साहित्य दर्पण (संस्कृत साहित्य) ममट के काव्य प्रकाश के अनंतर अपनी प्रमुखता से यह प्रेषित है। काव्य के श्रव्य एवं दृश्य दोनों प्रभेदों के संबंध में सुस्पष्ट विचारों की विस्तृत अभिव्यक्ति इस ग्रंथ की विशेषता है। काव्य प्रकाश की तरह इसका विभाजन १० परिच्छेदों में है और प्राय: उसी क्रम से विषय विवेचन भी है। इसकी अपनी विशेषता है छठे परिच्छेद में जिसमें नाट्यशास्त्र से संबद्ध सभी विषयों का क्रमबद्ध रूप से समावेश कर दिया गया है। साहित्य दर्पण का यह सबसे सरल एवं विस्तृत परिच्छेद है। काव्य प्रकाश तथा संस्कृत साहित्य के प्रमुख लक्षण ग्रंथों में नाट्य संबंधी अंश नहीं मिलते। साथ ही नायक-नायिका-भेद आदि के संबंध में भी उनमें विचार नहीं मिलते। साहित्य दर्पण के तीसरे परिच्छेद में रस निरुपण के साथ-साथ नायक-नायिका-भेद पर भी विचार किया गया है। यह भी इस ग्रंथ की अपनी विशेषता है। ग्रंथ की लेखन शैली अतीव सरल एवं सुबोध है। पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों को युक्तिपूर्ण खंडनादि होते हुए भी काव्य प्रकाश की तरह जटिलता इसमें नहीं मिलती।

दृश्य काव्य का विवेचन इसमें नाट्यशास्त्र और धनिक के दशरूपक के आधार पर है। रस, ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्य का विवेचन अधिकांशत: ध्वन्यालोक और काव्य प्रकाश के आधार पर किया गया है तथा अलंकार प्रकरण विशेषत: राजानक रुय्यक के 'अलंकार सर्वस्व' पर आधारित है। संभवत: इसीलिए इन आचार्यों का मतखंडन करते हुए भी ग्रंथकार उन्हें अपना उपजीव्य मानता है तथा उनके प्रति आदर व्यक्त करता है-'इक्ष्यलमुपजीज्यमानानां मान्यानां व्याख्यातेषु कटाक्षनिक्षेपेण' 'महतां संस्तव एवंगौरवाय' आदि।

साहित्य दर्पण में काव्य का लक्षण भी अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से स्वतंत्र रूप में किया गया मिलता है। साहित्य दर्पण से पूर्ववर्ती ग्रंथों मेंश् कथित काव्य लक्षण क्रमश: विस्तृत होते गए हैं और चंद्रालोक तक आते-आते उनका विस्तार अत्यधिक हो गया है, जो इस क्रम से द्रष्टव्य है-'संक्षेपात् वाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्ना, पदावली काव्यम्' (अग्नि पुराण); 'शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली' (दंडी) 'ननु शब्दार्थों कायम्' (रुद्रठ); 'काव्य शब्दोयं गुणलंकार संस्कृतयो: शब्दार्थयोर्वर्तते' (वामन); 'शब्दार्थशरीरम् तावत् काव्यम्' (आनंदवर्धन); 'निर्दोषं गुणवत् काव्यं अलंकारैरलंकृतम् रसान्तितम्' (भोजराज); 'तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि' (मंमट) 'गुणालंकाररीतिरससहितौ दोषरहिती शब्दार्थों काव्यम्' (वाग्भट); और 'निर्दोषा लक्षणवी सरीतिर्गुणभूषिता, सालंकाररसानेकवृत्तिर्भाक् काव्यशब्दभाक्' (जयदेव)। इस प्रकार क्रमश: विस्तृत होते काव्यलक्षण के रूप को साहित्यदर्पणकार ने 'वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्' जैसे छोटे रूप में बाँध दिया है। केशव मिश्र के अलंकारशेखर से व्यक्त होता है कि साहित्यदर्पण का यह काव्य लक्षण आचार्य शौद्धोदनि के 'काव्यं रसादिमद् वाक्यम् श्रुर्त सुखविशेषकृत्' का परिमार्जित एवं संक्षिप्त रूप है।

ग्रंथ दर्शन-साहित्य दर्पण १० परिच्छेदों में विभक्त है: प्रथम परिच्छेद में काव्य प्रयोजन, लक्षण आदि प्रस्तुत करते हुए ग्रंथकार ने मंमट के काव्य लक्षण 'तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि' का बड़े संबंभ के साथ खंडन किया है और स्वरचित लक्षण 'वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्' को ही शुद्धतम काव्य लक्षण प्रतिपादित किया है। पूर्वमतखंडन एवं स्वमतस्थापन की यह पुरानी परंपरा है। द्वितीय परिच्छेद में वाच्य और पद का लक्षण कहने के बाद अभिषा, लक्षणा, व्यंजना आदि शब्द शक्तियों का विवेचन किया गया है। तृतीय परिच्छेद में रसनिष्पत्ति का बड़ा ही सुंदर विवेचन है और रसनिरूपण के साथ-साथ इसी परिच्छेद में नायक-नायिका-भेद पर भी विचार किया गया है। चतुर्थ परिच्छेद में काव्य के भेद ध्वनिकाव्य और गुणीभूतव्यंग्यकाव्य आदि का विवेचन है। पंचम परिच्छेद में ध्वनि सिद्धांत के विरोधी सभी मतों का तर्कपूर्ण खंडन और ध्वनि सिद्धांत का समर्थन प्रौढ़ता के साथ निरूपित है। छठे परिच्छेद में नाट्यशास्त्र से संबद्ध विषयों का प्रतिपादन है। यह परिच्छेद सबसे बड़ा है और इसमें लगभग ३०० कारिकाएँ हैं, जबकि संपूर्ण ग्रंथ की कारिका संख्या ७६० है। इससे नाट्य संबंधी विवेचन का अनुमान किया जा सकता है। सप्तम परिच्छेद में दोष निरूपण, अष्टम परिच्छेद में तीन गुणों का विवेचन और नवम परिच्छेद में वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली आदि रीतियों पर विचार किया गया है। दशम परिच्छेद में अलंकारों का सोदाहरण निरूपण है जिनमें १२ शब्दालंकार, ७० अर्थालंकार और रसवत् आदि कुल ८९ अलंकार परिगणित हैं।

साहित्य दर्पण के रचयिता विश्वनाथ ने अपने संबंध में ग्रंथ की पुष्पिका में जो विवरण दिया है उसके आधार पर इनके पिता का नाम चंद्रशेखर और पितामह का नाम नारायणदास था। विश्वनाथ की उपाधि महापात्र थी। इन्होंने काव्य प्रकाश की टीका की है जिसका नाम 'काव्यप्रकाश दर्पण' है। ये कलिंग के रहने वाले थे। साहित्य दर्पण के प्रथम परिच्छेद की पुष्पिका में इन्होंने अपने को 'सांधिविग्रहिक,' 'अष्टादशभाषावारविलासिनीभुजंग' कहा है पर किसी राजा के राज्य का नामोल्लेख नहीं किया है। साहित्य दर्पण के चतुर्थ परिच्छेद में अलाउद्दीन खिलजी का उल्लेख पाए जाने से ग्रंथकार का समान अलाउद्दीन के बाद या समान संभावित है। जंबू की हस्तलिखित पुस्तकों की सूची (स्टीन) में साहित्य दर्पण की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख मिलता है, जिसका लेखन काल १३८४ ई. है, अत: साहित्य दर्पण के रचयिता का समय १४वीं शताब्दी ठहरता है।

साहित्य दर्पण के अतिरिक्त विश्वनाथ द्वारा काव्य प्रकाश की टीका का उल्लेख पहले आ चुका है। इनके अतिकाव्य विश्वनाथ ने अनेक काव्यों की भी रचना की है जिनका पता साहित्य दर्पण और काव्यप्रकाश दर्पण से लगता है। 'राघव विलास' संस्कृत महाकाव्य, 'कुवलयाश्वचरित्' प्राकृत भाषाबद्ध काव्य, 'नरसिंहविजय' संस्कृत काव्य; 'प्रभावतीपरिणय' और 'चंद्रकला' नाटिका तथा 'प्रशस्ति रत्नावली' जो सोलह भाषाओं में रचित करंभक है, का उल्लेख इन्होंने स्वयं किया है और उनके उदाहरण भी आवश्यकतानुसार दिए हैं जिनसे साहित्य दर्पणकार की बहुभाषाविज्ञता और प्रगल्भ पांडित्य की अभिव्यक्ति होती है।

(विश्वनाथ त्रिपाठी)