सावरकर, विनायक दामोदर (१८८३-१९६६) क्रांतिकारी सेनानी के रूप में स्वातंत््रयवीर सावरकर का आधुनिक भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है। नासिक के समीप भगूर ग्राम में एक संपन्न परिवार में जन्म होने पर भी बालक सावरकर का जीवन माता-पिता की असामयिक मृत्यु से, असीम कष्टों की छाया में आरंभ हुआ। पूना में हुए चाफेकर बंधुओं के बलिदान से प्रेरित होकर उन्होंने १४-१५ वर्ष की उम्र में कुलदेवी के सम्मुख देश की स्वतंत्रता के लिए आमरण संघर्षरत रहने की भीषण प्रतिज्ञा की। मौजी और घुमक्कड़ तरुणों को संघटित करके विद्यार्थी जीवन में ही 'राष्ट्रभक्त समूह' और मित्र मेला, नामक गुप्त और प्रगट संस्थाओं की नासिक में क्रम से स्थापना करने वाले वे ही थे। पूना के विद्यार्थी जीवन में विदेशी वस्त्रों की भव्य होली जलाकर लोकमान्य तिलक के स्वदेशी आंदोलन को उग्रता प्रदान करने वाले और औपनिवेशिक स्वराज्य की माँग का पर्दाफाश करके देश को संपूर्ण स्वतंत्रता का मंत्र देने वाले वे ही प्रथम देशभक्त थे। अत्यल्प काल में महाराष्ट्रीय तरुणों में स्वतंत्रता की अग्नि को प्रज्वलित करके सावरकर जी ने १९०४ में सहस्रों की उपस्थिति में 'मित्र मेला' नामक संस्था को 'अभिनव भारत' की संज्ञा प्रदान की। तरुणों को तलवार और संगीनों से युक्त होने का आदेश देकर उन्होंने शत्रु के प्राणों की आहुतियों से स्वातंत््रय यज्ञ को भड़काए रखने का आवाहन किया। उनके सशस्त्र क्रांति के संदेश और मंत्र ने मद्रास और बंगाल तक क्रांति की ज्वाला भड़का दी। क्रांति संगठनों की धूम मच गई। दिव्य ध्येय और प्रतिज्ञा का प्रथम चरण पूर्ण हुआ। तरुण सावरकर ने क्रांति युद्ध का विस्तार करने के लिए इंग्लैंड गमन का ऐतिहासिक निर्णय किया।
बी.ए. पास होते ही १९०६ में पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा की शिवाजी विद्यार्थी वृत्ति प्राप्त कर वे बैरिस्टरी पढ़ने के लिए इंग्लैंड गए। पं. वर्मा के लंदन स्थित 'भारत भवन' में उनका निवास था। अपने ध्येय की सिद्धि के लिए उन्होंने सावधानी से कार्य आरंभ किया। अल्पकाल में ही 'भारत भवन' भारतीय क्रांति का केंद्र बन गया। लंदन में 'अभिनव भारत' की एक शाखा की स्थापना करके उन्होंने भारतीय क्रांति युद्ध को अंतरराष्ट्रीयता प्रदान की। उनकी प्रेरणा से हेमचंद्र दास और सेनापति बापट ने रूसी क्रांतिकारियों की सहायता से बम विद्या सीखकर भारतीय स्वातंत््रय युद्ध में बम युग का तेजस्वी अध्याय जोड़ा। अत्यंत युक्ति से लंदन से पिस्तौलों के पार्सल भेजकर उन्होंने भारतीय क्रांति वीरों को शस्त्रों की आपूर्ति की। क्रांति की आग फैलाने के लिए 'सत्तावन का स्वातंत््रय समर' और 'मैजिनी' नामक दो ग्रंथों की उन्होंने रचना की। प्रकाशन के पूर्व ही दो देशों द्वारा जब्त होने पर भी उसका प्रकाशन कराकर उन्होंने अंग्रेज शासन को मात दी। इस ग्रंथ से उनकी तेजस्वी अलौकिक बुद्धि, तीक्ष्ण संशोधक वृत्ति, विद्वता एवं काव्य प्रतिभा का परिचय मिलता है। काव्यमय वर्णनों, अलौकिक बलिदानों की उत्तेजक कथाओं, श्रेष्ठतम ध्येयवाद के स्वातंत््रय सूक्तों से अलंकृत यह ग्रंथ भारतीय क्रांति के वेद या गीता की प्रतिष्ठा को प्राप्त हुआ। राष्ट्र की अस्मिता को जागृत करके असंख्य भारतीयों को राष्ट्रभक्ति की दिव्य प्रेरणा देने वाले इस ग्रंथ का स्व. भगत सिंह नित्य पाठ करते थे। नेताजी सुभाष बोस ने तो इसे आजाद हिंद सेना में पाठ्य ग्रंथ के रूप में ही स्वीकार किया था।
विद्यार्थी सावरकर के क्रांतिकारी कार्यों से अंग्रेजी साम्राज्य दहल गया। लंदन में कर्जन वायली को मदनलाल धींगरा ने और नासिक में कोन्हेरे ने जैक्सन को, गोलियों का निशाना बनाया। दमन चक्र में सैकड़ों क्रांतिकारी वीर पिस गए। ज्येष्ठ बंधु बाबाराव सावरकर को अंदमान भेजा गया। लंदन में साम्राज्य की छाती पर बैठकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सूत्रों को हिलाने वाले तरुण सावरकर को फँसाने के लिए प्रबंध पूरा कर लिया गया। अस्वस्थ होने पर भी वे पेरिस से लौटते ही लंदन स्टेशन पर पकड़े गए। मुकदमा चलाने के लिए उन्होंने भारत भेजा गया। मार्ग में मार्सेलिस के निकट अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण होते ही वे विकल हो गए। स्वातंत््रय लक्ष्मी का स्मरण कर जहाज के पोर्ट होल से फ्रांस के अथाह सागर में छलाँग लगाकर, गोलियों की बौछार में तैरकर उन्होंने फ्रांस की भूमि पर पदन्यास किया। पर लोभी फ्रेंच पुलिस ने उन्हें अंग्रेज अधिकारियों को सौंप दिया। भारतीय न्यायालय ने उन्हें दो भिन्न आरोपों के अंतर्गत दो आजन्म कारावासों का अर्श्व दंड दिया।
पचास वर्षों का कारावास भोगने के लिए उन्हें १९११ में अंदमान भेजा गया। बंदी पाल के मुख से कारावास की भीषणता का क्रूर वर्णन सुनकर वे पूछ बैठे 'अंग्रेजों का शासन भी रहेगा पचास वर्षों तक?' सावरकर जी की अचूक भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। बंदियों को संघटित करके अधिकारियों के अन्याय को, तथा अधिकारियों के प्रोत्साहन से होने वाले धर्म परिवर्तन को उन्होंने रोका। काल कोठरी में भी उनकी प्रतिभा फूली फली। टूटी कील या नाखून से कोठरी की दीवार पर उन्होंने सहस्रों पंक्तियों की सुंदर काव्य रचना की। उन्हें स्वयं कंठस्थ करके, एक मुक्त होने वाले, सहबंदी को कंठस्थ कराकर उन्होंने कारागार के बाहर भेजा। सरस्वती की ऐसी अनुपम आराधना किसी अन्य व्यक्ति ने स्यात् ही की हो। १९२४ में उन्हें कुछ शर्तों के साथ मुक्त करके रत्नागिरी में स्थानबद्ध किया गया। १९३७ में वे पूर्णतया मुक्त हुए।
अखिल भारतीय हिंदू महासभा के वे लगातार छह बार अध्यक्ष चुने गए। उनके काल में हिंदू सभा एक महत्वपूर्ण अखिल भारतीय संस्था के रूप में अवतीर्ण हुई। २२ जून, १९४० के दिन नेताजी बोस ने उनसे ऐतिहासिक भेंट की। उनसे प्रेरणा लेकर विदेश में नेताजी ने हिंद सेना का संघटन किया। सावरकर जी के सैनिकीकरण आंदोलन के कारण ही हिंद सेना को प्रशिक्षित सैनिकों की पूर्ति होती थी। स्वयं नेताजी ने अपने एक आकाशवाणी से दिए भाषण में उनके प्रति धन्यवाद और आभार प्रगट करते हुए इसे स्वीकार किया।
स्वतंत्रता के उद्गाता और क्रांतिकारी सेनानी के रूप में वीर सावरकर का ऐतिहासिक महत्व है। साथ ही राष्ट्र के मंत्रद्रष्टा के रूप में भी उनका महत्व उससे कम नहीं। 'हिंदू को राष्ट्र मानकर हिंदुत्व ही राष्ट्रीयता है' इस सिद्धांत को उन्होंने प्रस्थापित किया। राष्ट्रवाद की नींव पर उन्होंने समाज सुधार का अमूल्य कार्य किया। स्वतंत्र राष्ट्र के लिए भाषा के महत्व को समझकर सर्वप्रथम सावरकर जी ने ही भाषा और लिपि शुद्धि के आंदोलन का श्रीगणेश किया। समय-समय पर राष्ट्र को भावी संकटों से आगाह करके उन्होंने पहले ही उन संकटों को टालने के लिए उपयोगी संदेश दिए।
देशभक्ति सावरकर जी के जीवन का स्थायी भाव था। देशभक्ति नामक दसवें रस के जनक वीर सावरकर ही थे। उनका जीवन शौर्य, साहस, धैर्य और सहनशीलता का प्रतीक है। अपने महान ध्येय की सिद्धि के लिए मानव दु:ख, कष्ट, यातनाओं, उपेक्षाओं और अपमान का हलाहल कहाँ तक पचा सकता है, इसका उदाहरण सावरकर जी का पवित्र जीवन है। समर्थ गुरु रामदास ने शारदा को वीर पुरुषों की भार्या कहा है। इसका प्रमाण सावरकर जी हैं जिन्होंने आजीवन कष्ट और यातनाएँ झेलते हुए भी लगभग ८-१० हजार पृष्ठों के अमर साहित्य का सर्जन किया। साहित्य के सभी क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा ने चमत्कार दिखाया। उसमें प्रगल्भता, अलौकिकता और विद्युत-सी चपलता है। सावरकर वक्ता भी बेजोड़ थे, लाखों श्रोताओं के जनसमूह को अपने पीछे खींच ले आने की अद्भूत शक्ति उनमें थी।
आजन्म शौर्य और साहस से मृत्यु को दूर रखने वाले सावरकर ने अंत में मृत्यु को भी मात कर दिया। ८० दिनों तक उपवास करके उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया। (म. गो. प.)