड़ में) गुजराती और सिंधी का एवं लासी (लासबेला, बलोचिस्तान के दक्षिण में) बलोची और सिंधी का सम्मिश्रित रूप है। इन तीनों सीमावर्ती बोलियों में प्रधान तत्व सिंधी ही का है। भारत के विभाजन के बाद इन बोलियों के क्षेत्रों में सिंधियों के बस जाने के कारण सिंधी का प्राधान्य और बढ़ गया है। सिंधी भाषा का क्षेत्र ६५ हजार वर्ग मील और बोलने वालों की संख्या ६६ लाख से कुछ ऊपर है।

सिंधी के सब शब्द स्वरांत होते हैं। इसकी ध्वनियों में ग, ज, ड, और ब अतिरिक्त और विशिष्ट ध्वनियाँ हैं जिनके उच्चारण में सवर्ण ध्वनियों के साथ ही स्वर तंत्र को नीचा करके काकल को बंद कर देना होता है जिससे द्वित्व का सा प्रभाव मिलता है। ये भेदक स्वनग्राम है। संस्कृत के त वर्ग-र के साथ मूर्धन्य ध्वनि आ गई है, जैसे पुट्ट, या पुट्टु (पुत्र), मंड्रु (मंत्र), निंड (निंद्रा), डोह (द्रोह)। संस्कृत का संयुक्त व्यंजन और प्राकृत का द्वित्व रूप सिंधी में समान हो गया है किंतु उससे पहले का ्ह्रस्व स्वर दीर्घ नहीं होता जैसे धातु (हिं. भात), जिभ (जिह्वा), खट (खट्वा, हिं. खाट), सुठो (सुष्ठु)। प्राय: ऐसी स्थिति में दीर्घ स्वर भी ्ह्रस्व हो जाता है, जैसे डिघो (दीर्घ), सिसी (शीर्ष), तिको (तीक्ष्ण)। जैसे सं. दत्त: और सुप्त: से दतो, सुतो बनते हैं, ऐसे सी सादृश्य के नियम के अनुसार कृत: से कीतो, पीत: से पीतो आदि रूप बन गए हैं यद्यपि मध्यम--का लोप हो चुका था। पश्चिमी भारतीय आर्य भाषाओं की तरह सिंधी में भी महाप्राणत्व को संयत करने की प्रवृत्ति है जैसे साडा (सार्ध, हिं. साढे), कानो (हिं. खाना), कुलण (हिं. खुलना), पुचा (सं. पृच्छा)।

संज्ञाओं का वितरण इस प्रकार से पाया जाता है-अकारांत संज्ञाएँ सदा स्त्रीलिंग होती है, जैसे खट (खाट), तार, जिभ (जीभ), बाँह, सूँह (शोभा); ओकरांत संज्ञाएँ सहा पुल्लिंग होती हैं, जैसे घोड़ों, कुतो, महिनो (महीना), हफ्तो, दूँहों (धूम); -आ-, इ और - ई में अंत होने वाली संज्ञाएँ बहुधा स्त्रीलिंग हैं, जैसे हवा, गरोला (खोज), मखि राति, दिलि (दिल), दरी (खिड़की), (घोड़ो, बिल्ली-अपवाद रूप से सेठी (सेठ), मिसिरि (मिसर), पखी, हाथी, साँइ और संस्कृत के शब्द राजा, दाता पुल्लिंग हैं; -उ-, -ऊ में अंत होने वाले संज्ञाप्रद प्राय: पुल्लिंग हैं, जैसे किताब, धरु, मुँह, माण्ह (मनुष्य), रहाकू (रहने वाला) -अपवाद है विजु (विद्युत), खंड (खांड), आबरू, गऊ। पुल्लिंग से स्त्रीलिंग बनाने के लिए-इ, -ई, -णि और -आणी प्रत्यय लगाते हैं-कुकुरि (मुर्गी), छोकरि; झिर्की (चिड़िया), बकिरी, कुत्ती; घोबिणी, शीहणि, नोकिर्वाणी, हाथ्याणी। लिंग दो ही हैं-स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। वचन भी दो ही हैं-एकवचन और बहुवचन। स्त्रीलिंग शब्दों का बहुवचन ऊँकारांत होता है, जैसे जालूँ (स्त्रियाँ), खटूँ (चारपाइयाँ), दवाऊँ(दवाएँ) अख्यूँ (आँखें); पुल्लिंग के बहुरूप में वैविध्य हैं। ओकारांत शब्द आकारांत हो जाते हैं-घोड़ों से घोड़ा, कपड़ों से कपड़ा आदि; उकारांत शब्द अकारांत हो जाते हैं-घरु से घर, वणु (वृक्ष) से वण; इकारांत शब्दों में-ऊँबढ़ाया जाता है, जैसे सेठ्यूँ। ईकारांत और ऊकारांत शब्द वैसे ही बने रहते हैं।

संज्ञाओं के कारकीय रूप परसर्गों के योग से बनते हैं-कर्ता-; कर्म-के, खे; करण-साँ; संप्रदान-के, खे, लाइ; अपादान-काँ, खाँ, ताँ (पर से), माँ (में से); संबंध-पु. एकव. जो, बहुव. जो, स्त्रीलिंग एकव. जी. बहुव. जूँ, अभिकरण-में, ते (पर)। कुछ पद अपादान और अधिकरण कारक में विभक्त्यंत मिलते हैं-गोठूँ (गाँव से), घरूँ (घर में), पटि (जमीन पर), वेलि (समय पर)। बहुव. में संज्ञा के तिर्यक् रूपृ-उनि प्रत्यय (तुलना कीजिए हिंदी-ओं) से बनता है-छोकर्युनि, दवाउनि, राजाउनि, इत्यादि।

सर्वनामों की सूची मात्र से इनकी प्रकृति को जाना जा सकेगा-१. माँ, आऊँ(मैं); अर्सी (हम); तिर्यक क्रमश: मूँ तथा असाँ; २. तूँ; तव्हीं, अब्हीं (तुम); तिर्यक रूप तो, तब्हाँ; ३. पुँ. हू अथवा ऊ(वह, वे), तिर्यक् रूप हुन, हुननि; स्त्री. हूअ, हू, तिर्यक रूप उहो, उहे; पुँ. ही अथवा हीउ (यह, ये) तिर्यक् रूप हि, हिननि; स्त्री. इहो, इहे, तिर्यक् रूप इन्हें। इझी (यही), उझो (वही), बहुव. इझे, उझे; जो, जे (हिं. जो); छा, कुजाड़ी (क्या); केरु, कहिड़ी (कौन); को (कोई); की, कुझु (कुछ); पाण (आप, खुद)। विशेषणों में ओकारांत शब्द विशेष्य के लिंग, कारक के तिर्यक् रूप, और वचन के अनुरूप बदलते हैं, जैसे सुठो छोकरो, सुठा छोकरा, सुठी छोकरी, सुठ्यनि छोकर्युनि खे। शेष विशेषण अविकारी रहते हैं। संख्यावाची विशेषणों में अधिकतर को हिंदीभाषी सहज में पहचान सकते हैं। ब (दो), टे (तीन), दाह (दस), अरिदह (१८), वीह (२०), टीह, (३०), पंजाह, (५०), साढा दाह (१०।।), वीणो (दूना), टीणो (तिगुना), सजो (सारा), समूरो (समूचा) आदि कुछ शब्द निराले जान पड़ते हैं।

संज्ञार्थक क्रिया-णुकारांत होती है-हलणु (चलना), बधणु (बाँधना), टपणु (फाँदना) घुमणु, खाइणु, करणु, अचणु (आना) वअणु (जानवा, विहणु (बैठना) इत्यादि। कर्मवाच्य प्राय: धातु में-इज-या-ईज (प्राकृत अज्ज) जोड़कर बनता है, जैसे मारिजे (मारा जाता है), पिटिजनु (पीटा जाना); अथवा हिंदी की तरह वञ्णाु (जाना) के साथ संयुक्त क्रिया बनाकर प्रयुक्त होता है, जैसे माओ वर्ञ थो (मारा जाता है)। प्रेरणार्थक क्रिया की दो स्थितियाँ हैं-लिखाइणु (लिखना), लिखराइणु (लिखवाना); कमाइणु (कमाना), कमाराइणु (कमवाना), कृदंतों में वर्तमानकालिक-हलंदों (हिलता), भजदो (टूटता) -और भूतकालिक-बच्यलु (बचा), मार्यलु (मारा)-लिंग और वचन के अनुसार विकारी होते हैं। वर्तमानकालिक कृदंत भविष्यत् काल के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। हिंदी की तरह कृदंतों में सहायक क्रिया (वर्तमान आहे, था; भूत हो, भविष्यत् हूँदो आदि) के योग से अनेक क्रिया रूप सिद्ध होते हैं। पूर्वकालिक कृदंत धातु में-इ-या -ई लगाकर बनाया जाता है, जैसे खाई (खाकर), लिखी (लिखकर), विधिलिंग और आज्ञार्थक क्रिया के रूप में संस्कृत प्राकृत से विकसित हुए हैं-माँ हलाँ (मैं चलूँ), असीं हलूँ (हम चलें), तूँ हलीं (तू चले), तूँ हल (तू चल), तब्हीं हलो (तुम चलो); हू हले, हू हलीन। इनमें भी सहायक क्रिया जोड़कर रूप बनते हैं। हिंदी की तरह सिंधी में भी संयुक्त क्रियाएँ पवणु (पड़ना), रहणु (रहना), वठणु (लेना), विझणु (डालना), छदणु (छोड़ना), सघणु (सकना) आदि के योग से बनती हैं।

सिंधी की एक बहुत बड़ी विशेषता है उसके सार्वनामिक अंत्यय जो संज्ञा और क्रिया के साथ संयुक्त किए जाते हैं, जैसे पुट्रऊँ(हमारा लड़का), भासि (उसका भाई), भाउरनि (उनके भाई); चयुमि (मैंने कहा), हुजेई (तुझे हो), मारियाई (उसने उसको मारा), मारियाईमि (उसने मुझको मारा)। सिंधी अव्यय संख्या में बहुत अधिक हैं। सिंधी के शब्द भंडार में अरबी-फारसी-तत्व अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा अधिक हैं। सिंधी और हिंदी की वाक्य रचना, पदक्रम और अन्वय में कोई विशेष अंतर नहीं है।

सिंधीलिपि-एक शताब्दी से कुछ पूर्व तक सिंधी में चार लिपियाँ प्रचलित थीं। हिंदू पुरुष देवनागरी का, हिंदू स्त्रियाँ प्राय: गुरुमुखी का, व्यापारी लोग (हिंदू मुसलमान दोनों) 'हटवाणिको' का (जिसे सिंधी लिपि भी कहते हैं), और मुसलमान तथा सरकारी कर्मचारी अरबी फारसी लिपि का प्रयोग करते थे। सन् १८५३ ईं. में ईस्ट इंडिया कंपनी के निर्णयानुसार लिपि का स्थिरीकरण करने के लिए सिंध के कमिश्नर मिनिस्टर एलिस की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई। इस समिति ने अरबी फारसी-उर्दू लिपियों के आधार पर 'अरबी सिंधी' लिपि की स्थापना की। सिंधी ध्वनियों के लिए सवर्ण अक्षरों में अतिरिक्त बिंदु लगाकर नए अक्षर जोड़ लिए गए। अब यह लिपि सभी वर्गों द्वारा व्यवहृत होती है। इधर भारत के सिंधी लोग नागरी लिपि को सफलतापूर्वक अपना रहे हैं; किंतु यहाँ भी व्यापक रूप से 'अरबी-सिंधी' ही चलती है। इसके ५१ अक्षर हैं जिनमें अधिकतर का रूप आदि, मध्य और अंत में भिन्न-भिन्न होता है। स्वरों की मात्राएँ अनिवार्य न होने के कारण एक ही शब्द के कई उच्चारण हो जाते हैं।

सिंधी साहित्य-सिंधी साहित्य का आरंभ काव्य से होता है। अंग्रेजी राज्यकाल से पहले यही उस साहित्य का एकमात्र रूप रहा है और आज भी इसकी सत्ता का प्राधान्य है। सिंधी कविता मुख्यत: सूफी फकीरों की कविता है जिसका सबसे बड़ा गुण यह है कि वह सांप्रदायिकता से मुक्त है-किसी प्रकार का कट्टरपन उसमें नहीं है। कोई-कोई कवि तो अपने को 'गोपी' और परमात्मा को 'कृष्ण' कहकर अपनी भावाभिव्यक्ति करते हैं। वे ईश्वर को पिता और मनुष्य मात्र को अपना भाई मानते हैं। उनका ध्येय है परमात्मा में लीनता, किरण की सूर्य की ओर वापस यात्रा अथवा बिंदु और सिंधु की एकाकारिता जिससे मैं, तू और वह का भेद नहीं रहता। पहले दोहे और सलोक लिखे जाते रहे, ब्रिटिश राज्य से कसीदों, गजलों, मसनवियों और रुबाइयों की प्रधानता होने लगी। इससे पहले थोड़ी सी लौकिक कविताएँ कसीदे और मर्सिए के रूप में प्राप्त थीं। पिछले सौ वर्षों से काव्य में सांप्रदायिकता और संकीर्णता बढ़ती गई-हिंदू मुसलिम विचारधाराओं को समन्वित करने की बात नहीं रही। साहित्यिक भाईचारा नहीं रहा। अब तो सिंध पाकिस्तान का एक भाग हो गया है।

सिंधी के कुछ पुराने दोहे अरबी फारसी इतिहास ग्रंथों में मिल जाते हैं, किंतु सिंधी की प्रथम कृति 'दोदे चनेसर' (रचनाकाल १३१२ ई.) मानी जाती है। उपलब्ध वीर प्रबंध काव्य खंडित और अपूर्ण अवस्था में है। दोदा और चनेसर दो भाई थे जिनमें भूनगर के सिंहासन के लिए युद्ध हो गया। इस युद्ध में सिंध के सब कबीले और सरदार सम्मिलित हुए। तत्कालीन सिंधियों के रीति-रिवाज, कबायली संगठन और अन्य आर्थिक तथा सामाजिक स्थितियों का इस किस्से से परिचय मिल जाता है। छंद दोहा है। १४वीं शती के अंत में शेख हमाद बिन रशीदुद्दीन जमाली और शेख इसहाक आहनगर नाम के दो सूफी कवियों के कुछ फुटकर पद्य मिलते हैं। १५वीं शती के अंत में मामुई (ठठ के निकट एक संस्थान) के सूफी दरवेशों के सात पद्य उपलब्ध होते हैं जिनमें सिंध पर आने वाली विपत्ति की भविष्यवाणी की गई है। १६वीं शती के दोहाकारों में मखदूम अहमद भट्टी, काजी काजन (मृत्यु १५५१ ईं.), मखदूम नूह हालाकंडी और शाह अब्दुल करीम (१५३८-१६२३ ई.) के नाम उल्लेखनीय हैं। ये सब सूफी फकीर थे अहमद के मुक्तकों में लौकिक प्रेम की तीव्रता है। काजन प्रेमोन्मत कवि थे। इनका कहना है कि प्रिय के दर्शन के बिना गुणगण (पवित्रता, सौंदर्य और विद्वता आदि) सब व्यर्थ हैं। बाह्य गुण हमें नरक में खींच ले जा सकते हैं, किंतु प्रेम में एक दिव्य शक्ति है। इनके दोहों की भाषा अधिक परिष्कृत और प्रांजल है। नूह के दोहों में विरह की गहराई और कल्पना की ऊँचाई है। शाह करीम के ९४ दोहे प्राप्त हैं। इन प्रेम साधना, तपश्चर्या और आत्मसमर्पण पर बल दिया गया है-'मात्र इच्छा और कामना से प्रेम की प्राप्ति नहीं हो जाती और न ही प्रार्थनाएँ काम देती हैं जब तक कि काली रातों को जागृत जागकर आँखो से खून की नदियाँ न बहाई जाएँ' १७वीं शताब्दी के एक सूफी कवि उस्मान एहसानी का 'वतननामा' (१६४६ ई.) उपलब्ध है। आप इस जगत को अपना देश नहीं मानते-यह तो रैन बसेरा है। अपना देश वही है जहाँ से हम आए हैं और जहाँ चले जाना है। इस जगत के अस्थायी घरौंदे से जी न लगा। उठ यात्रा की तैयारी कर, तुझे इस पड़ाव में नहीं पड़े रहना है।

१८वीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिंधी साहित्य का स्वर्ण युग कहलाता है। इस समय शाह इनायत, शाह लतीफ, मखदूम मुहम्मद जमान मखदूरा अब्दुल हसन, पीर मुहम्मद बका आदि बड़े-बड़े कवि हुए हैं। ये सब के सब सूफी थे। इन लोगों ने सिंधी काव्य में नए छंदों, नई विधाओं और गंभीर दार्शनिक विचारों का प्रवर्तन किया। सिंधी मसनवियों और काफियों के रूप में तसव्वुक का भारतीयकरण यहीं से आरंभ होता है। शाह इनायत ने 'उम्र मारूई', 'मोमल मेंघर' 'लीला चनेसर' तथा 'जाम तमाची और नूरी' नाम के किस्सों के अतिरिक्त मुक्तक दोहे और 'सुर' लिखे। इनका प्रकृति वर्णन विशद और कलापूर्ण है और इनके उपमान मौलिक और अनूठे हैं। शाह लतीफ (१६८९-१७५२ ई.) सिंधी के सबसे बड़े और लोकप्रिय कवि माने गए हैं। इन्होंने नए विचार, नए विषय, नई कल्पनाएँ और नई शैलियाँ देकर सिंधी भाषा और साहित्य को समुन्नत किया। इनका 'रिसालो' सिंधी की मूल्यवान निधि हैं। इसमें प्रबंधात्मक कथाएँ भी हैं, मुक्तक कविताएँ भी; इति वृतात्मक और वर्णनात्मक छंद भी हैं और भावपूर्ण गीत भी; प्रेम की कोमल कांत अभिव्यक्ति भी है और युद्ध का यथातथ्य चित्रण भी; हिंदू वेदांत भी है, इस्लामी तसव्वुक भी। इसमें प्रभु शक्ति के साथ देशभक्ति भी है। कवि को प्रकृति के सुंदर-असुंदर सभी पक्षों से प्यार है; साथ ही वे मानव से गहरी सहानुभूति रखते हैं। कहानियों का रूप लौकिक है, किंतु अर्थ में आध्यात्मिक अभिव्यंजना है। वे प्रमुखत: रहस्यवादी कवि हैं। खाजा मुहम्मद ज़मान बड़े विद्वान कवि थे। उनके ८४ दोहे प्राप्त हैं जिनमें अपने 'सज्जन' के प्रति अनन्य भक्ति और आत्म विस्मृति के भाव प्रकट हुए हैं। मियाँ अबुल हसन के काव्य में इस्लामी सिद्धांतों की व्याख्या हुई है। बका के विरह गीत प्रभावपूर्ण, काव्यात्मक और रससिक्त हैं। उत्तरार्ध के कवियों में शाह इनायत के शिष्य रोहल फकीर (मृत्यु सन् १७८२) प्रसिद्ध हैं। इनके चार बेटे भी कवि थे।

टालपुरी शीया नवाबों के राज्यकाल (सन् १७८३ से १८४३) में सिंधी साहित्य ने एक नया मोड़ लिया। पिछले युग में प्रेम कथाओं के खंड का प्रस्तुत हुआ था, अब पूरी दास्तानें लिखी जाने लगीं।

दोहा का प्राधान्य कम हुआ, काफियाँ, कसीदे और मर्सिए अधिक संख्या में लिखे जाने लगे। गजलों का प्रारंभ हुआ। गद्य का रूप भी स्पष्ट होने लगा। इस युग के सबसे प्रसिद्ध कवि सचल उपनाम 'सपमस्त' (१७३९-१८२६) थे जिन्हें सूफी संतों में बड़े आदर के साथ स्मरण किया जाता है। उनकी सी मधुर गीतियाँ और रसीली काफियाँ बहुत कम कवियों ने लिखी हैं। वे प्रेमी भक्त के लिए ब्राह्माचार और लोकाचार ही को नहीं, ज्ञान और कर्मकांड को भी व्यर्थ समझते हैं। हफीज़ का 'मोमल राना' और हाजी अब्दुल्लाह का 'लैला मजनूँ' उल्लेखनीय किस्से हैं। साबित अली शाह के मर्सिए आज भी मुहर्रम के दिनों में गाए जाते हैं। हिंदू कवियों में दीवान दलपत राय (मृत्यु १८४१), और सामी (१७४३-१८५०) जिनका पूरा नाम भाई चैन राय था, वेदांती कवि थे। इस युग के अन्य कवियों में साहबडना, अली गौहर, आरिफ़, करम उल्लाह, फतह मुहम्मद और नबी बख्श के नाम उल्लेखनीय हैं।

अंग्रेजी राज्यकाल (१८४३ से १९४७ ई.) में सिंधी में काव्य तो बहुत लिखा गया है, किंतु उसका स्तर ऊँचा नहीं है। सिंधी जनता से उसका संबंध विच्छिन्न सा हो गया है और वह उर्दू फारसी कल्पनाओं, आख्यानों, भावों, विधाओं, रूपों और उपमानों को सिंधी वेश में लाने में प्रवृत्त हो गया। काव्य में स्वच्छंदता तो है और विषयों की विविधता भी, किंतु मौलिकता बहुत कम है। इस पर पश्चिमी प्रभाव भी पड़ा है। इधर जो सिंधी में काव्य रचना देश के बँटवारे के बाद भारत में हुई है उस पर हिंदी और बंगला का प्रभाव भी स्पष्ट है। पुराने ढंग की कविता करने वालों में सूफी कवि कादर बख्श बेदिल (१८१४-१८७३ ई.) ने किस्से और काफी, बाई, बैत और सुर आदि मुक्तक लिखे, और हमल फकीर लगारी (१८१५-१८७९ ई.) ने सिराइकी और विचोली में प्रेममार्गी काव्य की रचना की। लगारी का हीर राँझे का किस्सा बहुत प्रसिद्ध है। ये पंजाब के रहने वाले थे, खैरपुर में आकर बस गए थे। इन्होंने दोहे भी लिखे। शाह लतीफ के बाद इनका स्थान निश्चित किया जाता है। सैयद महमूद शाह की काफियाँ छंदों और आदर्शों को अपनाया और सिंधी में लैला मजनूँ, यूसुफ जुलैखा, शीरीं फरहाद की कथाएँ लिखीं। नूर मोहम्मद और मोहम्मद हाशिम ने 'हिजो' (निंदात्मक कविताएँ) लिखीं और कलीच बेग और अबदुल हुसैन ने कसीदे (प्रशस्तियाँ) लिखे। कलीच बेग (मृत्यु १९२९) ने उमरखय्याम का अनुवाद सिंधी पद्य में किया। नवाब मीर हसन अली खाँ (१८२४-१९०९) ने फिरदौसी के 'शाहनामा' की नकल पर 'शाहनामा सिंध' की रचना की। उन्होंने गजलें, सलाम और कसीदे भी लिखे। इनके अतिरिक्त सांगी, खाकी (लीलाराम सिंह), बेकस (बेदिल के पुत्र), जीवत सिंह और मुराद के नाम उल्लेखनीय हैं। पश्चिमी साहित्य से प्रभावित होकर लिखने वालों में डेवनदास, दयाराम, गिडूमल, नारायण श्याम, मंघाराम मलकाणी तथा टी.एल. वसवाणी उल्लेखनीय हैं। मौलिक ढंग से कविता करने वालों में कुछ नाम गिनाए जा सकते हैं। शम्मुद्दीन बुलबुल का सिंधी काव्य में वहीं स्थान है जो उर्दू में अकबर इलाहाबादी का। नई सभ्यता पर इनके व्यंग्य भी सुधारात्मक वृत्ति से लिखे गए हैं। इन्होंने गजलें भी लिखीं। करुण रस गुलाम शाह की कविता में भरा पड़ा है। इन्हें 'आँसुओं का बादशाह' कहा जाता है। हैदरबख्श जतोई की कविता में देशभक्ति ओतप्रोत है। सिंधु नदी के प्रति उनकी कविता बहुत प्रसिद्ध हुई है। लेखराज अजील प्रकृति के चित्रकार हैं। मास्टर किशनचंद बेबस (मृत्यु १९४७) अत्यंत स्वाभाविक भाषा में लिखते रहे हैं। उनके दो कविता संग्रह-शीरीं शीर और गंगाजूँ लहरू-प्रकाशित हैं। इनके शिष्यों में हरि दिलगीर ('कोड' के लेखक), हूँदराज दुखायल ('संगीत, पूल' के कवि), राम पंजवाणी तथा गोविंद भटिया आज प्रगतिशील कवियों में गिने जाते हैं। जीवित कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध शेख अय्याज हैं जिनके गीत 'बागी' नाम के संग्रह में प्रकाशित हुए हैं।

सन् १९०२ के पहले का कोई नाटक उपलब्ध नहीं है। तब से शेक्सपियर के नाटकों के अनुवाद अथवा रामायण और महाभारत की किन्हीं घटनाओं के आधार पर लिखे गए नाटक मिलने लगते हैं। शाह (लतीफ) की कविता के आधार पर लालचंद अमरडिनूमल का लिखा हुआ 'उम्र मारुई' सबसे पहला सफल नाटक माना जाता है। कवि कलीच बेग का 'खुरशीद' नाटक (१८७०) पठनीय है। उसाणी का 'बदनसीब थरी' एक प्रहसन है। लीलराम सिंह के नाटक अपनी भाषा और शिल्प शैली की दृष्टि से बहुत सुंदर हैं। दयाराम गिडूमल का 'सत्त सहेल्यूँ' और राम पंजवाणी का 'मूमल राणो' अभिनेय नाटक हैं। वर्तमान समय में सबसे प्रसिद्ध नाटककार मंघाराम मलकाणी हैं जिन्होंने कई सामाजिक नाटक और एकांकी लिखे हैं। आप निबंधकार और कवि भी हैं।

अधिकतर गद्य साहित्य अनुवाद रूप में प्राप्त हैं। मौलिक लेखकों में मिर्जा कलीच बेग और कौडोमत चंदनमल (मृत्यु १९१६) गद्य के प्रवर्त्तकों में गिने जाते हैं। मिर्जा ने लगभग २०० पुस्तकें लिखी हैं। उनका 'जीनत' (१८९०) सिंधी का पहला मौलिक उपन्यास है जिसमें सिंधी जीवन का यथातथ्य चित्रण मिलता है। प्रीतमदास कृत 'अजीब भेंट,' आसानंद कृत 'शायर', भोजराजकृत 'दादा श्याम' (आत्मकथा की शैली में), और नारायण भंभाणी का 'विधवा' उल्लेखनीय हैं। परमानंद मेवाराम अपनी रसीली और यथार्थवादी कहानियों, निर्मलदास फतहचंद और जेठमल परसराम प्रगतिवादी कहानियों तथा भेरूमल मेहरचंद जासूसी कहानियों के कारण विख्यात हैं। वर्तमान समय में सुंदरी उत्तमचंदानी और आनंद गोलवाणी अच्छे कहानी-लेखक माने जाते हैं। परमानंद मेवाराम निबंधकार भी हैं। लुत्फउल्लाह कुरैशी, लालचंद अमरडिनूमल, नारायणदास मलकाणी, केवलराम सलामतराय अडवाणी और परसराम की गिनती सिंधी के आधुनिक शैलीकारों में की जाती है।

सं. ग्रं.-सीमूर, एल.डब्ल्यू.: ए आमर ऑव सिंधी लैंग्वेज, कराची, १८८४; ट्रंप, डॉ. अर्नेस्ट: ग्रामर ऑव सिंधी लैंग्वेज, लंदन ऐंड लाइपजिंग, १८७२।

(हरदेव बाहरी)