सावित्री और सत्यवान की कथाएँ पुराणों और महाभारत में मिलती हैं। वह मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री थी तथा शाल्व देश के भूतपूर्व राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से स्वयंवर ढंग से ब्याही थी। अपने पति की अल्पायुष्य और सास-ससुर की अंधावस्था को जानते हुए भी उसने उनकी खूब सेवाएँ कीं। सत्यवान के दीर्घायुष्य के लिए प्रार्थना करना उसने अपना नित्यकर्म बना लिया। एक दिन सत्यवान वन में लकड़ी काटने गया। वहाँ उसे सिरदर्द हुआ और सावित्री की गोद में ही उसकी मृत्यु हो गई। यमराज ने आकर उसका प्राण ले जाने का उपक्रम किया पर सावित्री उसका साथ छोड़ने को तैयार न हुई और पीछे-पीछे चली। उस पतिव्रता को लौट जाने के लिए बार-बार समझाते हुए यमराज ने अनेक वर दिए, जिनसे अंधे सास-ससुर को दृष्टियाँ मिल गई उनका राज्य उन्हें मिल गया, उसके सौ सहोदर भाई हुए तथा उसे सौ आरस पुत्रों को पैदा करने का वचन मिला। अंतिम वर देने और सावित्री की मधुर, पातिव्रतपूर्ण तथा बुद्धिमत्तापूर्ण प्रार्थनाओं को सुनकर सत्यवान का प्राण छोड़ देने को यमराज विवश हो गए। सत्यवान जी उठा और सावित्री भारत की पतिव्रता स्त्रियों में सर्वप्रथम गिनी जाने लगी।

सावित्री शंकर की स्त्री उमा अथवा पार्वती का भी नाम है। कश्यप की स्त्री का भी नाम सावित्री था।

सं. ग्रं. -मत्स्यपुराण, अध्याय २०७ से २१३; ब्रह्मवैवर्त पुराण, अध्याय २३ और आगे; महाभारत का सत्यवान सावित्री उपाख्यान, वनपर्व, अध्याय २९२ और आगे। (विशुद्धानंद पाठक)