सामाजिक सुरक्षा (भारत में) एक सीमित अर्थ में भारत में सामाजिक सुरक्षा का आरंभ श्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम (१९२) तथा विभिन्न मातृत्व हितकारी अधिनियमों से माना जा सकता है जो पहले के प्रांतों में तथा रियासतों में पारित हुए थे। किंतु इन वैधानिक नियमों का विकास मालिकों की देयता (employer's liability) के आधार पर हुआ था, और इस प्रकार वे सामाजिक सुरक्षा के सिद्धांतों से असंगत थे। श्रमिकों को व्यापक सुरक्षा प्रदान करने में वे विफल रहे। मजदूर की क्षतिपूर्ति का तरीका सिद्धांतत: गलत था और वह उन लोगों के लिए हानिकारक था जिनके हित साधन के लिए उसका निर्माण हुआ था। इस प्रणाली में औद्योगिक और पुन:स्थापन की सेवाओं की कहीं गुंजायश नहीं थी, न है, जबकि क्षतिपूर्ति की किसी योजना का यह एक महत्वपूर्ण अंश होना चाहिए। जो हो, भारत में, स्वास्थ्य बीमा को हम सामाजिक सुरक्षा योजना का प्रथम रूप मान सकते हैं।
देश में बीमा योजना का प्रश्न पहले पहल १९२७ में उन अनुबंधों (convention) के संबंध में उठाया गया था जिन्हें अंतरराष्ट्रीय श्रम कफ्रोंस ने अपने १०वें अधिवेशन में उद्योग, वाणिज्य, और कृषि में मजदूरों के स्वास्थ्य बीमा के लिए स्वीकार किया था। भारत सरकार जिस परिणाम पर पहुँची थी वह यह था कि यह परंपरा भारतीय मजदूर के एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले स्वभाव के कारण साध्य नहीं है। बाद में श्रम के संबंध में स्थापित शाही आयोग (१९३१) ने भी इस बात की पुन: समीक्षा की और बीमारी के बीमे की किसी योजना के लागू करने में कठिनाइयों का अनुभव किया। फिर भी आयोग ने एक संस्था के आधार पर परीक्षा के लिए अंतरिम योजना को तब तक लागू करने की सिफारिश की, जब तक अंतिम और व्यापक योजना की रूपरेखा न बन जाए। इस योजना का मुख्य उद्देश्य नकद लाभ से चिकित्सा को अलग करना था।
यह प्रश्न श्रम मंत्रियों की पहली, दूसरी और तीसरी कफ्रोंसों में क्रमश: १९४०, १९४१, तथा १९४२ में फिर उठाया गया। श्रम मंत्रियों की तीसरी कफ्रोंस में सरकार ने परीक्षण के लिए एक योजना का आरंभ किया। यह योजना कफ्रोंस में विचार-विमर्श के लिए रखी गई थी। अत: यह निश्चय हुआ कि एक विशेषाधिकारी नियुक्त किया जाए और यह प्रांतीय सरकारों से तथा मालिक और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाले सलाहकारों के एक मंडल से सलाह लें। इस प्रकार मार्च, १९४३ में भारत में औद्योगिक कर्मचारियों के स्वास्थ्य बीमा की संपूर्ण योजना के विवरण का कार्यान्वयन करने के लिए प्रो. अडारकर नियुक्त हुए। तदनुसार अडारकर ने उद्योगों के तीन प्रमुख वर्गों, अर्थात् कपड़ा, इंजीनियरिंग और खनिज उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों के रोगी बीमा के विभिन्न पहलुओं के विषय में गंभीर अन्वेषण किए।
प्रो. अडारकर की रोग बीमा योजना का क्षेत्र यद्यपि सीमित था, फिर भी उसने कर्मचारी राज्य बीमा ऐक्ट, १९४८ के लिए मार्ग प्रशस्त किया। इस अधिनियम (ऐक्ट) में अडारकर योजना में उल्लिखित मुख्य सिद्धांत समन्वित हैं यथा, अनिवार्य अंशदान जो बीमांक के हिसाब से संतुलित और व्यवहार में नमनशील हो; तथापि कर्मचारी राज्य बीमा ऐक्ट १९४८ अडारकर योजना द्वारा स्वीकृत दो बुनियादी दृष्टिकोणों से अपर्याप्त है; अर्थात् एक ओर तो ऐक्ट ऐसे किसी न्याय तंत्र की व्यवस्था नहीं करता जो नकद और चिकित्सा लाभ संबंधी झगड़ों का निपटारा करे, और दूसरी ओर ऐक्ट औद्योगिक कर्मचारियों की रुग्णशीलता के आयाम का ध्यान नहीं रखता। परिणामत: उसमें वित्तीय दृष्टि से कमी रह जाती है जिससे ऐक्ट के अंतर्गत बीमा किए हुए कुछ कर्मचारियों को ही लाभ मिल जाता पाता है और जो मिलता है, वह भी अपर्याप्त होता है।
हमें अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन से और ब्रिटिश संयुक्त राज्य (U.K.) तथा अमरीका (U.S.A.) में सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में हुए विकास से बहुत अधिक लाभ पहुँचा है, विशेषत: ब्रिटिश संयुक्त राज्य में सामाजिक बीमा तथा संबंधित सेवाओं में (Social Insurance and Allied Services in the U.K.) संबंधी बेवरिज रिपोर्ट के प्रकाशन ने तथा उन प्रस्तावों से जो अंतर अमरीकी सामाजिक बीमा संहिता (Inter American Social Insurance) के आधार पर स्वीकार किए गए थे।
बेवरिज योजना की परिकल्पना संयुक्त राज्य में दूसरे विश्व युद्ध के बाद सामाजिक बीमा के वर्तमान नियमों को समाविष्ट कर उन्हें पुनर्गठित करने की थी, इस परिकल्पना की प्रमुख विशिष्टता सामाजिक सुरक्षा की समस्या को समग्र रूपसे मान्य ठहराने में है, न कि अंशों में। परिकल्पना समाज के सामने एक आदर्श रखती है जिससे मनुष्य अभाव और पारिवारिक विपत्ति के भय से मुक्त होकर जीवनयापन कर सके।
वर्तमान शताब्दी के आरंभ से औद्योगीकरण में अग्रसर होते हुए भी भारत श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के स्तर में पिछड़ा हुआ है। समर्थ श्रमिकों को सबसे अधिक जिस महत्वपूर्ण सुरक्षा की आवश्यकता है वह आय के कम हो जाने और बेरोजगारी से बचाव की है।
आजकल औद्योगिक विवाद (संशोधन) ऐक्ट १९५६ को छोड़कर कोई ऐसा विधान नहीं है जो रोजगार बंद हो जाने के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता हो। औद्योगिक विवाद ऐक्ट (संशोधन) की धारा २५, उपधारा FFF भी मालिकों को किसी व्यवसाय को अल्पकालीन या नियमित और स्थायी निर्धारित करने के मनमाने अधिकार दे देती है।
१९६१ की श्रम कफ्रोंस में इस असंगति को दूर करने का प्रयत्न किया गया। जन कल्याण की राज्य के संदर्भ में, जिस स्थापित करने का राष्ट्र का लक्ष्य है और बेरोजगारी के विरुद्ध सुरक्षा के संबंध में जिसके लिए संवैधानिक नियम हैं, जो प्रगति हुई है वह चिंतनीय है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४१ में उल्लिखित है: काम करने के अधिकार, वृद्धावस्था, रोग, अंगहानि, तथा अभाव की अन्य अनुपयुक्त स्थितियों में राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के अंतर्गत प्रभावपूर्ण व्यवस्था करेगा। पूर्वोल्लिखित निदेशक सिद्धांत में घोषित आदर्श की प्राप्ति में भारत की आर्थिक उन्नति औद्योगिक रूप से विकसित पश्चिम के देशों द्वारा उपलब्ध अवस्थाओं तक सन्निहित है। परिणामत: वर्तमन अवस्था में, सामाजिक सुरक्षा की बहुत कुछ सरल तथा ऐसी योजना की आशा करना युक्तिसंगत होगा जो जीवनांककीय और वित्तीय दृष्टि से उन देशों के बराबर हो जो आर्थिक विकास की उन अवस्थाओं से ही गुजर रहे हों जिसके लिए भारत प्रयत्नशील है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के तत्वावधान में सामाजिक सुरक्षा के व्यय के हाल (१९४९-१९५७) के अध्ययन में सामाजिक सुरक्षा की विभिन्न योजनाओं के कुल आय व्यय को सदस्य राज्यों की राष्ट्रीय आय से परस्पर संबंधित किया गया। हमारे समक्ष जो मौजूदा उद्देश्य है उसके लिए हमें चीन से तुलना करनी चाहिए, क्योंकि भारत और कम्युनिस्ट चीन दोनों की अर्थव्यवस्थाएँ उन्नति की और प्रयत्नशील हैं और दोनों राष्ट्रीय योजनाओं के अधीन कार्य कर रहे हैं। १९५६-५७ में भारत में सामाजिक सुरक्षा के कुल आय व्यय राष्ट्रीय आय के १.२ और १.० प्रतिशत हैं, विवेचित वर्ष में चीन की राष्ट्रीय आय के श्रमिक अंक ०.९ और ०.८ हैं। भारत और चीन के बीच सामाजिक सुरक्षा का तुलनात्मक वित्तीय मूल्यांकन एक शुभ लक्षण है; किंतु यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था विभिन्न संस्थागत परिस्थिति में कार्य कर रही है और उस निधि से जो लोक सहायता की योजनाओं के अंतर्गत लोक कार्य के लिए निर्धारित हैं-जो कि अर्थव्यवस्था में मुख्यत: रोजगारी शक्ति उत्पन्न करने में लगाई जाती है। संभवत: वे सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में नहीं आते।
भारत में प्रवर्तित सामाजिक सुरक्षा के कार्यों के स्तर और सीमा से संतोष कम ही गुंजायश है, क्योंकि इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करने को है, विशेष रूप से रोजगार बीमा की प्रभावशाली योजनाओं को प्रचलित करने के लिए।
इस प्रकार भारत में योजना बनाने वालों के आगे बेरोजगारी एक स्थायी चुनौती है, क्योंकि कर्मचारियों और समाज के दृष्टिकोण से बेरोजगारी की लागत पर विचार करने से सही हालत प्रकट नहीं होती। निस्संदेह हानि के रूप में बेरोजगारी मालिकों के लिए उतना चिंता का विषय नहीं है जितना मजदूरों और सारे समाज के लिए है। जनशक्ति की बर्बादी के रूप में बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था का शिथिल विकास साथ-साथ चलते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि देश में पंचवर्षीय योजनाओं के लागू होने के समय से चिंतनीय रूप से बढ़ती हुई बेरोजगारी की बुराई को दूर करने के लिए उपयुक्त उपाय किए जाएं।
दूसरी पंचवर्षीय योजना के आरंभ में बेरोजगार लोगों की संख्या ५३ लाख कूती गई थी; दूसरी योजना के अंत तक यह ९० लाख स्थिर की गई। कहा जाता है, तीसरी योजना में इस भार से कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं होगी, किंतु तीसरी योजना में संभावित रोजगार के साधनों के अनुसार १ करोड़ ४० लाख अतिरिक्त लोगों को रोजगार दिया जाएगा, जबकि नमूने के तौर पर किए गए सर्वेक्षण (National sample survey) के अनुमान के अनुसार रोजगार चाहने वालों में नए लोगों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख होगी। इस प्रकार तीस लाख बेरोजगार रह ही जाएंगे। परिणामत: तीसरी योजना के अंत में बेरोजगारी का कुल भार एक करोड़ बीस लाख तक होने की संभावना है। भारत में सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में क्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम (Workmen's compensation Act) तथा मातृत्व संबंधी विभिन्न अधिनियम (maternity Act) अंशत: किए गए विधान थे। इस दिशा में पहला ठोस कदम सन् १९४८ में कर्मचारी राज्य बीमा ऐक्ट बनाकर उठाया गया, जिसके अनुसार बीमारी, प्रसव और काम करते हुए चोट लगना, इन तीन जोखिमों से औद्योगिक कर्मचारियों की रक्षा की व्यवस्था की गई। किंतु जैसा कि ऐक्ट आजकल है, वह व्यापकता में सीमित है और उसे विभिन्न दिशाओं में बहुत विस्तृत करने की आवश्यकता है, जैसे प्रशासन का विकेंद्रीकरण, ऐक्ट से संलग्न सामाजिक सुरक्षा से संबंधित विभिन्न कार्यकारी योजनाओं का एकीकरण और कर्मचारियों को दिए जाने वाले नकद और चिकित्सकीय लाभ की अपर्याप्तता। जो हो, कर्मचारियों का राज्य बीमा ऐक्ट भारत में आरंभ किया एक साहसिक कार्य माना जाता है। यह ऐक्ट कर्मचारियों को, सामान्य जोखिम से बचाव कर, लाभ पहुँचाता है, जो अभी तक दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य देशों में इस स्तर पर नहीं हुआ है। अलग-अलग देशों में राष्ट्रीय आय के स्तर के संबंध में निर्देशित विभिन्न आर्थिक व्यवस्थाओं, औद्योगीकरण की अवस्था, प्रशासकीय कर्मचारियों की सुलभता आदि के कारण सामाजिक सुरक्षा के प्रतिरूप में समानता, विस्तार और स्तर को बनाए रखना कठिन है। इसके अतिरिक्त विभिन्न देशों में सामाजिक ढाँचों में, अर्थव्यवस्थाओं में और राजनीतिक संस्थाओं में विभिन्न होने के कारण आवश्यक सामाजिक सुरक्षा की प्रकृति तथा मात्रा में अंतर हो जाता है। परिणामत: सामाजिक सुरक्षा की विशिष्ट योजनाओं को जो तत्संबंधी महत्व दिया जाता है वह देश-देश में अलग-अलग होता है। किंतु अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा निर्धारित सामाजिक सुरक्षा के प्रतिमान सामाजिक बीमा के मानदंड की व्यवस्था करते हैं, जिन्हें सदस्य देश पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।
इस समय राज्य कर्मचारी बीमा ऐक्ट प्राय: देश भर में लागू है। इस योजना के अंतर्गत राज्य कर्मचारी बीमा कार्पोरेशन के द्वारा १९५९-६० में लगभग १७ लाख औद्योगिक कार्यकर्ताओं और लगभग ५ लाख पारिवारिक इकाइयों ने लाभ उठाया। यह अनुमान किया जाता है कि तीसरी योजना के अंत तक इस ऐक्ट के अंतर्गत ३० लाख कर्मचारियों को लाभ सुलभ होगा और यह उन केंद्रों में लागू कर दिया जाएगा जहाँ पाँच सौ या उससे अधिक कर्मचारी काम करते हैं। इसके अतिरिक्त, राज्य कर्मचारी बीमा योजना के अंतर्गत भी कर्मचारी क्षतिपूर्ति ऐक्ट के अधीन लगा दिए जाते हैं। फिर भी, इसके उन औद्योगिक कर्मचारियों पर ही लागू होने के कारण जो स्थायी कारखानों में काम करते हैं, यह ऐक्ट बहुत सीमित है, और उन सब कर्मचारियों पर लागू होता है जो ४०० रु. प्रति मास से अधिक पारिश्रमिक नहीं पाते। स्पष्टत: इस ऐक्ट का क्षेत्र सारे देश की श्रमिक जनसंख्या के एक अंश का ही प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी बात, यद्यपि बीमा किए कर्मचारी के परिवार को चिकित्सा के लाभ के विस्तार के विषय में विचार किया जा रहा है और सरकार उस ओर पूरा ध्यान दे रही है, तथापि, उसकी प्राप्ति के ढंग और अवधि में सुधार होने में समय लग सकता है। तीसरी बात, सामाजिक सुरक्षा से संबंधित अन्य विधानों के एकीकरण और समरूप करने की बहुत अधिक आवश्यकता है। ये विधान हैं, मातृत्व हितकारी विभिन्न ऐक्ट, कर्मचारियों का प्रावीडेंट फंड ऐक्ट १९५२, औद्योगिक कर्मचारी (स्थायी आदेश) ऐक्ट १९४६ और विवाद (संशोधन) ऐक्ट १९५३, (धारा २५), साथ में कर्मचारी राज्य बीमा ऐक्ट। यह इसलिए आवश्यक है कि एक सरल सर्वोपयोगी सामाजिक सुरक्षा योजना की व्यवस्था हो सके, जिससे वर्तमान प्रशासकीय व्यय कम होने की और कर्मचारियों के लिए एक सुसंगत संस्थागत व्यवस्था सुलभ होने की संभावना है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि एकरूप सामाजिक सुरक्षा योजना की संभाव्यता बुनियादी तौर पर सुलभ साधनों की सीमा पर निर्भर करती है; किंतु उसके कार्यान्वयन के लिए साधन खोजना ही चाहिए। पिछली एक दशाब्दी में औद्योगिक उत्पादन में अच्छी-खासी वृद्धि हुई है। इसलिए उन मजदूरों को, जो अधिक उत्पादन के स्तर के लिए उत्तरदायी हैं, जोखिम से रक्षा के उपयुक्त साधनों के रूप में न्याय भाग मिलना चाहिए। ये जोखिम हैं: अपाहिज हो जाना, रोजगार छूट जाना, बीमारी और बुढ़ापा। कर्मचारी राज्य बीमा ऐक्ट १९४८ के अंतर्गत चिकित्सा संबंधी व्यवस्था का विस्तार होना चाहिए विशेषत: उन बीमार कर्मचारियों की चिकित्सा के संबंध में परिवर्तन होना चाहिए जो चिकित्सालयों से घर दवा ले जाते हैं। तालिका (Panel) प्रणाली के कर्मचारियों को बड़ी असुविधा होती है, क्योंकि यह प्राय: देखा गया है कि समय पर सहायता नहीं मिलती। हर प्रकार से विचार करने पर यह आवश्यक है कि सेवा प्रणाली (Service System) को प्रोत्साहन दिया जाए और जहाँ संभव हो तालिका प्रणाली समाप्त कर दी जाए।
यहाँ वृद्धावस्था के लिए व्यवस्था के संबंध में कुछ कहना आवश्यक है। कर्मचारी के लिए वृद्धावस्था निरंतर चिंता का विषय बनी रहती है, जब तक वह अपने को इस बात के लिए सुरक्षित न समझ ले कि वह काम में लगे रहने पर जिस प्रकार रहता था उसी स्थिति में अपना जीवन कायम रख सकेगा। सेवानिवृत्त कर देने की योजना में मुख्यत: पेंशन, प्राविडेंट फंड तथा सेवापारितोषिक (gratuity) या अनुग्रह धन की व्यवस्था है। सेवानिवृत्ति अनुदानों का स्वरूप और उनका मान (Scale) कर्मचारी की सेवा अवधि और सेवानिवृत्ति होने के समय के पारिश्रमिक स्तर के अनुसार होता है।
आजकल भारत में औद्योगिक कर्मचारियों के लिए कर्मचारी प्राविडेंट फंड ऐक्ट १९५२ के अंतर्गत प्राविडेंट फंड स्वीकार किया जाता है। अपनी प्रारंभिक अवस्था में यह अधिनियम इन छह प्रमुख उद्योगों पर लागू किया गया था बशर्ते इनमें ५० या अधिक कार्यकर्ता हों- कपड़ा, लोहा और इस्पात, सीमेंट, इंजीनियरिंग, कागज और सिगरेट। १९६१ में ऐक्ट का विस्तार ५८ उद्योगों तक हो गया योजना के अंतर्गत कर्मचारियों की संख्या की सीमा भी कम करके ५० से २० कर दी गई। अनेक उद्योगों में अनुग्रह धन की विभिन्न योजनाएँ विद्यमान हैं-इसी से सेवापारितोषिक की राशि में समानता लाने के लिए एक विधेयक बनाया गया है। यह विभिन्न उद्योगों में संलग्न, समान ढंग के काम करने वाले कर्मचारियों को ग्रेच्युटी निश्चित करने की रीति में वर्तमान असमानता दूर कर देगा।
सामान्यत: श्रम संघटनों द्वारा प्राविडेंट फंड ऐक्ट १९५२ के अंतर्गत प्राविडेंट फंड के अनुदान की वर्तमान दर ६� प्रतिशत का इस बिना पर विरोध किया जाता है कि निर्वाह खर्च के लगातार बढ़ते रहने के कारण वह अपर्याप्त है। प्राविडेंट फंड ऐक्ट १९५२ के अंतर्गत अंशदान बढ़ाने के अतिरिक्त केंद्रीय श्रम संगठन ने यह माँग भी की है कि तीनों लाभ अर्थात् रोग, प्राविडेंट फंड और अनुग्रह धन की व्यवस्था के लिए एक विस्तृत योजना बनाई जाए। १९५७ में सामाजिक सुरक्षा के लिए एक अध्ययन मंडल स्थापित हुआ था और उसने सामाजिक सुरक्षा के वर्तमान नियमों में पुन: संशोधन करने तथा सामाजिक सुरक्षा की व्यापक योजना के लिए सिफारिशें पेश कीं। मंडल ने प्राविडेंट फंड की मालिक और कर्मचारी दोनों की रकम ६� प्रतिशत से ८१/3 प्रतिशत बढ़ाने की संस्तुति भी की है। इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने इस मत का समर्थन किया है; किंतु मालिक लोग उद्योगों की सीमित क्षमता के आधार पर इस वृद्धि का विरोध कर रहे हैं। सरकार ने सिद्धांत रूप से इस दर को बढ़ाना स्वीकार कर लिया है। किंतु सरकार ने मालिकों द्वारा उठाई आपत्ति की उपयुक्तता की परीक्षा और मूल्यांकन करने के लिए एक टेक्निकल कमेटी स्थापित कर दी है। अध्ययन मंडल ने मौजूदा प्राविडेंट फंड को पेंशन-सह-ग्रेच्युटी योजना में परिवर्तित करने का परामर्श दिया है जिससे कर्मचारी राज्य बीमा योजना और प्राविडेंट फंड योजना के अंतर्गत देय अंश की दर बढ़ जाएगा। श्रम संगठन इस बात पर अधिक जोर दे रहे हैं कि इस प्रकार की सम्मिलित योजना चालू करने के पूर्व यह अधिक उपयुक्त होगा कि कर्मचारी राज्य बीमा योजना के अंतर्गत चिकित्सा के लाभ बीमा किए कर्मचारियों के परिवारों को भी दिए जाएँ।
इस प्रकार भारत में सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्थाओं का आरंभ आशाजनक कहा जा सकता है, किंतु भावी प्रगति निश्चय ही इस बात पर निर्भर करती है कि सामाजिक न्याय की उपलब्धि के प्रति अभिमुख सामाजिक नीति को सामाजिक सुरक्षा का सजीव तत्व मान कर उसे प्राथमिकता दी जाए। किंतु, यदि आर्थिक विकास की वर्तमान प्रवृत्ति तथा सामाजिक निदेशन भावी आर्थिक व्यवस्था के किसी प्रकार पूर्वसूचक हैं तो इसकी न्यायत: प्रत्याशा की जा सकती है कि रोग अथवा वृद्धावस्था के विरुद्ध सभी उद्योगों के कर्मचारियों को चौथी योजना के अंत, अर्थात् १९७१ तक, सुरक्षा प्रशासित कर दी जाएगी, चाहे वह मौसमी या नियमित किसी भी प्रकार का उद्योग क्यों न हो। खेती में लगे मजदूरों के लिए रोग बीमा का लागू किया जाना निकट भविष्य में संदेहात्मक लगता है, विशेषत: उन श्रमिकों के लिए जिनके पास कोई भूमि नहीं है। आय की सुरक्षा की व्यवस्था का देश के सामाजिक और आर्थिक विकास की किसी भी योजना में प्रमुख स्थान है। किसी भी विस्तृत सामाजिक बीमा योजना के लागू करने में प्रतिबंधक तत्व सामान्यत: उद्योग की क्षमता माना जाता है। प्रथमत: सामाजिक सुरक्षा योजना के लेखकीय और हिसाबी पक्षों की त्रिदलीय स्थायी बोर्ड द्वारा समीक्षा होनी चाहिए। यह बोर्ड मजदूरों, मालिकों और सरकार के हितों का प्रतिनिधित्व करेंगे, विशेषत: राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर बनी उत्पादन परिषदों के सहयोग से।
विस्तृत सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की वित्तीय क्षमता के मामलों में कुशल परामर्श राष्ट्रीय उत्पादनश् काउंसिल, नई दिल्ली से लेना चाहिए। सामाजिक सुरक्षा के मामलों में वित्तीय तथा लेखकीय विवरणों की जाँच राष्ट्रीय उत्पादन काउंसिल के पाँच निदेशालयों द्वारा होनी चाहिए। यह निदेशालय महत्वपूर्ण केंद्रों, बंबई, मद्रास, कलकत्ता, बंगलौर और कानपुर में स्थापित किए गए हैं, राष्ट्रीय उत्पादन काउंसिल द्वारा अनुमोदित तथा क्षेत्रीय निदेशालय द्वारा परीक्षित और मूल्यांकित जो प्रस्तावित योजनाएँ हों उनका संपादन और कार्यान्वयन मौजूदा तैंतालीस स्थानीय उत्पादक काउंसिलों के माध्यम से होना चाहिए जो देश में उद्योग के स्थान और विभाजन के अनुरूप स्थापित की गई हैं।
गठित बोर्डों को चाहिए कि वे समय-समय पर व्यापक सामाजिक सुरक्षा योजना के विभिन्न कार्यक्षेत्रों में हुई प्रगति की जाँच करे। यह जाँच सामाजिक सुरक्षा अध्ययन मंडल (१९५८) की सिफारिशों के अनुसार उन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए होगी जो किसी उपयोग या संस्थान विशेष में विद्यमान हों। जब तक सामाजिक सुरक्षा की व्यापक योजना तैयार नहीं हो जाती तब तक सामाजिक सुरक्षा करने वाले परंपरागत साधनों अर्थात् सम्मिलित या विस्तृत परिवार, ग्राम पंचायतों (समितियों) और हाल के सहकारी संगठनों और सामुदायिक खंडों को उन शारीरिक रूप से अक्षम, वृद्ध लोगों और बच्चों की सहायता का मुख्य स्रोत बना रहना चाहिए जो आर्थिक दृष्टि से अभावग्रस्त हों। इसके अतिरिक्त स्थानीय निकायों को सामाजिक सहायता करने वाली योजनाओं को, किसी न किसी रूप में, सक्रिय सहयोग देना चाहिए और समाज के उस अंग को आर्थिक सहायता देने की दृष्टि से सहायता कोष की स्थापना में सम्मिलित प्रयत्न करना चाहिए जो पारस्परिक सहायता के बिना व्यक्तिगत रूप से आर्थिक अड़चनों का सामना करने में असमर्थ हैं। श् (डी.पी.गु. तथा जे.एस.स.)