सारणिक (Determinant) एक विशिष्ट प्रकार का बीजीय व्यंजक (वस्तुत: बहुपद) जिसमें प्रयुक्त की गई राशियों अथवा अवयवों की संख्या (पूर्ण) वर्ग रहती है। इन राशियों को प्राय: एक वर्गाकार विन्यास में लिखकर उसे अगल-बगल दो ऊर्ध्वाधर सीधी रेखाएँ खींच दी जाती है, उदाहरणत: में अवयवों वाले सारणिक को नवें क्रम का सारणिक कहते हैं। [प्रथम क्रम के सारणिक का प्रयोग कदाचित् ही होता हो, वस्तुत: ।क। का अर्थ 'राशि का मापांक' होेता है।] नवें क्रम के सारणिक का विस्तार, अर्थात् उससे निरूपित बहुपद, म अवयवों के उन सब गुणनफलों को आगे लिएक नियम के अनुसार + १ या-१ से गुणा करके जोड़ने से प्राप्त होता है जो प्रत्येक पंक्ति से और प्रत्येक स्तंभ से एक एक अवयव लेने से बनते हैं। सारणिक के विस्तार के उस पद को मुख्य पद कहते हैं जिसके सभी अवयव सारणिक के उस विकर्ण पर स्थित हैं जो पहली पंक्ति और पहले स्तंभ के उभयनिष्ठ अवयव से होकर जाता है। मुख्य पद को दो उर्ध्वाधर रेखाओं के बीच में लिखकर भी सारणिक को व्यक्त करने की प्रथा है, इस प्रकार उपर्युक्त क्रम ३ का सारणिक। क१ ख२ ग३। से व्यक्त किया जा सकता है।
चिह्न का नियम-माना, विचारस्थ, गुणनफल में अ उस स्तंभ की संख्या है जिससे पवीं पंक्ति का अवयव लिया गया है। अब अनुक्रम अ१, अ२, अ३ में प्रत्येक पद अ१ के लिए उन पदों की संख्या स१ लिखो जो अ२ की बाईं ओर हैं और अ१ से बड़ी हैं। यदि स१ + स२+...+स३-अ. म सम है तो गुणनफल के पूर्व ऋण चिह्न लेना होगा अन्यथा धन।
सारणिक के रूपांतरण-विस्तार करके अथवा थोड़े से विचार से निम्न नियमों की सत्यता प्रमाणित की जा सकती है:
(१) ��� स्तंभ-पंक्ति-परिवर्तन-सभी स्तंभों को पंक्तियों में इस प्रकार परिवर्तित करने से कि मवाँ स्तंभ बदलकर मवीं पंक्ति बन जाए, सारणिक का मान नहीं बदलता। विलोमत: पंक्तियों को स्तंभों में पूर्वोक्त नियम के अनुसार बदलने से भी सारणिक के मान में कोई परिवर्तन नहीं होता। इस नियम से स्पष्ट है कि जो नियम पंक्तियों के लिए लागू है वैसा ही नियम स्तंभों के लिए भी लागू होगा, इसलिए आगे के नियम केवल पंक्तियों के लिए ही दिए जाएँगे।
(२) ��� सारणिक का किसी राशि से गुणा करना-सारणिक के किसी एक स्तंभ के सभी अवयवों को राशि क से गुणा करने का परिणाम सारणिक के मान को क से गुणा करना है।
(३) ���
किसी स्तंभ का दो स्तंभों
में खंडन-शब्दों
की अपेक्षा इस नियम को तीसरे क्रम के सारणिक से उद्धृत करना
अधिक सुगम है:
श्चार्ट जाएगा
दो स्तंभों का (परस्पर) विनियम-सारणिक के किन्हीं दो स्तंभों
को आपस में बदलने से सारणिक का मान पूर्व मान का १ गुना
हो जाता है।
(५) सारणिक का शून्यमान-यदि
किसी सारणिक के एक स्तंभ के अवयव किसी अन्य स्तंभ के अवयवों
से क्रमानुसार एक ही अनुपात में हों तो सारणिक का मान शून्य
होता है।
दो सारणिकों का गुणनफल-एक ही क्रम के दो सारणिकों का गुणनफल उसी क्रम का सारणिक होता है जिसकी ५वं पंक्ति और सवें स्तंभ का उभयनिष्ठ अवयव उन सब गुणनफलों का योग है जो दिए हुए सारणिकों में से प्रथम की प वीं पंक्ति के अवयवों को क्रमानुसार दूसरे सारणिक के स वें स्तंभ के अवयवों को गुणा करने से प्राप्त होते हैं।
सारणिक के ड्ढिन्हीं प पंक्तियों और प स्तंभों में दो उभयनिष्ठ अवयवों से क्रम प का जो सारणिक बनता है उसे मूल सारणिक का प वें क्रम का उपसारणिक (जो वस्तुत: क्रम म प का एक सारणिक है) कहते हैं, और शेष म-प पंक्तियों और म-प स्तंभों के उभयनिष्ठ अवयवों से बने सारणिक को इस उपसारणिक का पूरक उपसारणिक। सारणिक सिद्धांत में उपसारणिकों की बड़ी महत्ता है।
प्रथम धात के समीकरणों का हल-माल लो कि तीन प्रथम धात के समीकरण:
क१य+कर+ क३ल = क४
ख१य+ख२र+ ख३ल = ख४
ग१य+ग२र+ ग३ल = ग४
दिए हुए हैं जिनमें पादांकित राशियाँ क१, ख२, . . .ग४ ज्ञात हैं और य, र, ल, अज्ञात हैं जिनके मान ज्ञात करना अभीष्ठ है; तो यह सिद्ध किया जा सकता है कि
चार्ट जाएगा
जहाँ ख१ ग४ क्रम ३ का पूर्वोक्त सारणिक है और क्रमानुसार में पहले, दूसरे, तीसरे स्तंभों के उस स्तंभ के विनिमय से बनते हैं जिसके अवयव ज्ञात राशियाँ क१, ख१ ग४ हैं।
सारणिक व्यूह सिद्धांत की आत्मा है; इसके प्रयोग से समीकरण समूहों का वर्गीकरण किया जा सकता है कि अमुक समूह का हल संभव होगा या नहीं और हल यदि संभव है तो कितने हल हो सकते हैं। उच्च बीजगणित का एक प्रमुख और मौलिक महत्ता का अंग सारणिक है; और प्राय: गणित की प्रत्येक शाखा में इसका प्रत्येक होता है।
ऐतिहासिक-सारणिकों का आविष्कारक जी. डब्ल्यू. लाइवनिजको माना जाता है; उसने १६९३ में जापानी गणितज्ञ सेकी कोवा ने लगभग ऐसा ही नियम खोज लिया था। लाइबनिज़ की इस खोज का अधिक प्रभाव नहीं हुआ; जी. क्रेमर ने १७५० में सारणिकों की पुन: खोज की और अपनी गवेषणा को प्रकाशित भी किया। सारणिकों की वर्तमान संकेतन पद्धति का आविष्कार ए. केली ने १८४१ ई. में किया था। अनंत क्रम के सारणिकों का प्रयोग जी. डब्ल्यू. हिल ने किया है (एका मेथ. खंड ८)।
सं. ग्रं.-(ऐतिहासिक) टी. म्यौर: दि थ्योरी ऑव डिटरमिनेंट्स इन दि हिस्टॉरिकल ऑर्डर ऑव डेवलपमेंट, खंड १-४ (१९०६-२०); डी.ई. स्मिथ और वाई. मिकामी: ए हिस्ट्री ऑव जापानीज़ मैथेमेटिक्स (१९१४)।
(विषय प्रतिपादन) एम. बोकेर: इंट्रोडक्शन टु हायर एलजबरा (१९०७); सी.ई. कुलिस: मेट्रिसेज़ ऐंड डिटरमिनोइड्स (१९२५); ए. ड्रेसडेन: सॉलिड ऐनेलिटिकल ज्यामेट्री ऐंड डिटरमिनेट्स (१९२९); एल.जी. वेल्ड: थ्योरी ऑव डिटरमिनेंट्स, ए.सी. एरकिन: डिटरमिनेंट्स ऐंड मेट्रिसेज़। [हरिचंद्र गुप्त]